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Friday 22 November 2019

On the road

On the road."

As we came out of Charbagh RailwayStation we were greeted by a chorus of loud shouts of  "Aaiye sahib idhar aayiye "  (come this way sir)  by the  horse-drawn Tanga drivers.

we chose a sturdy new tanga. The elders settled in the back seats of the Tanga and kids were helped  up to the front, safe, seats. The big black trunk, the holdall and the suitcase were  pushed into the ample luggage space under the seats on the footboard by the red-shirted coolie who had carried our luggage from the train.

The Tanga driver touched the back of the horse lightly with the whip and on cue the horse began trotting. Another light flick of the whip on its back made the horse pick up speed.  Time and again the horse raised his tail and farted. Sitting right behind the horse's tail, I faced this barrage of  farts and droppings as the horse cantered along the road through light traffic. . . . .

Now a word about the Tanga. It was one of the three types of horse drawn carriages then in common use, around 1950 . Cycle rishaw came later and auto-rikshaw much  later. The affluent class had  their own private Tuntums.  Public transport was provided by Tanga and Ekkathe latter being a poor man's cheap transport,  an uncomfortable alternative to Tanga. It had a flat hard floor on which the passengers squatted. Devoid of cushions and shock absorbers, even a short journey in an ekka  rattled the occupants.

We have come a long way since. First came the cycle rikshawrobbing the tanga walas of livelihood. Rikshaw was compact and much cheaper and slowly replaced the tanga as the preferred mode of city transport.  Then the city started expanding exponentially and the faster  cheaper auto rikshaw grabbed the major share of longer distance travel.  First of these auto rikshaw were peculiar contraptions driven by powerful bullet motorcycle . Then came factory made Tempo brands in early sixties.These long black contraptions made a huge amount of noisen. They could seat more people and the charges were moderate.

Then came the compact,mass produced, scooter powered auto rikshaw that we see today.They give a comfortable ride, occupy less of road space and are fast.

Lately electric vehicle are replacing the traditional vehicles and so we have what are known as E- rikshaw.These are slow moving uncomfortable vehicles but  have taken a good share of public transport.

For the present auto rikshaws rules the roost.  The city is now getting to the next generation city transport - THE METRO !! 

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Tuesday 19 November 2019

Kunjapuri temple and Narendra Nagar

KUNJAPURI TEMPLE AND NARENDRA NAGAR

Kunjapuri Temple is a Devi temple in Tehri Garhwal Uttarakhand India , dedicated to the Goddess Sati .The  temple is located on the top of Kunjapuri hill at an altitude of 1645 meters . It lends a panoramic view of the Himalayan peaks to the North and Rishikesh, Haridwar and the Doon valley to the South. It is on route from Rishikesh  to uttarkashi, about 8 kms, from the town of Narendra Nagar.

The present town of Narendra nagar came into existence in 1919 when Maharaja Narendra Shah of Tehri Garhwal moved his capital from Tehri as this was  a more picturesque location with an extraordinary scenic beauty and was close  to the plains below. On a clear day you get an magnificent view of Ganga flowing from mountains to Plains of haridwar.

Narendra Nagar was the district headquarters of Tehri Garhwal for long time and has a small well developed township. There is central market along the highway that passes through the town .  There is a Shiv temple in Narendra Nagar where there is a huge statue of Nandi, the biggest in North India, sculpted by Sri Avtar Singh Panwar. This was inaugurated in 1960 by the then District Magistrate of Tehri district, Sri Daya Nand Joshi.There is a plaque at the base of the statue commemorating this.

The district headquarters was later shifted to New Tehri city.

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Monday 18 November 2019

राम जेठामलानी और नानावती कांड

राम जेठामलानी और नानावती कांड

राम जेठमलानी सन् 2019 मे पंचतत्व में विलीन हो गए हैं।

अब से कोई साठ साल पहले1959 में नानावती के केस ने  (google search THE NANAVATI CASE ) पूरे विश्व में सनसनी फैला दी थी और BLITZ नाम के साप्ताहिक पेपर को भारत का सबसे ज्यादा बिकने वाला पेपर बना दिया था।  नानावती केस के दौरान ब्लिट्ज की एक-एक कॉपी जो  25 पैसे की हुआ करती थी दो दो रुपए में बिकी !

भारतीय नौसेना के कमांडर केएम नानावती की ब्रिटिश पत्नी सिलविया प्रेम अहूजा के प्रेम पाश में फंस चुकी थी।  जैसे ही नानावती को इस बात का पता चला वो प्रेम अहूजा के मकान में पहुंचते हैं ।अंदर दाखिल होते ही तीन गोलियों की आवाज मुंबई के कोलाबा इलाके में गूंज उठती है । प्रेम अहूजा  IS DEAD !!

