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Thursday 21 January 2021

कहां से कहां पहुंच गए हैं हम

कहां से कहां पहुंच गए

एक जमाने में रेडियो हुआ करता था । खूब बड़ा सा होता था  जो ड्राइंग रूम में रखा रहता था । ड्राइंग रूम में ऊपर दीवार में एक कोने से दूसरे कोने तक तांबे की जाली वाला एक एरियल  लगा होता था।   रेडियो को ऑन करने पर थोड़ी देर गर्म होने में लगता था फिर कहीं आवाज आती थी। सुबह 8:00 बजे और रात के 9:00 बजे दो टाइम खास होते थे समाचार के -- अंग्रेजी और हिंदी । 

अंग्रेजी में सबसे प्रसिद्ध न्यूज़ रीडर मेलविल डी मैलो और हिंदी में रामानुज प्रसाद सिंह थे। क्या बात थी आवाज में ! क्या न्यूज़ पढ़ने का तरीका था। मंत्रमुग्ध हो जाते थे ।आजकल तो टीवी में तमाशा होता है न्यूज़ के नाम पर । एक ऊपर टिकर टेप चलता रहता है दूसरा  नीचे । और भी बीच में कई फोटो बदलती रहती है तेज रफ्तार से और बाएं तरफ बीच में न्यूजरीडर चीख चीख के खबरें पढ़ता है।

 हां शुरू शुरू के समय में जब टीवी का मतलब सिर्फ दूरदर्शन में होता था तब बहुत ही अच्छे  न्यूज़ रीडर हुआ करते थे -- जैसे अंग्रेजी में कोमल जी बी सिंह, रामू दामोदरन वगैरह और हिंदी में शोभना जगदीश अविनाश कौर सरीन , मंजरी जोशी इत्यादि।


तब ना कोई शोर शराबा था टीवी में, ना कोई चीख चिल्लाना।

आजकल सब के पास मोबाइल फोन है। उसी में सब कुछ हो जाता है  -- अखबार पढ़ लो, सोशल नेटवर्किंग साइट पर अपना टाइम बिता लो -- जैसे व्हाट्सएप फेसबुक, रेडिट, इंस्टाग्राम, टेलीग्राम, सिग्नल वगैरह । या फिर मौसम का हाल देखो, पूरे संसार का , गूगल मैप देखो या फिर अपनी ईमेल पढ़ो या फिर s.m.s.  या फिर कोई गेम खेलो या यूट्यूब में पिक्चर देखो या गाने सुनो या केलकुलेटर पर हिसाब किताब करो या फिर मोबाइल के कैमरे से फोटो खींचो।  क्या नहीं है एक मोबाइल फोन में !!  अकेला एक मोबाइल फोन काफी है दिन भर का समय बिताने के लिए । कुछ और नहीं चाहिए । और यही हो रहा है। छोटे-छोटे बच्चे सुबह से शाम तक आंख गड़ाए मोबाइल फोन में लगे रहते हैं।

 पुराने जमाने में हर काम के लिए अलग अलग तरीका होता था । फोन  लैंडलाइन थे । उनमें कैमरा नहीं होता था । कैमरा अलग से  खरीदना पड़ता था। फिर फिल्म की रील खरीदनी पड़ती थी  रील कैमरे में फिट करो, हर फोटो लेने के बाद रील को आगे घुमाओ, फिर सब फोटो खींचने के बाद रील को सावधानी से अंधेरे में निकालकर फोटोग्राफर की दुकान में ले जाओ, वहां से अगले दिन अपनी फोटो ले आओ।

समाचार पढ़ने के लिए अखबार होते थे। प्रेस में अखबार छपते थे रात भर । सुबह 3:00 बजे छप के तैयार हो जाते थे । फिर 4:00 बजे अखबार बांटने वाले  प्रेस से अपनी-अपनी गड्डी अखबारों की साइकिल में बाँध कर घर घर में जाकर अखबार दिया करते थे। अखबार फेंकने की "फट" की आवाज आई नहीं और आप दौड़ते थे अखबार उठाने के लिए । ताजा अखबार।  प्रिंट की महक होती थी उसमें । फिर आराम से बैठकर चाय की चुस्कियां लेकर अखबार पढ़ा करते थे । घर के लोगों को इंतजार होता था कि कब हमें अखबार मिले । बड़ों का अलग पेज, बच्चों का आखिर का पेज। और भी कई तरह के मनोरंजक समाचार होते थे अखबार में।

