Total Pageviews

Thursday 9 February 2023

कुछ बातें चाय की

बचपन में हमारे यहां चाय टी पॉट में बनती थी और चाय  की पत्ती टी पॉट में डालकर खौलता पानी भरने के बाद उसे फॉरेन टीकोजी से ढक दिया जाता था । साथ में ट्रे में रहता था मिल्कपौट और शुगर पौट।

 उस जमाने में लिपटन की चाय बहुत चलती थी और लिपटन की तीन मुख्य ब्रांड मार्केट में दिखाई देती थी ,  ग्रीन लेबल ,यलो लेवल और रेड लेबल। 

 हमारे यहां ग्रीन लेबल और रेड लेबल को मिलाकर चाय बनती थी।

 तब बाजार में चाय का दाम था दोआने प्रति कप। दो आने का मतलब है 12 पैसे। उस जमाने में सबसे महंगी चाय मैंने नैनीताल मे पी थी फ्लैट्स में फ्लैटीज़ रेस्टरों में  । एक कप का दाम छै आने  था।

फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी चला गया और वहां पर हॉस्टल के मेस में चार आने का एक पॉट मिलता था जिसमें दो कप चाय होती थी। यह रेट बहुत सालों तक वहीं था

लखनऊ यूनिवर्सिटी ज्वाइन की तब शायद पहली बार गिलास में चाय मिले रेस्ट्रो में। यह चाय की पत्ती को उबालकर बनाई गई चाय होती थी जिसका स्वाद कुछ फर्क था। कड़क चाय ।

जब मेरा ट्रांसफर नागपुर हो गया तो वहां शुरू शुरू में बहुत घटिया किस्म की चाय पीने को मिली। लगता था जैसे चमड़े को पानी में उबाल कर बनाई है। पर जल्दी ही दफ्तर के नजदीक एक दक्षिण भारतीय रेस्टरो मिल गया और वहां का खाने पीने का सामान और नीलगिरी की चाय ने मन को मोह लिया । शायद पहली बार इतनी जायकेदार चाय पी जो ग्रीन लेबल चाय से भी अच्छी थी स्वाद में।

दिल्ली गया  तो फिर दिल्ली की साधारण चाय पीने की आदत पड़ गई । दिल्ली में चाय के शौकीन कम है। 

 सत्तर के दशक में लालबाग चौराहे के पास शर्मा जी की नुक्कड़ वाली चाय की दुकान में चाय पीने का अवसर मिला । शायद नई दुकान खोली थी। यह चाय अब तक की सबसे फर्क चाय थी क्योंकि इसमें लॉन्ग इलायची अदरक जैसे पता नहीं क्या मसाले मिले थे । यह चाय लखनऊ में काफी लोकप्रिय थी। अब भी लोकप्रिय है। 

शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि एक जमाने में विश्व की सबसे प्रसिद्ध चाय बेनीनाग उत्तराखंड की काली चाय थी लंबी पत्तियों वाली जिसकी खुशबू और स्वाद बेमिसाल थी। यह चाय के बागान प्रसिद्ध उत्तराखंड उद्योगपति दान सिंह बिष्ट के थे जो अपने छोटे से जीवनकाल में बहुत जबरदस्त औद्योगिक प्रगति कर बैठे और जिनके देहांत के साथ ही उनकी इंडस्ट्रियल अंपायर समाप्त हो गई। उनके कौसानी स्थित चाय के बागान भी। 

चाय के सबसे बड़े कदरदानों में ब्रिटेन के लोग हुआ करते हैं और इनकी आदत चाय में बिस्किट डुबो कर खाने की है जिसे डंकिंग इन टी कहते हैं । अभी कुछ दिनों पहले पढा था ब्रिटेन के एक समाचार पत्र में कि भारत के समोसे वहां बहुत लोकप्रिय हो गए हैं और लोग बिस्किट की जगह समोसे के साथ चाय पीना ज्यादा पसंद करने लगे हैं।

