कहां से कहां पहुंच गए
एक जमाने में रेडियो हुआ करता था । खूब बड़ा सा होता था जो ड्राइंग रूम में रखा रहता था । ड्राइंग रूम में ऊपर दीवार में एक कोने से दूसरे कोने तक तांबे की जाली वाला एक एरियल लगा होता था। रेडियो को ऑन करने पर थोड़ी देर गर्म होने में लगता था फिर कहीं आवाज आती थी। सुबह 8:00 बजे और रात के 9:00 बजे दो टाइम खास होते थे समाचार के -- अंग्रेजी और हिंदी ।
अंग्रेजी में सबसे प्रसिद्ध न्यूज़ रीडर मेलविल डी मैलो और हिंदी में रामानुज प्रसाद सिंह थे। क्या बात थी आवाज में ! क्या न्यूज़ पढ़ने का तरीका था। मंत्रमुग्ध हो जाते थे ।आजकल तो टीवी में तमाशा होता है न्यूज़ के नाम पर । एक ऊपर टिकर टेप चलता रहता है दूसरा नीचे । और भी बीच में कई फोटो बदलती रहती है तेज रफ्तार से और बाएं तरफ बीच में न्यूजरीडर चीख चीख के खबरें पढ़ता है।
हां शुरू शुरू के समय में जब टीवी का मतलब सिर्फ दूरदर्शन में होता था तब बहुत ही अच्छे न्यूज़ रीडर हुआ करते थे -- जैसे अंग्रेजी में कोमल जी बी सिंह, रामू दामोदरन वगैरह और हिंदी में शोभना जगदीश अविनाश कौर सरीन , मंजरी जोशी इत्यादि।
आजकल सब के पास मोबाइल फोन है। उसी में सब कुछ हो जाता है -- अखबार पढ़ लो, सोशल नेटवर्किंग साइट पर अपना टाइम बिता लो -- जैसे व्हाट्सएप फेसबुक, रेडिट, इंस्टाग्राम, टेलीग्राम, सिग्नल वगैरह । या फिर मौसम का हाल देखो, पूरे संसार का , गूगल मैप देखो या फिर अपनी ईमेल पढ़ो या फिर s.m.s. या फिर कोई गेम खेलो या यूट्यूब में पिक्चर देखो या गाने सुनो या केलकुलेटर पर हिसाब किताब करो या फिर मोबाइल के कैमरे से फोटो खींचो। क्या नहीं है एक मोबाइल फोन में !! अकेला एक मोबाइल फोन काफी है दिन भर का समय बिताने के लिए । कुछ और नहीं चाहिए । और यही हो रहा है। छोटे-छोटे बच्चे सुबह से शाम तक आंख गड़ाए मोबाइल फोन में लगे रहते हैं।
पुराने जमाने में हर काम के लिए अलग अलग तरीका होता था । फोन लैंडलाइन थे । उनमें कैमरा नहीं होता था । कैमरा अलग से खरीदना पड़ता था। फिर फिल्म की रील खरीदनी पड़ती थी रील कैमरे में फिट करो, हर फोटो लेने के बाद रील को आगे घुमाओ, फिर सब फोटो खींचने के बाद रील को सावधानी से अंधेरे में निकालकर फोटोग्राफर की दुकान में ले जाओ, वहां से अगले दिन अपनी फोटो ले आओ।
समाचार पढ़ने के लिए अखबार होते थे। प्रेस में अखबार छपते थे रात भर । सुबह 3:00 बजे छप के तैयार हो जाते थे । फिर 4:00 बजे अखबार बांटने वाले प्रेस से अपनी-अपनी गड्डी अखबारों की साइकिल में बाँध कर घर घर में जाकर अखबार दिया करते थे। अखबार फेंकने की "फट" की आवाज आई नहीं और आप दौड़ते थे अखबार उठाने के लिए । ताजा अखबार। प्रिंट की महक होती थी उसमें । फिर आराम से बैठकर चाय की चुस्कियां लेकर अखबार पढ़ा करते थे । घर के लोगों को इंतजार होता था कि कब हमें अखबार मिले । बड़ों का अलग पेज, बच्चों का आखिर का पेज। और भी कई तरह के मनोरंजक समाचार होते थे अखबार में।
