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Wednesday 6 September 2023

बचपन के झटके

आपको झटके तब लगते हैं जब आपकी कल्पना के विपरीत कोई बात हो जाती है और बचपन में अगर आपकी कल्पना के विपरीत कोई ऐसी बात हो जाती है जिससे आपको सदमा पहुंचता  तो यह झटके आपके जीवन भर याद रहते हैं।

बचपन की सबसे पहली किताब कहानी की जो हमारे घर पर आई थी वह थी शिशु मैगजीन। छोटी-छोटी कहानी चुटकुले और कविताओं से भरी हुई । संपादक जी का भी एक पृष्ठ होता था और उसमें वह बच्चों से बहुत प्यार से बातें किया करते थे। बचपन में मुझे संपादक जी की ऐसी कल्पना थी कि वह करीब 30 साल के युवक होंगे जो बहुत शांत स्वभाव के बहुत सुंदर और बच्चों से बहुत प्यारी प्यारी बात करने वाले होंगे।

शायद मैं 6 साल का था जब इलाहाबाद जाने का मौका मिला था।  पिताजी को शायद कोई समारोह में शामिल होना था रिश्तेदार के । 

जब सब काम निपट गया और समय बचा हुआ था तब मुझे उत्सुकता हुई कि शिशु पत्रिका के संपादक जी से मिला जाए। मेरे पिताजी और अन्य लोगों ने मेरी बात मान ली और हम लोग शिशु के संपादक के कार्यालय पहुंच गए।

जब संपादक जी के कमरे में पहुंचे तो देखा वहां एक मोटी सफेद मूंछ वाला  बड़ा व्यक्ति बैठा हुआ है जो कुछ चिड़चिड़ा स्वभाव का है जब हमारे साथ के लोगों ने बताया कि यह बच्चा आपका बहुत बड़े फैन हैं और आपके दर्शन करने आया हैं तो संपादक जी ने कुछ ज्यादा ध्यान नहीं दिया और मुझसे तो बात ही नहीं की। इस घटना से मन को इतनी ठेस पहुंची और यह कल्पना के इतने विपरीत था कि यह घटना मुझे अभी तक याद है।

एक और घटना याद है । जब मैं 10 साल का था और मेरी बड़ी बहन 12 साल की थी हम लोग नैनीताल गए हुए थे और हमारा साथ दे रही थी हमारी मौसी की लड़की जो मुझसे काफी बड़ी करीब 22 साल की थी उन दिनों तक हमने कभी तंदूरी रोटी का नाम नहीं सुना था ना देखा था।  घर पर रोटी चावल वगैरह खाते थे । ना तो दक्षिणी भारतीय दोसा और ना पंजाब की तंदूरी से कभी पाला पड़ा था।

तो एक दिन हम लोगों ने यह सोचा कि क्यों ना आज पता करें कि तंदूरी किस टाइप की रोटी होती है और उसे खाया जाए। हमारी कल्पना में तंदूरी रोटी आलू के पराठे या कचोरी जैसी कोई स्वादिष्ट चीज होगी। एक दिन हमारी मासी की लड़की हमें लेकर एक रेस्टोरेंट में पहुंची हम लोग बैठे, बैरा आया और मौसी की लड़की ने आर्डर दे डाला

"तीन तंदूरी रोटी"

"सब्जी क्या होगी"  बैरा बोला

"और कुछ नहीं चाहिए" मौसी की लड़की बोली

दो  मिनट के बाद बैरा एक प्लेट में तीन लक्कड़ जैसी सूखी रोटियां ले आया और हमारे सामने रख दी। अपने सामने तीन सूखी रोटियां देख कर हमें जो झटका लगा वह अभी तक याद है।

बचपन में कुछ दिन कॉन्वेंट स्कूल में दाखिला हुआ जब मैं तीन-चार साल का था।  पर जल्दी ही वहां से निकाल दिया गया क्योंकि मुझे हूफिंग कफ हो गया था जो बच्चों में फैल सकता था। उसके बाद कुछ साल तक घर पर ही मास्टर साहब आ कर पढ़ाते रहे। अच्छे स्वभाव के थे और कहा करते थे की मां और गुरु का स्थान बहुत ऊंचा होता है। यह दोनों बच्चों को सही मार्ग दिखाते हैं और  आदर्श स्वभाव के होते हैं।