पश्चिमी देशों के लोगों को यह देखकर आश्चर्य होता होगा कि भारत में ट्रेन में सफर करने वालों में चाय कितनी लोकप्रिय है और किस तरह स्टेशन आते ही छोटे छोटे लड़के पीतल के चाय के बड़े मटके लेकर प्लेटफार्म में ट्रेन के आने पर लोगो को चाय पिलाने के लिए दौड़ पड़ते हैं। 

आपको यह सब बताने में इतना व्यस्त हो गया मैं कि भूल गया की गैस में चाय का पानी चढ़ा रखा है। चलता हूं अब चाय बनाने के लिए।

***

Tuesday 7 February 2023

Miracle cure for hairloss at young age.

MIRACLE CURE FOR HAIR LOSS

(Note : Once upon a time there lived in maqbara colony of Hazratganj Lucknow a wise man by the name of CL Pepper. He worked in state governments transportation department during the day and in the morning and evening devoted his time to diagnosing health problems of men and women and prescribing herbal treatment. This was all free of cost. This treatment for #hairloss was given by him to many people during 1950s and 60s and was reportedly quite effective. 

It is very important to note that after the carom seed formula is ready, it should be completely dry so that it does not develop fungus while in storage.)

Take 250 grams of ajwain seeds (carrom seeds).. Get two and a half kgs fresh juicy lemon. Soak the ajwain seeds  in home made  fresh , filtered  lemon juice in a large glass or stone bowel. Add a flat teaspoon of rock salt to this juice.. keep it  covered through the night. In the morning scoop and spread the carrom seeds on big china platesto dry in the sun. In the evening put t back in the pot in the lemon juice. Repeat the process until the entire juice gets absorbed in carrom seeds. Keep it in the sun for a few days more to get it completely dried. Store it in an airtight glass jar. 

After each of the two main meals take  pea size of the seeds, mixed in a flat spoonful of honey. Do this till you use the entire stock . 

Within  a fortnight  of starting this treatment you are likely to see a change in your general health, in your muscular strength and in your scalp . By the time you finish with the treatment you will most likely have a new healthy personality and a scalp full of healthy hair.

The most remarkable recovery is generally seen in the case of  young men under thirty. People who are more than 40  also get benefited  but not in  such a dramatic way.

With the sun getting stronger in the month of march in northern hemisphere, this is the right time to make this preparation .

***

an old timer's nostalgia.

In late 1950s civil lines market used to be very posh very clean,  single storied, uncrowded  and open. 

PALACE cinema at civil lines had a high status. Balcony and first class in cinema halls cost rupees 2.25 and rupees 1.25 respectively and there was a student concession also. 

 LUCKY SWEET MART was the popular  tea and snacks restaurant in civil lines..  KOHLI PHOTO shop was a high status photography shop . There was another photography shop a little away from the market by the name of GLAMOUR  studio.

Jukebox was a craze at the BN Rama department  Store which used to charge 25 paise for one song. 

MASTONS was an elite tailoring shop next to Kohli photo . At rupees thirtyfive for stitching a woolen coat they were known to have one of the  highest rates in Northern India.  Close to the market was the posh Guzdhar restaurant. 

Rickshaw hiring charges from civil lines to Muir hostel was just 25 paise. BULAKI 's hair cutting salon adjacent to Palace cinema was patronised by affluent University students. The clock tower above the senate hall of the university had a clock identical to the big Ben of London and  its gongs were as powerful and  similar to the big Ben of London. JAGATI was a very old restaurent  of University Road.

There were hardly any transister radios then in India . There was always a huge radio set in the common halls of the hostels and students used to gather there in big number to listen to cricket commentary and BINACA GEET MALA. Vizzy and Pearson sureta were the most well done cricket commentators and binaca Geet mala's . Amin Sayani was the man with a golden voice.

As I look back, in those days life was not as chaotic as in the present Times. 