 कैलकुलेटर तो था ही, नहीं पहाड़े याद करने पड़ते थे --  मल्टीप्लिकेशन टेबल । और हाथ से ही कॉपी पेंसिल लेकर जोड़ घटाना किया करते थे । मौसम का हाल अखबार में ही पता चलता था । पिक्चर देखने के लिए सिनेमा हॉल जाना पड़ता था । पहले लाइन में लगो। लाइन आगे बढ़ती थी तब आपका नंबर आता था । खिड़की के झरोखे से आप को टिकट पकड़ा दिया जाता था । फिर आप सिनेमा हॉल में घुसते थे अंधेरे में अपनी सीट की तरफ।   लोगों के जूतों के ऊपर से । गाने सुनने के लिए रेडियो था या फिर ग्रामाफोन था। 

उस जमाने में ई-मेल तो था ही नहीं। s.m.s. भी नहीं था। तब एक दूसरे से खबरों का आदान-प्रदान कैसे करते थे  ? एक दूसरे को मैसेज भेजने के लिए पोस्टकार्ड थे इनलैंड लेटर थे या दो आने वाले लिफाफे। पत्र लिखते थे गोद से चिपकाते थे जीभ से चाट कर । फिर रिक्शा लेकर पोस्ट ऑफिस जाते थे और चिट्ठी को वहां लेटर बॉक्स पर डालते थे या फिर घर के पास अगर लाल रंग का लेटर बॉक्स हो तो पैदल चलकर वही जाकर चिट्ठी डालते थे।  फिर दिन में एक बार डाकिया आता था । लाल लेटर बॉक्स खोलता था । थैले में भरकर सब चिट्टियां ले जाता था । पोस्ट ऑफिस में चिट्ठियो की छटाई होती थी ।अलग-अलग शहर की अलग-अलग थैलों में। फिर लाल रंग की बड़ी मोटर गाड़ी पोस्ट ऑफिस से रेलवे स्टेशन आती थी। सभी थैले अलग-अलग ट्रेनों में आरएमएस के डिब्बों में डाल दिए जाते थे जहां चलती ट्रेन में इनकी छटाई होती थी अलग-अलग स्टेशनों में थैले गिराने की । फिर वहां स्टेशनों पर लाल गाड़ी आती थी । अपनी चिट्ठियों को उठाती थी और पोस्ट ऑफिस ले जाती थी । वहां शहर के अलग-अलग इलाकों के पोस्टमैन के हिस्से की चिट्ठियों की छटाई होती थी । फिर पोस्टमैन अपना अपना  थैले उठाता था । साइकिल में बैठ कर अपने इलाके में जाता था और हर एक के घर में ~पोस्टमैन ~पोस्टमैन~ की आवाज लगाकर चिट्ठी डाल देता था। फिर आप दौड़ के आते थे, चिट्ठी उठाते थे,  खोलते थे और पढ़ते थे।

 अब यह सब नहीं होता है। व्हाट्सएप में, टेलीग्राम में संदेश डाले जाते हैं। बड़ी चिट्ठी हो तो ईमेल कर देते हैं छोटी हो तो एस एम एस कर देते हैं । इधर आपने टाइप किया, बटन दबाया और उधर हजार मील दूर आपके रिश्तेदार या दोस्त के मोबाइल फोन पर फौरन मैसेज आ जाता है ।

 पुराने जमाने में इस तरह के काम तिलस्म वाली कहानियों में होते थे असली संसार में नहीं।  "खुल जा सिम सिम" से दरवाजा खुल जाता था जहां अलीबाबा को खजाना मिला था आजकल वास्तविकता में आवाज से बहुत काम हो जाते हैं। सब कुछ  तिलस्मी होता जा रहा है । 
हम कहां से कहां पहुंच गए हैं।

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Monday 11 January 2021

वह भी एक जमाना था

वह भी एक जमाना था

कपड़े सूती होते थे उस जमाने में । सिंथेटिक  कपड़ों का  नामोनिशान तक नहीं था । सूती कपड़ों में  इस्त्री करना जरूरी होता था क्योंकि कपड़े मे बहुत जल्दी सिलवटें पड़ जाती थी ।  कपड़े में  कलफ होता था ताकि सिलवटें ना पड़े । उन दिनों कपड़े घर में कम ही धुलते थे। तब  सर्फ  या रेन  साबुन पाउडर नहीं होता था  ललिता जी बाद में आईं काफी ।  तब धोबी ही  सभी लोगों के कपड़े धोता था । गधा लेकर आता था कपड़े लादकर और फिर नदी तालाब के किनारे उन्हें पीट-पीटकर धोता था । बटन टूटते थे काफी उन दिनों और जंग के भी दाग पड़ जाते थे सफेद कपड़ों में कभी-कभी , खासकर पैंट में जहां लोहे के बकसू यानी बक्कल होते थे  कमर के दोनों तरफ -- पेंट को कसने के लिए।

