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Monday 25 December 2023

बदलता समय

एक लंबी उम्र के बाद जब मनुष्य पीछे मुड़कर देखा है तो उसे आश्चर्य होता है कि एक जमाना ऐसा भी होता था। चलिए आज इसी पर बात करते हैं

एक जमाने में रिक्शा नहीं होता था पैडिल वाला। ऑटो रिक्शा का तो सवाल ही नहीं उठता। तांगे और एक्के होते थे।  हमारे पिताजी की भी जब नई नौकरी लगी थी तो तांगे से ही ऑफिस जाते थे।
 यह 1940 के दशक के शुरू की बात है। तब ना तो टेलीविजन था ना हीं ट्रांजिस्टर रेडियो । मोबाइल का तो सवाल ही नहीं उठाता। इक्के दुक्के घरों में बड़े-बड़े रेडियो सेट हुआ करते थे।
तब कार भी शहर में दो-चार ही लोगों के पास होती थी। मोटरसाइकिल बड़ी मुश्किल से देखने को मिलती थी स्कूटर तो होते ही नही थे। 

आजकल रेडीमेड कपड़ों का जमाना है।
तब रेडीमेड कपड़े होते ही नहीं थे सिर्फ एक कंपनी जिसका नाम शायद सैमसन था कुछ रेडीमेड कपड़े बनाया करती थी। दर्जी बहुत होते थे एक ही सड़क पर बहुत से दर्जियों की दुकान होती थी।

 सब लोग कपड़ा खरीद कर सिलवाते थे। कमीज की सिलाई ₹1 पैंट की सिलाई ₹3 पैजामा की सिलाई 50 पैसे।

  उस जमाने में रुपए के खरीदने की शक्ति बहुत ज्यादा थी। ₹4 में 1 किलो शुद्ध घी आ जाता था और 1 किलो बादाम भी । बड़ी डबल रोटी चार आने की होती थी यानी 25 पैसे । पेट्रोल 10 आने लीटर था यानी 60 पैसे के आसपास।बासमती चावल सवा रुपए किलो। 

उसे जमाने में आबादी कम थी और ज्यादातर लोग गांव में रहते थे। शहर छोटे-छोटे होते थे और शहर के नए इलाकों  में , जहां सरकारी कर्मचारी रहते थे, मकान बहुत बड़े-बड़े होते थे। बड़े-बड़े का मतलब है मकान तो एक मंजिला ही होता था पर बहुत बड़े कंपाउंड में होता था। हमारा मकान भी बहुत ही बड़े कंपाउंड में था आगे बहुत बड़ा लौन, पीछे आंगन दीवारों से घिरा हुआ और बाकी दोनों तरफ भी जमीन। घर में है क्रिकेट का मैदान हो जाता था।

उसे जमाने में साइकिल बहुत चलती थी। हर आदमी के पास साइकिल होती थी जैसे आजकल ज्यादातर लोगों के पास स्कूटर या मोटरसाइकिल होती है। पिताजी के पास भी साइकिल थी जो उन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते वक्त खरीदी थी । नौकरी के दौरान भी काम आ रही थी। बहुत मजबूत साइकिल थी जो 1929 में 28 रुपए में खरीदी गई थी और इंग्लैंड से  आई थी। इस साइकिल पर मैंने साइकिल चलाना सीखा। शुरू शुरू में साइकिल के फ्रेम के बीच में से पैर डालकर कैंची साइकिल चलाता था जब छोटा था।दर्जनों और लोगों ने भी इस साइकिल में बैलेंस करना सीख।

उन दिनों खाने पीने की चीज जनरल मर्चेंट की दुकान में पैकेट में नहीं मिलती थी। खाने का सामान लेना हो तो हलवाई की दुकान पर जाओ या बेकरी की दुकान में जाओ। डबल रोटी भी हर दुकान में नहीं दिखाई देती थी जैसे आजकल होता है। डबल रोटी खरीदने के लिए आपको डबल रोटी की दुकान में ही जाना पड़ता था । वहीं पर डबल रोटी मक्खन केक पेस्ट्री इत्यादि मिलते थे जो खुले होते थे, पैकेट बंद नहीं होते थे। डबल रोटी भी बिना स्लाइस में कटी हुई मिलती थी जिसको घर में आकर हम चाकू से काटते थे।
1940 और 1950 के दशक में सोला हैट बहुत ही फैशन मे थी और दफ्तर में बड़े अफसर से लेकर छोटे बाबू तक सब अपनी हैसियत के हिसाब से अच्छी या सस्ती क्वालिटी की हैट में दिखाई देत थे।अगर आप 1947 के पहले की सरकारी फोटो देखे तो उसमें हर अंग्रेज अफसर 16 हेड पहने हुए नजर आता था जब बाहर धूप में होता था।

उसे जमाने में खसखस बहुत लोकप्रिय था यह एक प्रकार की घास होती है जिसके चटाइयां बनाकर खिड़की और दरवाजा में लटका दिया जाता था और जब लू चलती थी तब उसे पर पानी के छिड़काव से अंदर के कमरे में तेज गर्मी में भी ठंडक रहती थी। तब बिजली के पंखे से चलने वाले कूलर होते ही नहीं थे और AC का तो सवाल ही नहीं उठाता।

आजादी के बाद शुरू शुरू में ज्यादातर चीज बाहर से ही आयातित होती थी क्योंकि भारत में अंग्रेजों ने कोई भी इंडस्ट्री नहीं पनपना दी थी। मैं स्कूल में पढ़ता था 50 के दशक के शुरू में तो पीले रंग की पेंसिल भी आयात होती थी और दो आने की एक होती थी।  स्कूल में इस्तेमाल होने वाली कॉपी तीन आने की बढ़िया क्वालिटी की एलीफेंट छाप जो कोलकाता के टीटागढ़  के कागज से तैयार होती थी।

बातें तो और भी हैं पर फिर कभी ।

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