Jury trial होता है जिसमें नानावती निर्दोष पाये जाते हैं और उन्हे बरी कर दिया जाता है। (इसके बाद ही भारत में जूरी प्रथा समाप्त कर दी गई)

आहूजा की बहन  नानावती के खिलाफ अब उच्च न्यायालय में case ले जाती है और legal team मे राम जेठमलानी होते हैं। high court  में  नानावती को life imprisonment की सजा मिलती है। यहां से राम जेठमलानी की वह यात्रा शुरू होती है जो उन्हें विश्व प्रसिद्ध कर देती है।

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नकल में अकल

आपने  बहुत पहले शायद एक फिल्म देखी होगी जिसका नाम था "एक रुका हुआ फैसला" । बहुत ही बढ़िया फिल्म थी जिसमें सभी कलाकारों ने बहुत ही अच्छा काम किया था  खासकर पंकज कपूर ने ।

क्या आपको पता है कि यह फिल्म हॉलीवुड के अल्फ्रेड  हिचकौक  की एक बहुत ही मशहूर फिल्म की नकल थी -  डिट्टो सीन बाय सीन। उस फिल्म का नाम था "12 एंग्री मैन" और वह 1957 में आई थी । 

वैसे तो बॉलीवुड में नकल की बहुत फिल्म बनती है पर यह ऐसी नकल थी जो कि असल के ही टक्कर की थी। 

 यदि यदि आप अपने दोनों फिल्मों में से कोई भी फिल्म नहीं देखी है  तो आपको मौका मिले तो यह दोनों फिल्में अवश्य देखिए।

टेलीविजन तब और अब

टेलीविजन तब और अब

एक ज़माना था जब टीवी का मतलब  दूरदर्शन  हुआ करता था।  सिर्फ एक चैनल। ह्ल्के फुल्के विज्ञापन। 

तब छत पर टी०वी० का एन्टिना होता था।हम लोग छत पर जाकर  टेलीविजन का एनटीना ठीक करते थे ताकि programme  साफ साफ  दिखाई दे। फिर नीचे आ  कर सभी प्रोग्राम देखते थे. . . एडवर्टाइजमेंट को भी नहीं छोड़ते  थे।

 उस जमाने में जो विज्ञापन आते थे उनकी बात ही कुछ और थी। उनको देखकर मजा आता था . . उनको काफी दिनों तक याद भी करते थे हम।

 आज हम उन्ही विज्ञापनों की बात करेंगे।

80s के दशक में शाहिद कपूर  और आयशा टाकिया दोनों का ही बचपन था । तब  एक एडवर्टाइजमेंट आया था। शायद आपको याद होगा यदि आप उस जमाने के हैं ।  शाहिद कपूर और आयशा टाकिया के हाथ में प्याले है और दोनों कुछ पी रहे हैं। फिर एक साथ हाथ ऊपर उठाकर दोनों कहते हैं "आई एम ए कौम प्लान बौय . . . . आई एम ए कॉम प्लानगर्ल " यह ad काफी पॉपुलर हुआ था।   

उसी ज़माने में फिर एक और विज्ञापन आता था . . . "आई लव यू रसना" . . . छोटी बच्ची हुआ करती थी जो  यह कहती थी । अब तो ज़माना बीत गया और उस बच्ची के बाल अब सफेद होने लगे हैं ! सुना है कि वह आजकल नागपुर मे रहती है।

उसी जमाने में अमजद खान भी एक विज्ञापन में आए थे । तब तक वह गब्बर सिंह के रूप में काफी फेमस हो चुके थे । इस विज्ञापन में  वह अपना हाथ का ढाई किलो का पंजा ऊपर उठाते हैं और हाथ मे एक बिस्किट का एक पैकेट  होता है।  "गब्बर की असली पसंद" और वह विज्ञापन था "ग्लूकोज डी" बिस्किट का । . . . अब तो दोनों ही नजर नहीं आते हैं  . . . . 