कुछ समय बाद मेरा दाखिला सीधे छठे क्लास में एक गवर्नमेंट हाई स्कूल में हो गया और मैं पहले दिन जाकर क्लास पर बैठा। मैं सबसे आगे की बेंच पर बैठा हुआ था। मास्टर साहब पढ़ा रहे थे और पीछे किसी लड़के ने कोई ऐसा मजाक किया की क्लास के सब लड़के जोर-जोर से हंसने लगे। मैं भी पीछे की तरफ देखकर हंस रहा था कि इतनी देर में पीछे गर्दन और सर के पास एक झंन्नाटेदार झापड़ पड़ा और मुझे सितारे दिखने लगे। यह झापड़ हमारे गुरु जी ने मारा क्योंकि उन दिनों हर स्कूल में बच्चों की खूब पिटाई होती थी। मुझे आज तक उनके घूरते हुए चेहरे और गुस्से से भरी आंखें याद है।

गुरु की ऐसी कल्पना मेरे दिमाग पर कभी नहीं थी और मुझे इतना तगड़ा झटका लगा कि क्लास खत्म होने के बाद मैं अगले क्लास में नहीं गया और सीधे घर को रवाना हो गया। फिर घर के लोगों के जोर देने के बावजूद भी मैं उस स्कूल में नहीं गया। पिताजी के दोस्त के एक प्राइवेट स्कूल में मेरा दाखिला करा दिया गया।

इस नए स्कूल में मुझे कभी भी मार नहीं पड़ी हालांकि मैंने वहां से हाई स्कूल पास किया था। पर वहां की एक घटना से मुझे काफी झटका लगा था।  मेरे साथ कुछ नहीं हुआ था। हुआ ऐसा की मेरी  सातवीं क्लास में  एक शरारती मजबूत पंजाबी लड़का था जिसके घर का वातावरण शायद ऐसा था कि वहां गाली गलौज काफी होता होगा और उसकी जुबान पर हर समय मां बहन की गलियां होती थी। 

तो हुआ ऐसा कि हमारे प्रिंसिपल साहब अंग्रेजी विषय पर कुछ पढ़ा रहे थे । पीछे से उस लड़के ने किसी बात पर अपने बगल के बैठे लड़के को मां-बहन की गाली दे डाली।  प्रिंसिपल साहब ने यह सुन लिया । उन्होंने मेज पर रखी हुई छड़ी उठाई और पीछे जाकर उस पंजाबी लड़के को छड़ी से मारना शुरू किया और तब तक मारते रहे जब तक छड़ी टूट कर दो टुकड़े नहीं हो गई। लड़के को मार पड़ रही थी और वह चुपचाप सह रहा था पर मैं कांप पर रहा था क्योंकि ऐसा दृश्य मैंने कभी नहीं देखा था । मुझे आज भी उस लड़के की शक्ल याद है ।

बचपन में मनुष्य का दिमाग बहुत संवेदनाशील होता है। झटके तो जीवन में कई बार लगाते हैं पर बचपन के झटके सबसे ज्यादा याद रहते हैं।

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Tuesday 5 September 2023

गायब

गायब 

समय बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है और बहुत सी पुरानी उपयोग की वस्तुएं हमसे छूट जा रही है। बहुत से ऐसे दृश्य हैं जब दिखाई नहीं देते ।

चलिए देखते हैं कि क्या गायब हो गया।

एक जमाने में भारत की आजादी से पहले की बात है जब टाइपराइटर  कम होते थे और जब दफ्तर में लिखा पड़ी का काम काफी ज्यादा । उस जमाने में अगर किसी चिट्ठी की कॉपी बनानी होती थी जैसा कि दफ्तर में होता है तो दो कागज के बीच में एक कार्बन के पेपर रखकर उस पर हाथ से लिखा जाता था तो नीचे वाले कागज में भी कार्बन की वजह से उसी की कॉपी निकाल आई थी। ज्यादा कार्बन लगाकर ज्यादी कॉपी निकाल सकते थे पर उससै पेंसिल टूटने का डर रहता था क्योंकि कुछ दबा कर लिखना होता था । तो उसके लिए एक खास पेंसिल  होती थी जिसका नाम था कॉपीइंग पेंसिल। यह कॉपीइंग पेंसिल और कार्बन पेपर दोनों गायब हो चुके हैं। अब तो पुराने जमाने वाले टाइपराइटर भी गायब हो चुके हैं।

अब आप दफ्तर से बाहर सड़क पर आते थे तो कहीं दूर पर पुराने जमाने में टेलीफोन बूथ दिखाई देता था लाल रंग का या काले रंग का। उस ज़माने के लैंडलाइन वाले फोन भी बहुत कम लोगों के पास थे तो जनता के इस्तेमाल के लिए यह टेलीफोन बूथ रखे गए थे। अब आपको यह टेलीफोन बूथ कहीं नहीं दिखाई देंगे

