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Tuesday 28 June 2022

वह भी एक जमाना था

 एक  जमाना वह भी था जब लोग घी खरीदते समय हधेली के उल्टी तरफ घी रगड़ कर उसकी मिलावट का पता लगा लेते थे।

एक जमाना वह भी था जब लोग कपड़े के थान के एक कोने को रगड़ का उसकी quality का पता लगा लेते थे।

एक जमाना था जब लोग गेहूं की बोरी ले कर पंचक्की जाते थे आटा पिसाने के लिए । 
बाजार में पनचक्की के ऊपर चुक्क चुक्क चुक्क चुक्क की आवाज होती रहती थी।

एक जमाना वह भी था जब किसी भी चीज के पैकेट में उसके दाम नहीं लिखे होते थे। उस जमाने में एलोपैथिक दवाइयों के अलावा किसी भी चीज में मैन्युफैक्चरिंग डेट और एक्सपायरी डेट भी नहीं लिखी होती थी। दुकानदारो की मौज होती थी।

एक जमाना हुआ करता था जब सुबह सुबह उठकर कोयले की अंगीठी जलानी होती थी पतली पतली लकड़ियों और कागज की मदद से।  फिर एक लोहे की पाइप को फूक फूक कर उसको सुलगाया जाता था।

तब कहीं जाकर सुबह की पहली कप चाय के लिए पानी तैयार होता था। उसी जमाने में काफी घरों में कुल्हाड़ियां होती थी लकड़ी की चीर फाड़ करके आग जलाने और खाना बनाने के लिये।

एक जमाना था जब अक्सर सड़क पर गधे की पीठ पर ढेर सारे कपड़े लादकर धोबी आता दिखाई देता था हर एक के घर पर। फिर धुले हुए कपड़े लिए जाते कॉपी मे चेक करके और इसी तरह गंदे कपड़े भी नोट करके दिए जाते। अक्सर कमीज और पेंट में बटन गायब होते और कभी-कभी तो कपड़ा ही गायब हो जाता था। उसी जमाने में लोगों का यह भी कहना था कि इम्तहान के लिए  पढ़ते वक्त अगर गधे के ढेचू ढेचू की आवाज सुनाई दे जाए तो वह सवाल इंतहान मे जरूर आता था।

उस जमाने में अगर आप रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर जाते थे तो दर्जनों होल्डॉल और काले रंग के टीन के बड़े बक्से साथ लेकर सफर करते हुए लोग दिखाई देते थे और उन्हें बाहर से अंदर ट्रेन तक ले जाने के लिए कुली को सिर्फ 25 पैसे मिलते थे। आजकल की नई पीढ़ी को तो पता भी नहीं होगा कि होल्डॉल क्या चीज होती है।

उसी जमाने में ज्यादातर लोग साइकिल में ही दफ्तर जाया करते थे। ज्यादातर बाबू लोग जब दफ्तर जाते थे तो उनके सिर पर  sola hat होती थी। या एक खास तरह की हॉट होती थी जिससे धूप से बहुत अच्छी तरह रक्षा होती थी सर की और यह करीब-करीब सभी दफ्तर जाने वाले बाबू और अफसरों के पास होती थी। 1960 के बाद पैदा हुए लोगों को तो पता भी नहीं होगा कि sola hat क्या होती है.

वह भी एक अजीबोगरीब जमाना था क्योंकि तब लोग अपने प्रिय जनों को फोन नहीं करते थे। लोग  परिचित लोगों को  चिट्टियां लिखा करते हाथ से और फिर उन्हें सड़क में जाकर या पोस्ट ऑफिस जाकर लाल रंग के लेटर बॉक्स में डालते थे।  हफ्ते में कई बार घर के बाहर पोस्टमैन की आवाज सुनाई देती थी और जिसने सुनी वह दौड़ पड़ता था चिट्ठी को उठाने के लिए।

अजीबोगरीब जमाना था वह ।  कई मायने में बहुत अच्छा था और कई मामलौं में मुश्किल ।






Tuesday 7 June 2022

पुराने लखनऊ की यादें

बरसों पहले एक उपन्यास पढ़ा था अंग्रेजी का । लेखिका थी Daphne du Maurier. उपन्यास का नाम था House on the strand. कहानी कुछ इस तरह थी - एक आदमी कोई दवा खा लेता है और उसे खा कर कई दशक पहले के समय  में चला जाता है फिर वहां पर खेत दिखाई देते हैं जहां अब रेलवे स्टेशन  है । जहां पहले बैडमिंटन खेलता था  कहां पर से अब रेलवे लाइन  जाती है वगैरा-वगैरा  ।
 
जब हम सीनियर सिटीजन हो जाते हैं तो पीछे एक बहुत बड़ा समय छोड़ जाते हैं जिस समय शहर  कुछ फर्क था। आज लखनऊ के बारे में ऐसी ही कुछ बात करेंगे।