कभी आपने गौर किया है कि उस जमाने में कमीज  सामने की तरफ से पूरी खुली नहीं होती थी। सिर्फ आधी खुली होती थी ऊपर। ऊपर तीन बटन होते थे। पेंट में बेल्ट की जगह  गैलिस यानी सस्पैंडर्स का काफी इस्तेमाल होता था बच्चा में भी और वयस्क लोगों में भी। उन दिनों पैंट की मोहरी म नीचे से मुड़ी होती थी जिसमें अक्सर धूल इकट्ठा होती रहती थी । रेडीमेड कपड़े बहुत लोकप्रिय नहीं थे तब। दरजी ही कपड़े सिलता था सबके। और एक मजे की बात यह है कि तब सिर्फ बच्चे ही न हीं बल्कि बड़े लोग भी हाफ पेंट पहनते थे।

उस जमाने में जूते लोकल बने हुए होते थे । ज्यादातर अच्छे कीमती जूते चाइनीस ही बनाते थे । बाटा के रबर और कपड़े के सस्ते जूते भी मार्केट में आ गए थे । उस जमाने में पीवीसी का  सोल तो होता नहीं था जूतों में। सोल चमड़े का ही होता था या क्रेप सोल। जूते आगे की  नोक पर और पीछे एड़ी पर समय के साथ बहुत घिस जाता था इसके लिए लोग अक्सर पीछे और आगे जूते में लोहे के टुकड़े लगाते थे । आगे छोटा सा ऑरेंज और एड़ी पर लोहे की नाल।

 उस जमाने में बाइसिकिल का इस्तेमाल बहुत होता था। आजकल तो साइकिल सिर्फ गरीब तबके के लोगों के पास दिखाई देती है पर तब सरकारी अफसर भी साइकिल में ही दफ्तर जाया करते थे। अक्सर सभी साइकिल इंग्लैंड से आती थी जिसमें हरकुलिस और रैले सबसे ज्यादा मशहूर थे। उस जमाने में साइकिल का भी लाइसेंस बनवाना पड़ता था जो ₹1 का होता था।

 उस जमाने में पैक की हुई खाने की चीजें नहीं के बराबर थी। ना तो नूडल्स है ना हल्दीराम था, ना अंकल चिप्स थे। पिज़्ज़ा का तो नाम भी नहीं सुना था उन दिनों किसी ने। उन दिनों कुल्फी बहुत पॉपुलर थी । इसके अलावा दालमोट  बहुत चलती थी। घर में ही लोग  चूड़ा मूंगफली  मसालेदार बना लेते थे तल के। या फिर मठरी और शकरपारे  नमक मिर्च अजवाइन डालकर। केक पेस्ट्री तो थे ही। एक डबल रोटी जो आजकल ₹30 की आती है तब 25 पैसे यानी चार आने की होती थी। वैसे उस दिनों डबल रोटी खाने का इतना ज्यादा रिवाज नहीं था जितना आजकल है । मक्खन सबसे बढ़िया  पोलसन का आता था  जिसकी बिजनेस  अमुल ने आकर खत्म कर दी। उन्हीं दिनों अलीगढ़ का  सीडीएफ मक्खन भी  बहुत ही बढ़िया होता था । 

सिगरेट पीने का बहुत रिवाज था उन दिनों। हर लड़का इस बात का इंतजार करता था कि वह कब 15 16 साल का हो जाए और सिगरेट पीना शुरू कर दें वयस्क लोगों की तरह। सिगरेट पीना अच्छा समझा जाता था और अमीर लोगों की सिगरेट थी 555। जो सिगरेट नहीं खरीद  सकते थे वह बीड़ी पीते थे। उसे जमाने की  सबसे  मशहूर  बीड़ी थी पहलवान छाप।  पान खाने का भी बहुत रिवाज था । अक्सर घर पर ही लोग पान के डिब्बे, जिसे पान दान भी कहते थे, घर पर रखते थे  जिसमे सुपारी चूना कत्था तंबाकू वगैरह रहता था । उस जमाने मे गुटका नाम की कोई चीज नहीं होती थी जो आजकल हर पान की दुकान में और हर जनरल स्टोर में धड़ल्ले से बिकता है।

