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Friday 5 April 2024

खाने पीने की बातें

खाने-पीने की बातें

ऐसा याद नहीं है की बचपन में कभी बाहर खाना खाया हो किसी ढाबे या रेस्टोरेंट में। बचपन का पूरा समय घर का ही खाना खाने में बीता।

  उसे जमाने में यानी 50 के दशक में पूर्वी उत्तर प्रदेश में बाहर का खाने का मतलब होता था हलवाई की बनी हुई पूरी या फिर समोसे वगैरा खाना । ऐसा याद नहीं है कि कभी पंजाबी स्टाइल  रेस्टोरेंट में खाना। भारत की आजादी के बाद बंटवारे के बाद जब पाकिस्तान से बहुत ढेर सारे पंजाबी शरणार्थी आए तब जाकर शेरे पंजाब टाइम पर  रेस्टोरेंट दिखाई देने लगे। पहले तो खाना खाने का मतलब होता था हलवाई की दुकान।

नैनीताल में मल्लीताल में एक रेस्टोरेंट हुआ करता था जिसमकी असली घी की बनी हुई जलेबियां बहुत लोकप्रिय थीं। उसके अलावा नैनीताल में ही मंदिर के पास एक  चाट गोलगप्पे वाला  खोमचा लगाता था। गर्मियों में जब वहां जाते थे तो जी भर के चाट खाते थे। ज्यादातर पानी के बताशे दहीबड़े और दही चटनी के बताशे होते थे।

फिर 50 के दशक के मध्य में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी  शुरू हुआ ढाबे और रेस्टोरेंट के खाने का कार्यक्रम। हॉस्टल में झुल्लर महाराज का मेस था जहां संडे की शाम को खाना नहीं बनता था तो शाम को बाहर खाना खाने का प्रोग्राम बनता था ।अक्सर निरंजन सिनेमा हॉल बिल्डिंग में बाहर रेस्त्रां में शाम के 6:30 का खाना खाया जाता था फिर वहीं पर पिक्चर देखने सिनेमा हॉल में घुस जाते।  खाने का मेनू होता था नान और मटर पनीर की सब्जी या स्टफ्ड टोमाटो तरी के साथ। 

इलाहाबाद की सिविल लाइंस में भी एक दुकान थी लकी स्वीट मार्ट । वहां की मिठाइयां बहुत अच्छी होती थी। एक मिठाई का नाम था एटम बम।

 यूनिवर्सिटी रोड में भी एक रेस्टोरेंट था जगाती का। खाली सिस्टम में खाना मिलता था ₹1 25 पैसे का एक थाल।

फिर लखनऊ यूनिवर्सिटी आ गए और यहां पर कोई रेस्टोरेंट आसपास था नहीं। रेस्टोरेंट जाने का रिवाज भी नहीं था । हॉस्टल में खाना बहुत खराब था पर संडे को भी शाम को मिल जाता था। हां सुना था कि उसे जमाने में हजरतगंज में हनुमान मंदिर के बगल में एक बंटूज़ नाम का रेस्टोरेंट था जहां पर 50 पैसे में पेट भर खाना मिलता था थाली सिस्टम में

बाहर खाने का असली सिलसिला तो शुरू हुआ नौकरी लगने के बाद। दिल्ली में कनॉट प्लेस में सबसे ज्यादा समय तक खाना जा खाया।  मद्रास होटल जो मद्रास होटल बिल्डिंग में था वहां पर ₹4 का एक अनलिमिटेड खाने का थाल होता था बासमती चावल का टिपिकल मद्रासी खाना। उसके अलावा रीगल बिल्डिंग के कोने में टी हाउस के पास एक रेस्टोरेंट हुआ करता था शुद्ध वेजीटेरियन नाम का।  वहां भी मैं अक्सर खाना खाता था वह भी चार रुपए का एक थाल था। हां याद आया करोल बाग में भी एक रेस्टोरेंट था जहां कभी-कभी खाना खाते थे जब करोल बाग जाते थे । रेस्टोरेंट का नाम तो याद नहीं है पर वहां पर खाने के साथ गोवर्धन घी से बनाई हुई सब्जियां और चुपड़ी हुई रोटियां मिलती थी।