एक और विज्ञापन था काफी इंटरेस्टिंग . . . एक स्मार्ट आदमी एक रेस्तरां में एक टेबल पे बैठा हुआ है और सामने वाली टेबल पर खूबसूरत सी युवती बैठी है। युवती ने अपना एक हाथ कान के पास रखा हुआ है । वह व्यक्ति उस की तरफ देखता है तो वह मुस्कुराती है और कहती है "हेलो ! आज शाम को आप क्या कर रहे हैं " । वह तो बहुत प्रसन्न हो जाता है . . . अपनी टेबल से उठता है और उसकी टेबल के पास आकर खड़ा हो जाता है . . .  उसकी तरफ देखने लगता है । असल में वह लड़की अपने  Ericsson मोबाइल फोन में बात कर रही होती है अपनी एक दोस्त से ।  वह  उस आदमी को सामने खड़ा देखकर होटल का बेरा समझती है और कहती है " एक ब्लैक कॉफी ले आओ "। इसके बाद उस आदमी का चेहरा देखने लायक था।

उस जमाने में ललिता जी भी बहुत प्रसिद्ध हो गई थी। चमकदार सफेद रंग की कॉटन की साड़ी जिस पर नीले रंग का प्रिंट था उसे पहनकर वह बाजार में सड़क के किनारे  सब्जियां खरीद रही थी । उस खरीददारी के दौरान वह लोगों को बताती है कि अच्छी चीज और सस्ती चीज में फर्क होता है और सर्फ की खरीददारी में ही समझदारी है. . .

ललिता जी के सर्फ को टक्कर देने के लिए निरमा ने एक बहुत अच्छा विज्ञापन लगाया था जिसमें एक ट्यून और एक गाना था  एक छोटी बच्ची सुंदर सा फ्रॉक पहने हुए  डांस करती थी और एक ट्यून बजती थी . . . " दूध सी सफेदी  . . . .कपड़ों में लाए. . . रंगीन कपड़े भी  . . . खिल खिल जाए  . . . .सबकी पसंद निरमा. . . . वाशिंग पाउडर निरमा।

आपको एक और विज्ञापन की याद दिलाता हूं जो आप शायद भूल गए होंगे। यह बजाज बल्ब का था  . . . एक बूढ़ा आदमी कहता है " . .   जब मैं छोटा बच्चा था . . . . बड़ी शरारत करता था. . . . मेरी चोरी पकड़ी जाती  . . .जब रोशन होता बजाज. . ." यह विज्ञापन भी बहुत पॉपुलर हुआ था।

 एक और विज्ञापन काफी पॉपुलर हुआ था। यह शम्मी कपूर और अशोक कुमार का था। यह तो पूरा याद है:

पत्नी: सुनिए लड़के के माँ-बाप आए हैं
अशोककुमार: अरे! आईये, आईये!
शम्मी कपूर: बारात ठीक आठ बजे पहुँच जाएगी, पर हम आपसे एक बात कहना तो भूल ही गए!
(अशोक कुमार के चेहरे पर घबराहट)
शम्मी कपूर:  घबराईये नहीं, हमें कुछ नहीं चाहिए! हम तो बस इतना चाहते हैं कि आप बारातियों का स्वागत… पान पराग से कीजिए!
अशोक कुमार: ओहो, पान पराग! हमें क्या मालूम कि आप भी पान पराग के शौकीन हैं!… ये लीजिए पान पराग!

उस जमाने में हम सभी विज्ञापन देखते थे। कोई विज्ञापन छोड़ते नहीं थे। और अब ऐसा जमाना आ गया है कि विज्ञापनों से चिढ़ हो गई है और विज्ञापन आते ही चैनल चेंज कर देते हैं।

 किसी ने सही ही कहा है अति सर्वत्र वर्जित है यानी Excess of anything is bad. अब तो TV में प्रोग्राम से ज्यादा विज्ञापन आते हैं और ऐसा लगता है कि हम वहां  सिर्फ विज्ञापन देखने के लिये बैठे है।

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Sunday 17 November 2019

गंज

गंज 

गूगल सर्च कीजिए  सिर्फ "गंज" लिखकर तो सामने सबसे ऊपर लखनऊ के हजरतगंज का गूगल मैप आ जाता है। सिर्फ नाम ही काफी है!

एक लंबे अरसे से लखनऊ का हजरतगंज काफी प्रसिद्ध रहा है पर समय के साथ गंज वह ना रहा जो पहले था। तब लखनऊ में कारें बहुत कम थी । गंज की सड़क पर शाम को पैदल चलने वालों  का ही राज होता था।  बीच में से एक्की दुक्की कार धीरे धीरे निकल जाती थी।  अब तो लखनऊ में मच्छरों से ज्यादा कारें हो गई हैं।  गंज तो अब भी है पर अब गंजिंग नहीं हो पाती है सही माने में। जी हां गंज अब बदल गया है।

दुकाने भी बदलती जा रही हैं। कहते हैं कि जहां पर गांधी आश्रम है आजकल, पहले वहाँ एक कॉफी हाउस हुआ करता था । यह भी सुना है की जीपीओ की शानदार इमारत कभी Ring Theatre के नाम से जानी जाती थी । यहां सिर्फ अंग्रेज लोगों का आना होता था। "Indians not allowed" का बोर्ड लगा होता था। तब जीपीओ वहां हुआ करता था जहां आजकल जनपथ मार्केट है । यह भी सुना है कि जहां पर मेफेयर सिनेमा बिल्डिन्ग है वहां पहले घास का मैदान था जहां शाम को लोग बैठकर करारी मूंगफली खाना करते थे। खैर यह तो बहुत पुरानी बात है।