कैलकुलेटर तो था ही, नहीं पहाड़े याद करने पड़ते थे -- मल्टीप्लिकेशन टेबल । और हाथ से ही कॉपी पेंसिल लेकर जोड़ घटाना किया करते थे । मौसम का हाल अखबार में ही पता चलता था । पिक्चर देखने के लिए सिनेमा हॉल जाना पड़ता था । पहले लाइन में लगो। लाइन आगे बढ़ती थी तब आपका नंबर आता था । खिड़की के झरोखे से आप को टिकट पकड़ा दिया जाता था । फिर आप सिनेमा हॉल में घुसते थे अंधेरे में अपनी सीट की तरफ। लोगों के जूतों के ऊपर से । गाने सुनने के लिए रेडियो था या फिर ग्रामाफोन था।
उस जमाने में ई-मेल तो था ही नहीं। s.m.s. भी नहीं था। तब एक दूसरे से खबरों का आदान-प्रदान कैसे करते थे ? एक दूसरे को मैसेज भेजने के लिए पोस्टकार्ड थे इनलैंड लेटर थे या दो आने वाले लिफाफे। पत्र लिखते थे गोद से चिपकाते थे जीभ से चाट कर । फिर रिक्शा लेकर पोस्ट ऑफिस जाते थे और चिट्ठी को वहां लेटर बॉक्स पर डालते थे या फिर घर के पास अगर लाल रंग का लेटर बॉक्स हो तो पैदल चलकर वही जाकर चिट्ठी डालते थे। फिर दिन में एक बार डाकिया आता था । लाल लेटर बॉक्स खोलता था । थैले में भरकर सब चिट्टियां ले जाता था । पोस्ट ऑफिस में चिट्ठियो की छटाई होती थी ।अलग-अलग शहर की अलग-अलग थैलों में। फिर लाल रंग की बड़ी मोटर गाड़ी पोस्ट ऑफिस से रेलवे स्टेशन आती थी। सभी थैले अलग-अलग ट्रेनों में आरएमएस के डिब्बों में डाल दिए जाते थे जहां चलती ट्रेन में इनकी छटाई होती थी अलग-अलग स्टेशनों में थैले गिराने की । फिर वहां स्टेशनों पर लाल गाड़ी आती थी । अपनी चिट्ठियों को उठाती थी और पोस्ट ऑफिस ले जाती थी । वहां शहर के अलग-अलग इलाकों के पोस्टमैन के हिस्से की चिट्ठियों की छटाई होती थी । फिर पोस्टमैन अपना अपना थैले उठाता था । साइकिल में बैठ कर अपने इलाके में जाता था और हर एक के घर में ~पोस्टमैन ~पोस्टमैन~ की आवाज लगाकर चिट्ठी डाल देता था। फिर आप दौड़ के आते थे, चिट्ठी उठाते थे, खोलते थे और पढ़ते थे।
अब यह सब नहीं होता है। व्हाट्सएप में, टेलीग्राम में संदेश डाले जाते हैं। बड़ी चिट्ठी हो तो ईमेल कर देते हैं छोटी हो तो एस एम एस कर देते हैं । इधर आपने टाइप किया, बटन दबाया और उधर हजार मील दूर आपके रिश्तेदार या दोस्त के मोबाइल फोन पर फौरन मैसेज आ जाता है ।
पुराने जमाने में इस तरह के काम तिलस्म वाली कहानियों में होते थे असली संसार में नहीं। "खुल जा सिम सिम" से दरवाजा खुल जाता था जहां अलीबाबा को खजाना मिला था आजकल वास्तविकता में आवाज से बहुत काम हो जाते हैं। सब कुछ तिलस्मी होता जा रहा है ।
हम कहां से कहां पहुंच गए हैं।
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