 फिर नागपुर को तबादला हो गया। वहां दफ्तर था सेंट्रल सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग जिसमें केंद्र सरकार के कई दफ्तर थे पास में ही एक सिनेमा हॉल था लिबर्टी सिनेमा और उसके पास ही एक मद्रासी नाश्ते पानी की दुकान थी और सामने शेरे पंजाब नाम का एक होटल और उसके बगल में मोती महल। बस इन्हें तीनों जगह में अक्सर खाना खाया करता था। मद्रासी रेस्टोरेंट में तो डोसा इडली बड़ा उत्तपम वगैरा मिलता था चाय बहुत बढ़िया थी । पूरे नागपुर में उससे बढ़िया चाय कहीं नहीं पी मैंने । शेरे पंजाब और मोतीमहल में तेल मसाले वाला खाना होता था जिससे तंग आकर ब एक बार डब्बा सर्विस भी ज्वाइन की जिसमें टिफिन करियर में एक लड़का घर पर खाना ले आता था। 

फिर मैं दिल्ली आ गया और प्रगति विहार हॉस्टल में रहने लगा यहां पर मेरे एक दोस्त के सुझाव पर  घर में ही खाना बनाना शुरू कर दिया । प्रेशर कुकर में खाना आसानी से बन जाता था और ताजा खाना खाने का अपना अलग ही मजा था। 

अब बात करते हैं खाने के स्वाद की। अक्सर आपका सदा होगा लोगों को कहते की जो स्वाद फल फल रेस्टोरेंट के खाने का है वह घर के खाने में कहां होता है। बट आपकी सही हो सकती है लेकिन आप यह भूल जाते हैं कि बाहर का खाना बनाने में जिन चीजों का इस्तेमाल होता है वह सेहत के लिए बहुत नुकसानदायक होती है पहली बात तो यह है कि इस तेल में बार-बार सामान तला जाता है और तेल जहरीला हो जाता है। उसके अलावा तड़का लगाने में जिन मसाले का इस्तेमाल होता है उसमें  अजीनोमोटो इत्यादि वह मसाले होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए बहुत खराब होते हैं। और सबसे बड़ी बात तो यह है की बहुत सी सब्जियां बनाकर डीप फ्रीज में रख दी जाती है एक महीने तक वहां पड़ी रहती है और उन्ही को बार बार बाहर निकाल के गर्म करके ताजी ग्रेवी मिलकर आपको पेश कर दिया जाता है।

चलते-चलते एक बात याद आ गई तो आपको बता देता हूं इलाहाबाद में अक्सर दिन में दफ्तर के पास एक रेस्टोरेंट में खाना खाया करता था और उस बैरे को अच्छी टिप देता था। एक दिन उसने कहा साहब आप यहां खाना मत खाया कीजिए मुझे बहुत ताज्जुब हुआ और मैंने कहा क्यों भाई क्या बात है।  उसने बताया ॓ साहब आप जो यहां खाना खाते हैं वह एक महीने से भी ज्यादा पुराना होता है और deep freeze में पड़ा रहता है। आपको इससे बहुत नुकसान हो सकता है। आप भले आदमी है इसलिए आपको बताना मेरा कर्तव्य है। मैंने उसे धन्यवाद दिया और कुछ पैसे दिए धन्यवाद के तौर पर और फिर मैं वहां कभी नहींगया।

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 उसे दिन के बाद मैं बहुत सावधानी बढ़ता था खाना बाहर खाने में

Monday 1 April 2024

सब कुछ बदल गया है

हॉलीवुड की तर्ज पर मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री का नाम कब से बॉलीवुड पड़ा यह तो मुझे पता नहीं पर मैं बचपन से ही फिल्मों में दिलचस्पी रखने लगा था। बचपन में फिल्म देखने की आदत काम ही मिलती थी और साल में मुश्किल से एक दो फिल्में देख पाते थे वह भी जब बड़े लोग जाकर फिल्म देखा जाए और फिल्म बच्चों के देखने लायक मानी जाए। पर सिनेमा के पोस्टर देखने में बड़ा मजा आता था।

जब मैं स्कूल में पढ़ता था तब हमारे घर के सामने जो बड़ी चौड़ी सड़क है थी उसके ऊपर से अक्सर सिनेमा हॉल मैं आने वाली नई फिल्मों के बारे में जानकारी देने के लिए एक छोटा सा कारवां निकलता था। जोकर की पोशाक में फिल्म के विज्ञापन के बड़े-बड़े पोस्टर हाथ पर लिए हुए लड़के एक के पीछे एक कतार में चलते थे और धारा लगते थे "आज रात को यूनाइटेड टॉकीज के सुनहरे पर्दे पर हंटर वाली के हैरतंगेज कारनामे " और हवा में आने वाली फिल्म के पैम्फ्लेट उछालते रहते थे । उनके पीछे-पीछे चलने वाले तमाशा बिन लड़के इन पर्चियां को लूटते रहते थे।