हमारे जमाने में भी कई मशहूर दुकानें थी जो अब गायब हो गई हैं  । जीपीओ के तरफ वाले कोने पर एक benbows नाम का रेस्टोरेंट हुआ करता था। छोटा सा था, कोने में । वहां की चाय बहुत बढ़िया होती थी। सरदार जी का रेस्त्रां था । दुबले पतले चुस्त सरदार जी। हमेशा सफेद कपड़ों, सफेद दाढ़ी, सफेद पगड़ी में । उनके यहां के coconut cookies बहुत ही स्वादिष्ट थे और धड़ल्ले से बिकते थे । अब वहां पर छंगामल की दुकान आ गई है कपड़ा वालों की। 

हजरतगंज के दूसरे छोर पर हलवासिया के शुरू में पेट्रोल पंप के पास रॉयल कैफे हुआ करता था जो बाद में कपूर्स होटल बिल्डिंग में आ गया। लवर्स लेन तब बहुत लंबी हुआ करती थी । अब तो बिल्डिंग टूट जाने से  कुछ नहीं रह गई है। पूरे लवर्स लेन में मलिक की दूकान के पॉपकॉर्न की खुशबू छाई रहती थी। तब पौपकोर्न नया नया चला था और शायद मलिक की दुकान में पौपकोर्न की पहली मशीन लगी थी।

जहां अब बर्मा बेकरी है वहां पर पहले पुराना यूनिवर्सल बुक डिपो होता था जो बाद में आपसी विवाद की वजह से बंद हो गया और वर्षों तक  बंद पड़ा रहा। BN Rama chemist  की शानदार दुकान भी पहले कई हिस्सों मै बँट गई और फिर बंद हो गई। वहां उसके बाद कपड़ों की एक बड़ी दुकान खुल गई।

 1960s में  लालबाग में मकबरा कोलोनी की तरफ की गली में एक बहुत छोटा सा रेस्त्रां  हुआ करता था शर्मा चाट हाउस के नाम का। बहुत कम लोगों को पता होगा उसका आजकल । अब वहां कोई रेस्त्रां  नहीं है। उस छोटे से शर्मा रेस्त्रां  में बैठने की जगह मिलना शाम को मुश्किल होता था। चार आने का एक प्लेट दही बड़ा। चार आने के एक  प्लेट दही चटनी के बताशे और चार आने की एक प्लेट आलू की टिक्की। बहुत ही स्वादिष्ट चाट थी उसकी । उसी  मकबरा कॉलोनी में हलवासिया के तरफ की एक गली में मिस्टर सीएल पेपर का मकान हुआ करता था जहां पर पेपर साहब सुबह बैठकर मरीजों के नाखूनों का इंस्पेक्शन करके लोगों की बीमारियां बताते थे और जड़ी बूटियां देते थे। चमत्कारी "डाक्टर" थे पेप्पर साहब।

कॉफी हाउस जो आजकल नरही की तरफ है वह भी अब वैसा नहीं है जैसा पहले था । पहले काफी खुला हुआ था । अंदर हॉल में बैठने की हरे रंग की बेंत की आराम कुर्सियां होती थी। और सफेद ड्रेस, हरी बेल्ट वाले वेटर्स होते थे जिनमें सबसे ज्यादा popular waiter था करीम।  वहां चार आने का एक crisp दोसा और चार आने की एक कप बढ़िया गर्म कॉफी मिलती थी। और मजे की बात यह है कि आप एक कप कॉफी का ऑर्डर देकर दिनभर पंखे के नीचे बैठे रह सकते थे। कोई आपसे कुछ नहीं कहता था कि आप क्यों बैठे हैं।

उस जमाने में रेडीमेड कपड़े ज्यादा popular नहीं थे और दर्जियों का बोलबाला था । हजरतगंज में सबसे मशहूर टेलर्स रामलाल हुआ करते थे जो benbows के सामने वाली बिल्डिन्ग में था। हलवासिया के मकबरा फाटक के दाहिने तरफ भी एक बढ़िया टेलर की दुकान थी।

कई साल तक हजरतगंज में metro rail का काम चलता रहा और सड़क की दुर्दशा हो गई थी। अब फिर गंज की सड़को में रौनक आ रही है पर सिर्फ traffic की - gunjing की नहीं।

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