तब टेंपो ऑटो और ई रिक्शा तो थे नहीं घोड़े वाले टांगे और एक्के बहुत थे। तांगा महंगा था और एक्का बहुत सस्ता। रईस लोग अपने पास टमटम रखते थे। मोटर कार बहुत कम लोगों के पास होती थी और बस सर्विस तो कुछ बड़े शहरों को छोड़कर कहीं नहीं थी। कुछ बड़े शहरों में ट्राम भी चलती थी दिल्ली में, पटना में, कानपुर में, मुंबई में तब ट्राम चला करती थी । कोलकाता में तो अभी भी ट्राम है।

तब सीवर लाइन नहीं हुआ करते थे खुले हुए बड़े नाले होते थे इसलिए शहरों में कॉकरोच कहीं नहीं होते थे जो कि लंदन और न्यूयॉर्क में भरे हुए थे। छोटे शहरों में जल निगम नहीं थे घरों में पाइप लाइन नहीं थी । लोगों ने घर पर हैंडपंप लगा रखे थे । तब पानी की सतह काफी ऊपर थी तो बहुत कम गहराई में सभी शहरों में पानी मिल जाता था इसके अलावा कुछ लोग घर में कुएं बना लेते थे पानी के लिए। तब फ्लश सिस्टम नहीं था लैट्रिन में। खुली लैट्रिन होती थी और भैंसा गाड़ी आती थी लोगों के घर से लैटरीन इकट्ठा करने के लिए। तब कुकिंग गैस भी नहीं होती थी इसलिए लोग या तो कोयले पर या लकड़ियों पर खाना बनाते थे । रसोई घर में अक्सर धुआ भरा रहता था जिसके निकलने के लिए रसोई घर के ऊपर चिमनी होती थी।

बातें तो और भी हैं पर आज के लिए इतना ही काफी।

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कभी सोचा है आपने ?

सोचने की बात 

आप जिस मकान में रह रहे हैं उस मकान के बारे में आप क्या जानते हैं ? कभी आपने गौर से सोचा है किस किस चीज का बना हुआ है आपका मकान ?

अपने दरवाजे देखिए। लकड़ी के हैं । लकड़ी कहां से आई ? लकड़ी एक पेड़ से आई है । यह दरवाजे कभी एक पेड़ का हिस्सा हुआ करता था।  इस पर टहनिया लगी हुई थी और उन टहनियों में फूल पत्तियां खिला करते थे। फल भी लगते थे । फिर एक दिन उस पेड़ का सत्यानाश कर दिया गया। पेड़ धराशाई हो गया। पेड़ को चीरा गया। उस के पटरे  बनाए गए और उनमें से एक आपका यह दरवाजा है।

 ईटों को देखिए।  कहां से आए हैं यह ईंटे ?  आए हैं   ईट की भट्टी से। वहां पर मिट्टी लाई गई और उसे पकाया गया ईटे की शक्ल में। यह कभी धरती की मिट्टी हुआ करती थी। उस धरती की जिसमें पेड़ पौधे उगा करते हैं । फिर उसकी ईट बनी । सीमेंट बालू मिलाकर ईटों से मकान खड़ा किया गया।

आपने अपने दरवाजे पर और खिड़कियों पर खूबसूरत पर्दे लगा दिए हैं।  कभी सोचा है इन पर्दों के बारे में ? जिन हाथों ने परदे बनाए वह गरीब लोग थे जो 8 घंटे फैक्ट्री में काम करके आपके लिए कपड़े बनाया करते थे ।  और यह कपड़े किस चीज के हैं ? कपास का है जो कि  पेड़ में रुई की तरह उगता है फिर उसके डोरे बनाए जाते हैं उन डोरों को बुना जाता है। उन्हें रंगा जाता है और फिर उन्हें पर्दे के कपड़े की शक्ल में थान में लपेटकर दुकानों में रखा जाता है जहां जाकर आप नपवाकर अपने पसंद का कपड़ा खरीदते हैं।

