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Tuesday 8 March 2022

जमाना बदल गया है

जमाना बदल गया है

जब आप बचपन को बहुत पीछे छोड़ जाते हैं और फिर मुड़कर देखते हैं तो आश्चर्य होता है कि अरे कभी ऐसा भी था। वही हाल मेरा भी है । जब दिमाग के घोड़े पुराने समय की तरफ दौड़ते हैं तो पुराने समय को याद कर कर बहुत आश्चर्य होता है।

  मिसाल के तौर पर  बचपन में हम होल्डर पेन से लिखा करते थे । उसमें G निब लगाकर। ink pot में बार-बार कलम को भी डोबते  थे । तब सपने में भी नहीं सोचा था कि एक ऐसी कलम होगी जिसमें स्याही नहीं भरनी पड़ेगी बार-बार,  और उससे लिखते जाएंगे । पहले फाउंटेन पेन हाथ आई जिसमें inkpot से छुटकारा मिल गया और फिर ball pen आ गई स्याही का झंझट ही खत्म हो गया।

  उस जमाने की एक और चीज बिल्कुल ही गायब हो चुकी है और वह है रेडियो।  पहले रेडियो आया था । फिर ट्रांजिस्टर रेडियो आया जिसको लेकर आप कहीं भी घूम सकते थे । फिर दोनों ही गायब हो गए । 

 एक और चीज गायब हो गई है और वह है टिंचर आईडीन । जी हां, जब चोट लगती थी, कहीं पैर में कट जाता था, खून बहता था, तो सफाई करके उसके ऊपर रुई के फाहे से टींचर आईडीन लगा दी जाती थी - कत्थई रंग की liquid.  लगाने के बाद उछलने लगते थे क्योंकि दर्द होता था चरपराहट होती थी लगने पर । 

 एक और चीज जो बिल्कुल गायब हो गई है वह है पर्दे खसखस के । गर्मियों के दिनों में खिड़की दरवाजों में खसखस के पर्दे लगाकर उनके ऊपर पानी छिड़का करते थे लू से बचाव के लिए, कमरे में ठंडक लाने के लिए। अब तो कहीं भी नहीं दिखाई देते।

चाबी देने वाली घड़ी भी गायब हो चुकी है चाहे वह टेबल क्लॉक हो या रिस्ट वॉच । सब घड़ी आजकल तो बैटरी से चलती है।  एक जमाना था जब रात को सोने से पहले लोग घड़ी उतार देते थे उसमें चाबी भरते थे और चारपाई के बगल वाली मेज पर रख देते थे सोने से पहले। अब तो बहुत से लोगों ने घड़ी पहनना ही छोड़ दिया है क्योंकि हाथ में मोबाइल है उसी में घड़ी भी है उसी में केलकुलेटर भी है उसी में और भी हैं कई छोटी मोटी चीजें ।

एक और चीज जो गायब हो चुकी हैं उनका भी जिक्र कर देता हूं और वह है सोला हैट (Sola hat) जो 1950 के दशक तक काफी  इस्तेमाल होती थी धूप से बचने के लिए । 

Gallice याने सस्पैंडर जो पेंट में इस्तेमाल होता था पेंट को नीचे खसकने से रोकने के लिए, वह भी गायब हो गया उसके बारे में तो खैर आपको पता ही नहीं होगा कि क्या चीज होती थी वह । आजकल तो सब जगह बेल्ट का ही इस्तेमाल होता है।

लोगों के घरों से खासकर उत्तरी भारत में सिलबट्टे भी गायब हो चुके हैं जो मसाला पीसने के काम आते थे । अब या तो मिक्सी में मसाले पीसे जाते हैं या फिर बने बनाए बाजार में मिल जाते हैं। इसके अलावा शहरों में ईटें से बनने वाले मिट्टी के चूल्हे जिनपर लकड़िया जलती थी वह भी रसोई घर से गायब हो चुके हैं। सब जगह लाल रंग का सिलेंडर आ गया है जो साठ के दशक के पहले कहीं नहीं था। तब मकानों के रसोईघर के ऊपर चिमनी हुआ करती थी जिसमें से रसोई घर का धुआं निकलता था । पुराने जमाने की फोटो में शहरों में आप ऐसी ढेर सारी चिमनी देखेंगे । अब ना धुआं  है ना चिमनी है।