यही हाल तीन बैंड वाले उन रेडियो सेट का है जिसमें  शॉर्ट वेव और मीडियम वेव के मीटर बैंड होते थे जिससे देश की और पूरे संसार की खबरें और अन्य प्रोग्राम सुने जा सकते थे। यह रेडियो भी गायब हो चुके हैं और इसके बाद आने वाले ट्रांजिस्टर रेडियो भी गायब हो चुके हैं।

गायब तो बहुत ही चीज हो चुकी है । आपको याद होगा एक जमाने में वीडियो और ऑडियो कैसेट हुआ करते थे जिनको  आप देख सकते थे सुन सकते थे ऑडियो वीडियो कैसेट भी गायब हो चुके हैं।

और पुरानी बात करें तो एक जमाने में ग्रामाफोन हुआ करता था गाना सुनने के लिए । एक छोटे से बक्से में एक घूमता हुआ तवा होता था जिसके बीच में एक कील होती थी।एक काले रंग का रिकॉर्ड होता था जिसके बीच में भी छेद होता था ग्रामाफोन में रिकॉर्ड को फिट करके तवे के ऊपर बिठाया जाता था और फिर  चाबी भर कर घूमते हुए तवे पर लोग गाना सुनते थे। 

 अब तो आपको ना कहीं यह रिकॉर्ड दिखाई देगा  और नहीं ग्रामाफोन। उसी के साथ उस जमाने के रेडियोग्राम भी गायब हो चुके हैं।

मैं स्कूल में पढ़ता था तो स्कूल में बिजली नहीं थी। कमरे बड़े-बड़े थे और बड़ी-बड़ी ऊंची खिड़की होती थी। इसकी वजह से अंदर काफी रोशनी रहती थी। गर्मियों में बिजली के पंख तो थे नहीं। उस जमाने में मोटे कपड़े के करीब 8 फुट लंबे और 2 फीट चौड़े टांट के पंखे छत से लटके रहते थे और उसमें एक रस्सी बाहर बरामदे को जाती थी जिसे छोटे-छोटे लड़के खींचते और छोड़ते  थे। इससे टांट  तेजी से हिलता था और हवा आती थी कमरे में।

हमारे बचपन में एक और दृष्य ऐसा था जो अब नहीं दिखाई देता। उसे जमाने में बहुत कम कार में सेल्फ स्टार्टर होता था यानी अंदर बैठकर इंजन चालू नहीं कर सकते थे ड्राइवर। मोटर के आगे के हिस्से में एक जिग जैग आकार का लोहे को रौड  डाला जाता था और हैंडल घुमाया जाता था इससे गाड़ी स्टार्ट होती है।

एक और चीज आजकल दिखाई नहीं देती है। पुराने जमाने में घर के अंदर घड़ी - चाहे दीवाल की हो या मेज की हो या हाथ में पहनने वाली हो - उसमें चाबी भरनी पड़ती थी और उससे वह घड़ी अगले 24 घंटे के लिए चालू रहती थी।  अगर घड़ी में चाबी देना भूल गए तो सुबह घड़ी बंद मिलती थी।  अब वैसी घड़ियां गायब हो चुकी है इसलिए किसी को यह भी पता नहीं है की चाबी भरना क्या होता था ।

चीजें तो और भी कई गायब हो चुकी है जैसे मिट्टी के चूल्हे, petromax  स्टोव, धुआं निकालने वाली चिमनी वाले मकान, एक्के की सवारी वगैरह। पर यह सब बात फिर कभी।

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अमरनाथ झा छात्रावास इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की कुछ यादें



इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अमरनाथ झा हॉस्टल में रहकर मैंने बी ए पास किया। बहुत पुराने जमाने का मजबूत पत्थरों का बना हुआ हॉस्टल था जिसमें आधुनिक सुविधाओं की कमी थी जैसे की किसी कमरे में भी सीलिंग फैन नहीं था। पर इमारत की अपनी शान थी।

 पहले साल  ऊपर की मंजिल के बीच में क्यूबिकल्स में जगह मिली थी। 65 B कमरे में।

मेरे कमरे में दो और लोग रहते थे जिनमें से एक का नाम था सुब्रत टैगोर जिनके पिताजी शायद मुगलसराय में अध्यापक थे। दूसरे सज्जन का नाम था विनोद कुमार आनंद जो बाद में इसी हॉस्टल के सुपरीटेंडेंट भी रहे और इकोनॉमिक्स विभाग के प्रोफेसर भी। बाद में यूनिवर्सिटी के पास बंड रोड में उन्होंने मकान बनवाया।