 मकान में आपके बिजली के तार हैं । यह बिजली है क्या चीज़ ? कभी पहले बिजली नहीं होती थी तब मकानों में तार भी नहीं होते । फिर बिजली का आविष्कार हुआ। जब पहले पहले बिजली बनी तो बहुत से अनजान लोग मर गए होंगे बिजली के तारों से चिपक कर। फिर धीरे-धीरे लोगों ने इसका इस्तेमाल करना सीखा । एक दिन यह तार के रूप में मकानों में आ गई ।

लेकिन सिर्फ तार होने से कुछ नहीं होता । आगे कुछ होना चाहिए जिससे प्रकाश हो। वह प्रकाश बल्ब से आया उसका भी किसी ने आविष्कार किया।

 तो यह घर में जो आपके सभी चीजें हैं वह कुछ पुराने जमाने के मनुष्य के दिमाग में आए आविष्कार का नतीजा है। 

 कभी आराम से बैठकर सोचिये कि आपके जीवन में जो सुविधाएं हैं उनके पीछे कुछ लोग हैं जिनका नाम भी आप नहीं जानते।

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Friday 1 January 2021

नागपुर टाइम्स

नागपुर टाइम्स

मैं कोई 26 साल का होउंगा तब मैं नागपुर ट्रांसफर कर दिया गया। दिल्ली में लोगों ने कहा ट्रांसफर आर्डर को रद्द करवा लो क्योंकि नागपुर तो बहुत बेकार की जगह है । वहां बड़ी भयंकर गर्मी पड़ती है। दुखी हो जाओगे ।

मैंने कुछ नहीं किया और मैं ट्रेन में रवाना होकर नागपुर को चल दिया । फरवरी का समय था। ठंड काफी थी दिल्ली में जब मैं चला । स्वेटर कोट वगैरह पहने हुए था । होल्डॉल  भी गरम रजाई कंबल से भरी थी। 

झांसी से जब आगे बढ़े तो भोपाल के पास पहुंचते-पहुंचते कुछ ऐसा लगा कि मौसम बदलने वाला है । सुबह के करीब 10:00 बजे थे । 

खैर आगे बढ़े । इटारसी आते-आते गर्म कपड़े बड़े भारी लगने लगे । इटारसी में मैंने बंन मक्खन खाया, एक समोसा खाया  और एक गिलास गर्म दूध पिया । दूध वहां के स्टेशन पर तब बहुत अच्छा मिलता था। अब दोपहर हो गई थी गर्मी बढ़ रही थी।

 फिर आगे बढ़े और धीरे-धीरे सब गर्म कपड़े उतर गए । नागपुर के आते आते ट्रेन के दोनों तरफ संतरे के काफी पेड़ दिखाई दिए । शाम के 5:00 बजे  नागपुर  पहुंचे ।मौसम मेें दिल्ली की ठिठुरन गायब थी । मार्च के आखिरी दिनों जैसा मौसम था।

नागपुर स्टेशन पर सबसे पहले अपने पिताजी के एक मित्र के घर आ गए थे । वह अपनी कार में मुझे लेने आये थे स्टेशन।  अगले दिन दफ्तर पहुंचा न्यू सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग जो बिशप कॉटन स्कूल के पास है । मेरे दफ्तर और बिशप कॉटन स्कूल के बीच में तब खुदा मैदान हुआ करता था जहां क्रिकेट खेला जाता था ।बाद में तो वहां टेस्ट मैच की होने लगे मेरे जाते-जते
और वहां मैंने चार्ज ले लिया । 

कुछ ही दिनों में मुझे सरकारी कॉलोनी में सिविल लाइंस में एक छोटा सा मकान किराए पर मिल गया जो किसी एक बाबू का था जो किसी और के साथ अकेले रह रहे थे अपना पूरा मकान किराए पर उठाकर । मकान अच्छा था खुला हुआ एक मंजिल का । दो बड़े बड़े कमरे थे किचन पैन्ट्री बाथरूम  वगैरह ठीक थे। पीछे बहुत बड़ा आंगन दीवाल से घिरा हुआ था और आगे पीछे बरामदा।

 नागपुर में हरियाली बहुत थी तब। अब पता नहीं क्या हाल है । चौड़ी सड़कें साफ सुथरा शहर खासकर जिस इलाके में मैं रहता था और जिन इलाकों में मेरा आना जाना था। 