और भी बहुत कुछ है पर फिर कभी।

Monday 7 March 2022

यूनिवर्सिटी की बातें

 यूनिवर्सिटी की बातें

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और लखनऊ यूनिवर्सिटी इन दोनों जगह का हॉस्टल में रहने का अनुभव है मुझे पुराने जमाने में, जब विश्वविद्यालय में पॉलिटिक्स कम और पढ़ाई ज्यादा होती थी , जब हॉस्टल में असामाजिक तत्व नहीं रहते थे ।

लखनऊ यूनिवर्सिटी और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हॉस्टलों में रहने का सबसे बड़ा फर्क यह है की इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के सभी हॉस्टल जिस एरिया में थे वहां पर बहुत बड़ी बाजार हुआ करती थी कटरा की तो वहां रहना बड़ा सुविधाजनक होता था । बाहर खाने का मन हुआ तो भट्ट जी की दुकान पर चले गए और चाय बंद मक्खन का नाश्ता हो गया। दिन में बाहर खाने का मन किया तो चार कदम पर जगाती का रेस्तरां। सामान खरीदना हो तो चौराहे पर दुकान वहीं पास में । किताबें खरीदनी हो तो यूनिवर्सिटी रोड पर किताबों की बहुत सी दुकान थी । रात में सेकंड शो सिनेमा देखने का मन हुआ जो रात के 12:30 बजे तक चलता है तो यूनिवर्सिटी के पास ही लक्ष्मी टॉकीज सिनेमा हॉल । मतलब यह हुआ कि रहना बड़ा सुविधाजनक था । वही बगल में पान सिगरेट की दुकान भी और कटरा में बिल्कुल हॉस्टल के नजदीक एचडी पंत की टेलरिंग शॉप । कटरा चौराहे पर नेतराम हलवाई की प्रसिद्ध दुकान जहां संडे के दिन शाम का भोजन का प्रबंध हो जाता था पूरी और सब्जी का खाना ( हर संडे को शाम का खाना बाहर खाना होता था क्योंकि mess की छुट्टी होती थी) । सिविल लाइंस या चौक जाने का मन हो तो बाहर निकलते ही हॉस्टल के गेट पर रिक्शा मिल जाता था और  चार आने में सिविल लाइंस और 6 आने में चौक । प्रयाग स्टेशन भी नजदीक ही था । कहने का मतलब यह है कि सुविधाएं बहुत थी। हॉस्टल में भी एक से ज्यादा खाने के mess होते थे  और उनमें कंपटीशन की वजह से खाना ठीक ही मिल जाता था । और तो और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हॉस्टल की एरिया में ही यूनिवर्सिटी का अस्पताल था जिसे डिस्पेंसरी कहा जाता था । एक बार जब बीमार पड़ा तो वही एडमिट हुआ और बहुत सुविधाजनक तरीके से इलाज हो गया । इलाहाबाद की तरह लखनऊ यूनिवर्सिटी में ऐसा अस्पताल नहीं था। अगर बीमार पढ़ो तो केजीएमसी मेडिकल कॉलेज जो वहां से मीलो दूर था वहां एडमिट होने के लिए जाओ।

अब आइए लखनऊ यूनिवर्सिटी की बात करते हैं। लखनऊ यूनिवर्सिटी के करीब करीब सभी हॉस्टल मेन रोड से बहुत ही दूर थे और मेन रोड पर भी कोई बाजार नहीं थी, न कोई सिनेमा हॉल था,  ना कोई टेलरिंग शॉप थी, ना ही कोई किताबों की दुकान थी।  किताब खरीदना हो तो कई किलोमीटर दूर भीड़ भड़ से भरी अमीनाबाद  मार्केट जाइए। सिनेमा देखना हो तो वो भी बहुत दूर कई किलोमीटर का रास्ता है । रोजमर्रा का सामान खरीदने का काम भी मुश्किल था । मैं आजकल की बात नहीं कर रहा हूं। मैं बात कर रहा हूं  60 साल पहले की। अगर लखनऊ यूनिवर्सिटी में मैं हॉस्टल में रह पाया तो सिर्फ इस वजह से कि मैं घर से साइकिल ले आया था। इसकी जरूरत  इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में नहीं पड़ी थी। उसी साइकिल में हजरतगंज अमीनाबाद हुसैनगंज नजीराबाद रोड सभी जगह जाता था।