Monday 6 February 2023

ज़माना बदल गया है

कुछ साल पहले एक दिन अचानक बहुत हाई ब्लड प्रेशर हो गया और मैं घबरा गया । ब्लड प्रेशर की दवाई तो खाता हूं नियमित रूप से और ब्लड प्रेशर कंट्रोल में रहता है पर अचानक ब्लड प्रेशर का बहुत ऊपर  जाना चिंता का कारण था। सो अपने मित्र के साथ एक कार्डियोलॉजिस्ट के कंसलटिंग क्लिनिक में पहुंच गया।

बाहर काफी भीड़ थी करीब 40 लोग लाइन से लंबे बरामदे में कुर्सियां में बैठे थे और अपने नंबर का इंतजार कर रहे थे। मैं भी अपने हिसाब से लाइन में बैठ गया। करीब 1 घंटे बाद मेरा नंबर आ गया और मैंने सोचा चलो डॉक्टर साहब अच्छी तरह चेकअप करके दवाई में चेंज कर देंगे और खाने-पीने वगैरह की सही सलाह भी  दे देंगे 

मैं अंदर गया और डॉक्टर साहब के बगल में बैठ गया और  उनसे कहा कि मेरा ब्लड प्रेशर अचानक बढ़ गया है और ये दवाई खा रहा हूं । डॉक्टर साहब कलम उठाई प्रिस्क्रिप्शन लिख दिया और अगले पेशेंट को अंदर आने को कहा। 

 उन्होंने मुझसे कहा,  लाइए मेरी फीस।  ₹1000 दे दीजिए। मैं उनको समझाने लगा अपने बारे में।0

 "यह सब सुनने के लिए टाइम नहीं है आप देख रहे हैं  पीछे एक लंबी लाइन खड़ी है इंतजार में सब का टाइम खराब मत कीजिए पैसे दीजिए और जाइए दवाई मैंने लिख दी है ।"

 मैंने उनको ₹1000 दे दिए और बाहर आ गया।


अब चलते हैं 1950 के दशक में जब मैं एक स्कूल जाने वाला स्टूडेंट था । एक दिन अचानक तबीयत खराब हो गई तो मेरे पिताजी मुझे पास की एक क्लिनिक में ले गए । जब  पहले वाला मरीज बाहर निकला तो डॉक्टर ने मुझे बुलाया। 

फिर उन्होंने मेरी आंख को चेक किया। आंख के नीचे की पलक पलट  कर देखा फिर  मेरी जीभ को एक चम्मच से दबाकर अच्छी तरह चेक किया।  फिर उन्होंने मेरे घुटने में एक इंस्ट्रूमेंट से धीरे-धीरे टैप किया जिससे  घुटने से नीचे का पैर उछाला जाता था। स्टेटस्कोप से मेरी छाती और पीठ को चेक किया।  फिर उन्होंने दवाई लिख दी और मुझे खाने पीने के बारे में सलाह दी। करीब 15 मिनट से ज्यादा टाइम दिया और उसके बाद कंपाउंडर को बुलाकर प्रिस्क्रिप्शन दे दिया ताकि वो दवा बना दे। उस जमाने मैं डॉक्टर की क्लिनिक मैं ही दवा बनती थी।

 पुराने जमाने और आजकल के डॉक्टर के व्यवहार और काम करने के स्टाइल में कितना अंतर है ! आजकल एक सफल डॉ वह है जो सुबह डीकेडी पर बैठता है शाम को अधिक से अधिक में बैठता है और दिन में कई अस्पतालों में कंसलटेंट डॉक्टर है। आजकल वह एक मरीज को कितना टाइम दे रहा है ?

