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Saturday 13 February 2021

नैनीताल अल्मोड़ा की यादें

नैनीताल अल्मोड़ा की यादें

 उत्तर प्रदेश में कुमाऊं डिवीजन और गढ़वाल डिविजन दो पहाड़ के इलाके होते थे. 21वीं सदी के शुरू में एक अलग राज्य के रूप में उत्तराखण्ड 9 नवम्बर 2000 को अस्तित्व में आया। इससे पूर्व यह उत्तर प्रदेश राज्य का एक भाग था। 

हमारे दादा जी और नाना जी उत्तराखंड में ही रहते थे पर सरकारी नौकरी के कारण मेरे अपने पिता  मैदानी इलाके में ही रहे ।  हम  पूरे बचपन में उत्तर प्रदेश में रहे।  हम दादा जी और नाना जी के पास गर्मियों में छुट्टियों में  नैनीताल अल्मोड़ा जाया करते थे । 

बचपन के अल्मोड़े की सबसे पुरानी याद एक सुनसान साफ-सुथरी मॉल रोड की है जहां पर यदा-कदा एकाद बस हॉर्न बजाती हुई निकल जाती थी । यह सड़क उत्तर की तरफ चुंगी से अंदर को आती थी और पूरे अल्मोड़ा पार करके ब्राइटिंग कॉर्नर तक जाती थी  दक्षिण में। सड़क के दोनों तरफ कोई दुकाने नहीं थी। सिर्फ जखन देवी की तरफ कुछ दुकानें थी ढाल की तरफ जिसमें एक हलवाई की दुकान भी थी जहां पर मिठाइयां मिलती थी। 

तब अल्मोड़ा में पेड़ बहुत हुआ करते थे। अल्मोड़ा कैंट में तो देवदार के पेड़ों का और चीड़ के पेड़ों का जंगल था और वहां जब हवा चलती थी तब एक खास तरह की सीटी बजती थी  पेड़ों से हवा के टकराने से। इसकी अभी तक मुझे याद है। 

दादाजी माल रोड पर स्थित बक्शी खोला में रहते थे। अच्छा खासा बड़ा दो मंजिला मकान था जिसमें एक पक्का आंगन और पीछे भैंस बांधने के लिए एक छोटा सा अलग हिस्सा था।

 बचपन में जब अल्मोड़ा जाता था तब वहां की एक मिठाई जिसे चॉकलेट कहते थे वह अक्सर खाता था। वह छोटे-छोटे टॉफी के बराबर टुकड़े होते थे  भुने हुए चॉकलेट के रंग के खोवा के। वैसे तो अल्मोड़ा की बाल मिठाई ही सबसे प्रसिद्ध है।

 दादा जी का मकान सड़क के नीचे की तरफ को था घर जाने के लिए थोड़ी सी सीढ़िया।  ऊपर आने पर एक पेड़ था जिसके नीचे एक खीरे वाला बैठता था। खीरे को अल्मोड़ा में कुमाऊं में ककड़ी कहते हैं । वह ककड़ी वाला दो आने की एक बहुत बड़ी  ककड़ी बेचता था जिसको हम सब बच्चे  खाते थे। ककड़ी को काटकर उसके बराबर बराबर के टुकड़े कर देता था और उस पर मसाले वाला नमक लगाकर हमें दे देता था।

 बचपन में हम लोग अल्मोड़े से ज्यादा नैनीताल जाते थे और नैनीताल की ही हमें ज्यादा यादें हैं । नैनीताल में हमारे नाना जी रहते थे। हमारी मौसी की लड़की जो हम से 12 साल बड़ी थी हम लोगों के साथ बचपन में काफी घुलमिल गई थी और उसी के साथ हम लोग घूमने जाते थे। उन दिनों नैनीताल के हरे रंग के ताल में काफी वोटिंग भी कि हम लोगों ने।

एक बार का किस्सा अभी तक याद है । हुआ यूँ कि हमने तंदूरी रोटी का नाम  अक्सर सुना था  पर कभी खाई नहीं थी । हमने सोचा आलू के पराठे की तरह यह भी कोई चटपटी चीज होगी खाने की तो हम और दीदी और साथ  हमारी कमला दीदी उस रेस्तरां में पहुंच गए। जब वेटर आया तो हमने उससे तीन तंदूरी रोटी का ऑर्डर दे दिया। वेटर बोला सब्जी कौन सी होगी तो कमला दीदी ने कहा सब्जी की जरूरत नहीं है।  सिर्फ तीन तंदूरी ले आओ थोड़ी देर के बाद वेटर तीन प्लेटों में एक-एक तंदूरी ले आया जो कार्डबोर्ड टाइप की सूखी रोटी थी ।

तब नैनीताल में 4 सिनेमा हॉल हुआ करते थे फ्लैट्स में अशोक और कैपिटल , मल्लीताल की तरफ मॉल रोड में रॉक्सी सिनेमा होता था जो बाद में लक्ष्मी के नाम पर जाना जाने लगा। तल्लीताल मॉल रोड के शुरू में एक और सिनेमा हॉल था जो बाद में बंद हो गया जिसका नाम नौवेल्टी था । कई दशक के बाद तल्लीताल बस स्टैंड के ऊपर एक नया सिनेमा हॉल खुला जिसका नाम शायद जगनाथ था। 

नानाजी तल्लीताल में ही ऊपर रहते थे लॉन्ग व्यू  के पास।  नीचे तल्लीताल बाजार से होकर रास्ता जाता था रास्ते में फेयरी विला और तारा लॉज पड़ता था। फिर आगे जाकर एक हरे रंग की पानी की टंकी आती थी । 

 नाना जी के कमरे की खिड़की से दूर हल्द्वानी के मैदान दिखाई देते थे और काठगोदाम से आती हुई चक्करदार सड़क पर कार और बस चलती दिखाई देती थी। मकान से ठीक नीचे काफी दूर पर जीआईसी कॉलेज दिखाई देता था जो बाद में जीजीआईसी बन गया। थोड़ी दूर पर ही हमारे मामा जी के मित्र रहते थे जिनके पास बहुत बढ़िया दूरबीन थी तो मैं उनसे बायनाकुलर लेकर दूर-दूर तक देखा करता था नानाजी की खिड़की से।

भारत की आजादी के कुछ ही साल बाद तक अंग्रेजों का बनाया हुआ नैनीताल एक बहुत सुंदर साफ सुथरा शहर हुआ करता था। न कार, ना मोटरसाइकिल ना स्कूटर ना ऑटो  नैनीताल के अंदर ना कहीं कूड़ा इकट्ठा होता था ना ही  सड़क के किनारे की या खुले मैदानों की दुकानें थी। फिर  कार  आ गयीं , सड़कों के किनारे कूड़ा इकट्ठा होने लगा और फ्लैट में दुकानों की भरमार हो गई। और  फिर धीरे धीरे  साफ सुथरा नैनीताल गंदा होता चला गया । पूरा फ्लैट्स का मैदान कार पार्किंग की वजह से बेकार हो गया।

 नतीजा यह हो रहा है कि नैनीताल धंस रहा है अब नीचे और आशंका यह है कि 1880 साल की  लैंडस्लाइड की तरह फिर एक भयंकर लैंडस्लाइड मॉल रोड के ऊपर के पहाड़ पर ना हो जाए जहां सबसे ज्यादा खतरा है। पर आ बैल मुझको मार वाली कहावत की तरह नैनीताल के लोग और प्रशासन पूरी तरह से इस खतरे को नजर अंदाज किए हुए हैं। ईश्वर ही मालिक है आगे का भविष्य का।

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