 लखनऊ का हजरतगंज तो बिल्कुल ही बदल गया है। आज से कई दशक पहले हजरतगंज में न तो इतनी मोटर कार थीं न मोटरसाइकिल और स्कूटर थे। हजरतगंज की सड़क पर कोई खास ट्रैफिक था ही नहीं । उस जमाने में लोग सड़क पर   gunjing किया करते थे आराम से टहलते हुए -  Benbows से मेफेयर तक और फिर रॉयल कैफे से वापस दूसरी तरफ से । कब हजरतगंज बहुत साफ-सुथरे  बिना भीड़ वाली मार्केट हुआ करती थी । देखिए एक पुरानी फोटो और एक नई फोटो में
और अब तो मेट्रो रेल लाइन आ जाने के बाद नजारा बिल्कुल ही बदल गया है हर जगह का । मेट्रो रेल लाइन के रूट पर हर जगह खंबे ही खंबे नजर आते हैं

आज से 50 साल पहले तक लखनऊ में शायद ही कोई बहुमंजिला इमारत हो पर अब तो हर जगह ऊंची ऊंची बिल्डिंग में ही नजर आती है मिसाल के तौर पर ले लीजिए रॉयल होटल चौराहा। जहां पर आजकल सचिवालय के बापू भवन  की बहुत बड़ी बिल्डिंग है
, रॉयल होटल चौराहे पर, वहाॅ पहले एक खूब लंबा दुमंजिला होटल हुआ करता था -रॉयल होटल।

 हुसैनगंज चौराहे पर भी एक दो मंजिला शानदार होटल का जिसका नाम था बर्लिंगटन होटल और उसी के नाम पर वह चौराहा पड़ा था । आजकल हुसैनगंज चौराहे पर जो एक बहुमंजिली इमारत है  विधायक निवासवहाॅ पर 1950 के दशक के अंत तक एक खूबसूरत एक मंजिल की इमारत थी जिसका नाम था ओल्ड काउंसिलर्स रेजिडेंस। वहाॅ  हरी हरी घास का एक बहुत बड़ा खूबसूरत सा बगीचा (lawn) भी था  फूलों से लदा। और हरी घास के बीच में एक शानदार सा फव्वारा था।

 हजरतगंज के बड़े चौराहे पर जहां आजकल बहुत बड़ा छंगामल का कपड़ों का शोरूम है वहाॅ कभी एक छोटा सा रेस्ट्रो हुआ करता था जिसका नाम था बेनबोस। दोनों तरफ खुलता हुआ वह रिस्ट्रो और बेकरी सफेद दाढ़ी वाले छरहरे बुजुर्ग सरदार जी की थी जो हमेशा सफेद चूड़ीदार पजामा और कुर्ता और सफेद पगड़ी पहने काउंटर के पीछे दिखाई देते थे। निहायत सज्जन और शानदार आदमी थे और उनकी कोकोनट cookie तो पूरे लखनऊ में प्रसिद्ध थी । वहां बैठकर चाय पीने का मजा ही कुछ और था और बैठे-बैठे आप दूर तक अशोक रोड पर चलते हुए ट्रैफिक को देख सकते थे ।

दिमाग तो आगे पीछे दौड़ता ही रहता है। हनुमान सेतु नाम का गोमती नदी के ऊपर का  यूनिवर्सिटी के पास का पुल साठ के दशक में बना था। उसके पहले यहां नीचा सा पुल था मंकी ब्रिज नाम का जिसके ऊपर से साइकिल चलाता हुआ मैं यूनिवर्सिटी जाता था।

  निशातगंज के चौराहे से आजकल के पॉलिटेक्निक के चौराहे को जाने वाली सड़क तो पचास के दशक मे गोरखपुर की ओर जाने वाली एक बहुत कम चौड़ी  सड़क थी और सड़क के दोनों तरफ बड़े-बड़े बहुत पुराने पेड़ लगे थे। सड़क के दोनों तरफ दूर दूर तक खुला मैदान था। बादशाह नगर स्टेशन के पास कुछ छोटे-मोटे दुकानें थी। महानगर तो 50 के दशक के मध्य में बनना शुरू हुआ था।

1950 दशक मे अमीनाबाद एक साफ-सुथरी बहुत कम भीड़ वाली बाजार हुआ करती थी। बीच में बहुत बड़ा पार्क था जिस में धीरे धीरे रिफ्यूजी लोगों ने अपनी दुकानें बनाई । धीरे-धीरे पूरा पार्क गायब हो गया। 

आगे की बात करें तो 1976 तक गोमती नगर नाम की कोई चीज नही थी। यहां पर गांव हुआ करते थे मलेसा मऊ, उजरियाॅव, जग्गौर,  गौरी का पुरवा इत्यादि।  यही हाल इंदिरानगर वाली जगह का था जहां पहले गांव ही गांव थे।

आज के लिए इतना ही । फिर बात करेंगे लखनऊ के पुराने जमाने के बारे में।