 पुराने जमाने में कोई टेंशन नहीं था डॉक्टर  शांति से अपने क्लीनिक में ही बैठकर पैसे कमाता और उसमें संतोष रखता और मरीजों को ज्यादा से ज्यादा समय और राय देता।

पर सबसे बड़ा फर्क तो यह है कि अब कोई कंपाउंडर नही होता है जो पहले हर डॉक्टर की क्लिनिक मैं होता था। आज कल डॉक्टर  सिर्फ प्रिस्क्रिप्शन लिखता है। पहले डॉक्टर अपने मरीज के लिए दवा अपनी क्लिनिक मैं ही बनाता था मिक्सचर और पाउडर । और उसके लिए कंपाउंडर की जरूरत होती थी।

एक और बात है। पुराने जमाने मैं डॉक्टर पूरे शरीर की जिम्मेदारी लेता था और ऐसी दवाई देता था जिसको खाने से किसी और अंग में कोई बुरा असर नही हो पर अब ऐसा नहीं है। यूरोलॉजिस्ट आजकल प्रोस्टेट की अक्सर एक दवाई देते हैं जिससे आंखों को बहुत नुकसान होता है और उनको इससे कोई मतलब होता है। वह तो तब पता चलता है जब आई स्पेशलिस्ट कैटरेक्ट का ऑपरेशन करते हैं ।

Sunday 5 February 2023

सोचने वाली बात



बॉलीवुड में दो टाइप के एक्टर होते हैं एक तो वह जो लटके झटके के साथ एक्टिंग करते हैं और वजनदार डायलॉग बोलते है।  दूसरे वह जिनके ना तो कोई लटके झटके हैं ना कोई धासू डायलॉग वाली एक्टिंग ।  बिल्कुल नेचुरल ।

देवानंद के लटके झटके तो आपने पुरानी फिल्मों में देखे होंगे,  नई फिल्मों में शाहरुख खान के लटके झटके हैं। दिलीप कुमार भी एक्टिंग ही करते थे हालांकि ऊंचे कलाकार थे वजनदार डायलॉग वाले।

लटके झटके वाले और एक्टिंग करने वाले कलाकार अपने टाइम में बहुत सफल होते हैं पर 20 साल बाद अगर कोई वह फिल्म देखें तो उनकी वह हरकत है कुछ हद तक बेतुकी लगती हैं।

 दूसरी तरफ वह कलाकार है जिनको देखकर लगता है कि आप सचमुच का दृश्य देख रहे हैं कोई फिल्म का नहीं। ऐसे कलाकारों में ज्यादातर वह कलाकार है जो छोटे रोल करते हैं लेकिन बहुत ही सरल तरीके से _ जैसे युनुस परवेज़, एस एन बनर्जी , सीएस दुबे , इफ्तेखार और कुछ हद तक उत्पल दत्त।   मुख्य कलाकार भी कई है जैसे अमोल पालेकर  मौसमी चटर्जी , फारुख शेख,  नसीरुद्दीन शाह ओम पुरी आदि ।

एक बात और। एक अच्छी फिल्म सिर्फ हीरो की वजह से नहीं चलती। सबसे महत्वपूर्ण बात है एक अच्छे डायरेक्टर का होना एक अच्छे पटकथा का होना और एक अच्छी एडिटिंग का होना।  फिल्म इत्तेफाक की बहुत सुंदर एडिटिंग थी। फिल्म अंगूर की एडिटिंग और डायरेक्शन दोनों लाजवाब थे । वही फारूक शेख  जिन्होंने फिल्म कथा में अपना झंडा गाड़ दिया था कुछ फिल्मों में  बेकार नजर आए  इसलिए की डायरेक्शन गलत था, पटकथा कमजोर थी या फिर एडिटिंग सही नहीं हुई।

अब वह जमाना चला गया है जब म्यूजिक  डायरेक्टर के बूते पर फिल्म हिट हो जाती थी।अब न तो अच्छे म्यूजिक डायरेक्टर्स हैं न अच्छे गायक।
ऐसा लगता है कि वह समय दूर नहीं है जब हिंदी फिल्मों में गाने करीब-करीब गायब हो जाएंगे हॉलीवुड फिल्मों की तरह।