आखिर में बात करते हैं हॉस्टल के वातावरण की - भाईचारे की,  सोशल एक्टिविटीज की । तो इस मामले में भी लखनऊ यूनिवर्सिटी के हॉस्टल इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हॉस्टल से बहुत पीछे थे। इलाहाबाद में मैं जिस हॉस्टल में रहता था वहां हर साल जाड़ों में बहुत बड़ा सोशल फंक्शन होता था जिसमें शहर के बड़े बड़े लोग उपस्थित होते थे । लखनऊ यूनिवर्सिटी में ऐसा कुछ नहीं था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में नए लड़कों की बड़ी तगड़ी होती थी रैगिंग। लेकिन इसका फायदा यह था कि इस के बाद हॉस्टल के सभी लोग एक दूसरे को अच्छी तरह जान जाते थे और एक परिवार की तरह रहते थे । लखनऊ यूनिवर्सिटी में ऐसा कुछ नहीं था ।हॉस्टल में बगल वाले कमरे में कौन है उससे हमें कोई मतलब नहीं रहता था सिर्फ अपने दोस्तों तक रहते थे।

यह सब पुरानी बातें हैं  । आजकल इलाहाबाद और लखनऊ यूनिवर्सिटी का क्या हाल है इसके बारे में वहां इस समय रहने वाले लड़के ही बता सकते हैं।

Sunday 6 March 2022

VINTAGE RAILWAY TIMES

There was a time when trains had compact small  compartments instead of the longer  vestibule coaches of today with multiple cabins and a long running corridor

Railways used to have four categories of compartments -  first class, second class, third class and an inter class.  There were no air conditioned coaches

The first class compartment had  two very wide lower berths . One upper berth above one of the lower berths  and a  long rack for keeping hats above the other lower berth. In first class compartment window has three types of shutters - a glass shutter, a wooden shutter and a wire mesh shutter. The wire mesh shutter filtered the large particles of coal travelling from the steam engine

The second class had a total of six berths - two lower berths and two upper berth on the window sides and one lower berth and one upper berth on the third side. There was a bathroom on the fourth side.

The difference between third class and inter class was that in inter class there was some kind of very ordinary cushion  benches . Third class  benches were of plain hard wood.

There were no platform tickets until early fifties. Even when the platform ticket was introduced, most people would not buy them and would go inside after simply informing the ticket collector at the gate

In most bigger Railway stations the best book stall of the town used to be the A.H.Wheeler Book Stall at the railway station. In the City where I spent my childhood the A.H. Wheeler Book Stall at platform number one pf the railway station was very big and it contained so many paperback books, dozens of magazines and several newspapers.The main platform  was  long, wide and very clean. People used to visit the railway station to simply take an evening stroll on the almost empty  platform, watch an occasional train arriving or departing and spending time at the book stall. 

Bigger railway stations had separate vegetarian and non vegetarian restaurants. The crockery bore the name of the railways, waiters used to be in smart uniforms and the food was of a good quality.

In those days the results of major all India or state examinations were published in one of the newspapers. The results of provincial education boards final examinations used to be published in newspaper special editions . I remember when I gave my high school examination, the results were declared sometime towards the end of May and the evening railway train brought the newspapers containing the results . There was a massive crowd at the station that evening, all eagerly awaiting the arrival of the train carrying the newspapers and as soon as the newspapers arrived (priced at Rupee one each) there was a mad rush to buy a copy of the bulky newspaper. 

Finally a word about the railway colonies . These vast colonies were located at important Railway centres and had all categories of railway quarters, from very small ones for the lowest of the staff and massive  Bungalows for the top officials. Railway Colony used to be very clean and very well maintained. Every Railway. colony usually had two clubs - A Junior Institute for the staff and a Senior Institute for the officers. Railway Colony had their own Electric Supply at much cheaper rate than the rest of the city.

Those were the golden days of Indian Railways.