सिविल लाइन से दफ्तर को एक बस जाती थी जिसमें सुबह 9:00 बजे में बैठ जाता था। 10 मिनट का रास्ता था बस से । शाम को मैं बस से नहीं लौटता था बल्कि नैयर साहब के रेस्ट्रो में चला जाता था जो पास में लिबर्टी सिनेमा के बगल में था । वहीं नय्यर साहब की स्पेशल नीलगरी चाय पीता  और इडली डोसा वगैरह का नाश्ता करता।  नैयर साहब बड़े हंसमुख अधेड़ उम्र  के आदमी थे।  सफेद, चांदी की तरह चमकते बाल, मुस्कुराता चेहरा,  हंसती आंखें, गोरा स्वस्थ बदन।

 लिबर्टी सिनेमा नैयर के रेस्त्रां के बगल में ही था 
जहां पर काफी अंग्रेजी फिल्में दिखाई जाती थी  और दो-तीन दिन में  पिक्चर बदल जाती थी। नागपुर में मैं कोई तीन साल रहा और इस बीच में मैंने जितनी इंग्लिश पिक्चर  लिबर्टी सिनेमा में देखी थी फिर शायद कभी नहीं देखी हो । वहीं मेरा परिचय 007 जेम्स बांड से हुआ जिस की सभी पिक्चरें मैंने देख डाली। वहीं मेरा परिचय महान अभिनेता पीटर उटूल से हुआ जिनकी लॉरेंस आफ अरेबिया ने मेरा मन मोह लिया ।

शाम को मैं अक्सर सीताबल्डी चला जाता था घूमने के लिए वहां की बाजार में । सीताबल्डी नागपुर की पुरानी बाजारों में से एक है । काफी बड़ी बाजार है। उन दिनों लिबर्टी सिनेमा से सीतामढ़ी का रिक्शा का किराया 25 पैसे था  फिर वहां से फिर रिक्शा लेकर सिविल लाइंस आ जाता था अपने घर में। 

नागपुर में गर्मी काफी पड़ती थी । पर गर्मी तो उत्तरी भारत में सभी जगह पड़ती है। जब दिल्ली का तापमान 44 डिग्री होता है तो नागपुर का 46 डिग्री होता है । बस इतना ही फर्क है । एक बहुत बड़ा फर्क नागपुर और उत्तरी भारत में है। यह है कि वहां की मिट्टी कुछ खास किस्म की है जो हवा में उड़ती नहीं है। इसलिए वहां गर्मी के मौसम में दिल्ली वाली गंदगी वातावरण में नहीं होती है और धूल भरी आंधी  नहीं चलती है दिन में । सुबह की पहनी हुई सफेद कमीज शाम तक वैसे ही रहती है। नागपुर की बरसात इतनी बढ़िया है कि उसका अनुभव ही किया जा सकता है । तापमान बहुत गिर जाता है और बुजुर्ग लोग तो कभी कभी हल्का स्वेटर भी निकाल लेते हैं तेज बरसात के दिनों में। दफ्तर के नजदीक एक शेर ए पंजाब रेस्तरां था जहां  खाना बहुत बढ़िया मिलता था । तो दिन में मैं खाना वहीं खाता था। बरसात के दिनों में अक्सर लोग वहां पंखे बंद करवा दिया करते थे ठंड की वजह से। 

 नागपुर का जाड़े का मौसम भी बहुत ही अच्छा होता था । जब उत्तरी भारत में हड्डी हिलाने वाली ठंड पड़ती है तो नागपुर में बर्दाश्त के लायक ठंड पड़ती है और वहां का जनवरी का महीना कष्टदायक नहीं होता है ।  बढ़िया धूप होती है कभी भी कोहरा नहीं होता है और एक हल्की रजाई से आराम से काम चल जाता है।

यह बात 1967 से 1970 के बीच की है। तब से अब तक नागपुर में  शायद बहुत अंतर आ गया होगा। आबादी भी बहुत ज्यादा बढ़ गई होगी । हो सकता है पेड़ भी काफी कट गए हो जैसा के अन्य शहरों में होता है। मेट्रो के आने के बाद शायद उतना खुला हुआ वातावरण भी ना हो। आबादी भी अब काफी  बढ़ गई होगी । कार बहुत आ गई हैं सभी जगह।  ट्रैफिक बहुत खराब हो गया है हर शहर का।   फ्लाईओवर और मेट्रो की लाइन की वजह से सब प्राकृतिक सौंदर्य गायब होते जा रहे हैं।



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