बॉलीवुड में दो टाइप के एक्टर होते हैं एक तो वह जो लटके झटके के साथ एक्टिंग करते हैं और वजनदार डायलॉग बोलते है। दूसरे वह जिनके ना तो कोई लटके झटके हैं ना कोई धासू डायलॉग वाली एक्टिंग । बिल्कुल नेचुरल ।
देवानंद के लटके झटके तो आपने पुरानी फिल्मों में देखे होंगे, नई फिल्मों में शाहरुख खान के लटके झटके हैं। दिलीप कुमार भी एक्टिंग ही करते थे हालांकि ऊंचे कलाकार थे वजनदार डायलॉग वाले।
लटके झटके वाले और एक्टिंग करने वाले कलाकार अपने टाइम में बहुत सफल होते हैं पर 20 साल बाद अगर कोई वह फिल्म देखें तो उनकी वह हरकत है कुछ हद तक बेतुकी लगती हैं।
दूसरी तरफ वह कलाकार है जिनको देखकर लगता है कि आप सचमुच का दृश्य देख रहे हैं कोई फिल्म का नहीं। ऐसे कलाकारों में ज्यादातर वह कलाकार है जो छोटे रोल करते हैं लेकिन बहुत ही सरल तरीके से _ जैसे युनुस परवेज़, एस एन बनर्जी , सीएस दुबे , इफ्तेखार और कुछ हद तक उत्पल दत्त। मुख्य कलाकार भी कई है जैसे अमोल पालेकर मौसमी चटर्जी , फारुख शेख, नसीरुद्दीन शाह ओम पुरी आदि ।
एक बात और। एक अच्छी फिल्म सिर्फ हीरो की वजह से नहीं चलती। सबसे महत्वपूर्ण बात है एक अच्छे डायरेक्टर का होना एक अच्छे पटकथा का होना और एक अच्छी एडिटिंग का होना। फिल्म इत्तेफाक की बहुत सुंदर एडिटिंग थी। फिल्म अंगूर की एडिटिंग और डायरेक्शन दोनों लाजवाब थे । वही फारूक शेख जिन्होंने फिल्म कथा में अपना झंडा गाड़ दिया था कुछ फिल्मों में बेकार नजर आए इसलिए की डायरेक्शन गलत था, पटकथा कमजोर थी या फिर एडिटिंग सही नहीं हुई।
अब वह जमाना चला गया है जब म्यूजिक डायरेक्टर के बूते पर फिल्म हिट हो जाती थी।अब न तो अच्छे म्यूजिक डायरेक्टर्स हैं न अच्छे गायक।
ऐसा लगता है कि वह समय दूर नहीं है जब हिंदी फिल्मों में गाने करीब-करीब गायब हो जाएंगे हॉलीवुड फिल्मों की तरह।
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