 बचपन में शायद सबसे पहले जिस फिल्म का इस तरह का विज्ञापन देखा था वह "हंटर वाली की बेटी" था । यह 1940 के दशक के आखिर की बात है।

उसे जमाने में सुरैया और देवानंद की बड़ी धूम थी। दिलीप कुमार तो हमेशा फिल्में के आखिर में मर जाता था और मुझे उसकी फिल्में बिल्कुल पसंद नहीं थी।

फिल्म की पहली मैगजीन जो मैंने देखी थी वह फिल्मlफेयर थी। 1952 में शायद पहली बार प्रकाशित हुई थी । उसे जमाने में 8 आने की एक मैगजीन आती थी ।  इंटरनेट तो था नहीं तो मैगजीन खूब बिकती थी और बड़े-बड़े साइज की बहुत सी मैगजीन थी जैसे इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया, धर्म योग साप्ताहिक हिंदुस्तान शंकर्स वीकली। सभी छह आने से 8 आने के बीच में होती थी। 50 के दशक में blitz नाम की मैगजीन‌ एक बहुत बिकने वाली अखबार नुमा साप्ताहिक मैगजीन थी चार आने की।

 बच्चों की जो सबसे पहले मैगजीन मैंने पढ़ी थी वह शिशु थी। चार आने की आती थी, छे सात साल के बच्चों के लिए पढ़ने वाली ।  चंदा मामा और मनमोहन भी काफी लोकप्रिय मैगजीन थी । 

50 का दशक बॉलीवुड सिनेमा का संगीत का  सफल समय की शुरुआत था। सिनेमा के गाने उसे जमाने में ऑल इंडिया रेडियो यानी दूरदर्शन पर नहीं सुनाए जाते थे क्योंकि सरकार की आदर्शवादी नीति के कारण सिर्फ क्लासिकल संगीत ही ऑल इंडिया रेडियो में सुनाया जाता था। इसका फायदा उठाया श्रीलंका की रेडियो एडवरटाइजिंग सर्विसेज ने ।  श्रीलंका को तब सिलोन नाम से जाना जाता था ।और रेडियो सिलोन भारत में बहुत लोकप्रिय हो गया सिनेमा संगीत की वजह से। 

रेडियो सिलोन का सबसे सफल संगीत का प्रोग्राम बिनाका गीत माला था जो कि शायद 1952 में शुरू हुआ और उसकौ सफल करने का श्रेय पूरी तरह से अमीन सयानी को जाता है।

1960 के दशक के अंतिम वर्ष में बॉलीवुड कुछ फीका फीका सा पढ़ रहा था क्योंकि बहुत से काफी ज्यादा उम्र के कलाकार हीरो बनकर रोमांटिक फिल्मों में काम कर रहे थे जो दर्शकों को भा नहीं रहा था। तब अचानक फिल्म जगत में राजेश खन्ना की एंट्री हुई है फिल्म आरधना  के रोमांटिक हीरो के रूप में।
धो अचानक पूरी बॉलीवुड इंडस्ट्री को उन्होंने झिझोड़ के रख दिया। पहले आई आराधना फिर आई आनंद और फिर एक के बाद एक बहुत सी सुपरहिट फिल्म आई चली गई।

 इससे पहले कभी पूरा देश किसी एक कलाकार के पीछे इतना दीवाना नहीं हुआ था। और उसके साथ ही फिल्म आराधना के गानों से एक नए किशोर कुमार का फिल्म जगत में प्रवेश हुआ और वह था राजेश खन्ना के पार्श्व गायक के रूप में।रूप तेरा मस्ताना, रहने दो छोड़ो जाने दो यार,  कहीं दूर जब दिन ढल जाए जैसे आज गलत गार्डन ने देश को संगीत मय कर दिया।

आज के दौर में न तो कोई सुपरस्टार है ना तो कोई चमत्कारी सिंगर है ना तो कोई चमत्कारी सिनेमा हॉल है और नहीं कोई चमत्कारी फिल्म है।

 सब कुछ बदल गया है