क्यूबिकल्स एक चिड़ियाघर टाइप का था जिसमें बहुत से विचित्र जीव रहते थे । एक कमरे में अरुण कुमार सिग्नल थे जिनके पिताजी का बरेली सिनेमा हॉल था। उनके चेहरे का कट कुछ इस तरह का था कि लोगों ने उनका नाम मेमना रख दिया था। एक और व्यक्ति थे अरुण कुमार चंद्रा। बिल्कुल आबनूसी चेहरा और चमकते हुए सफेद दांत।  एक और व्यक्ति थे नरेंद्र स्वरूप भटनागर जो बाद में नेवी में चले गए और जिनका यूनिवर्सिटी के केमिस्ट्री डिपार्टमेंट  के एक प्रोफेसर की लड़की से, जिसका नाम पुष्पा जुत्सी था, इश्क का चक्कर चल रहा था। क्यूबिकल्स में एक और सज्जन रहते थे सुरेन्द्र प्रताप सिंह जो मेरे मित्र थे  बाद में  वह इंडियन पुलिस सर्विस में आ गए थे और जयपुर में जिनका मकान है।

मेरे कमरे के ठीक सामने के क्यूबिकल्स में  तीन लोग रहते थे । इनमे दो भाई थे राम अवतार गोयल और कैलाश चंद्र गोयल जो मेरठ से आए थे और शायद किसी बिजनेसमैन के लड़के थे। उनके कमरे में 10 किलो वाले टीन के कनिस्टर पर में लड्डू और मठरियां भरी हुई रहती थी।
 
जब क्यूबिकल्स में अंदर आते थे  तो दाहिने तरफ पहला कैमरा लाइब्रेरी था और उसके ठीक सामने के कमरे में तीन लोग रहते थे जिसमें दो के नाम मुझे याद है । एक थे महाराज कुमार टंडन और दूसरे कोई गुप्ता जी थे भारी अगर कम शरीर वाले अटल बिहारी वाजपेई टाइप। उनका हाथ देखकर किसी ने बताया था कि वह 90 साल से ज्यादा उम्र तक जीवित रहेंगे तो शायद वह अभी जीवित हों।

ऊपर क्यूबिकल्स के बाहर  जो बरामदा था ऊपर की मंजिल में वहां पर क्यूबिकल्स वाले अपने बाल कटवाया करते थे एक कायन नाम के नाई से ।वह काफी दिलचस्प किस्म का आदमी था।  कहता था कि मैंने बड़े-बड़े नेताओं के बाल काट रखे हैं, जवाहरलाल नेहरू वगैरह। उसके नाम के ही शीर्षक का उसके बारे में एक लेख भी कदंबिनी मैगजीन में छप चुका था हॉस्टल के किसी लड़के की तरफ से।

हमारे हॉस्टल में एक विचित्र प्रथा थी जो शायद किसी और हॉस्टल में ना हो।  8:00 बजे रात को सब लोगों को अपनी अटेंडेंस देनी होती थी । हॉस्टल के हर ब्लॉक में एक प्रिंटेड कगज लटका दिया जाता था जिसमें हर कमरे का नंबर लिखा रहता था और अपने नंबर के सामने आपको दस्तखत करने होते थे। 9:00 बजे के बाद वह कागज हॉस्टल सुपरीटेंडेंट को भेज दिया जाता था।

 इसके बावजूद भी हाजिरी लगाने के बाद ज्यादातर लड़के रात के 9:30 से 12:30 के शो में सिनेमा देखने के लिए जाया करते थे क्योंकि उस समय के शो का टिकट मिलना बहुत आसान रहता था।

तभी का एक वाकया याद है ।चौबे जी नाम के 5 फुट के एक विद्यार्थी एक बार पिक्चर देखकर 12:30 बजे लौटे रात के और क्यों के हॉस्टल का लोहे का बड़ा फाटक बंद कर दिया गया था तो जैसा कि  सभी करते थे गेट के ऊपर चढ़कर  ऊपर से नीचे कूदना होता था ।

तो हुआ ऐसा कि चौबे जी ऊपर तो चढ़ गए लेकिन जब कूदने लगे तो उनके पैंट का नीचे का हिस्सा फाटक के नोकीले लोहे में फंस कर फटा  और वह मुंह के बल नीचे गिरे और चौकीदार ने उन्हें पकड़ लिया। याद नहीं है कि उसके बाद क्या हुआ।

कौमन हॉल के ठीक बाहर नीचे एक कोने में एक मोची हमेशा बैठा रहता था जो हॉस्टल के लड़कों के जूते में पॉलिश करता था और जूते की सिलाई खुल जाने पर सिलाई किया करता था। उसके बारे में यह कहा जाता है कि वह पॉलिश करते समय जूते की सिलाई को कहीं से काट देता था ताकि दो-चार दिन बाद सिलाई के लिए जूता उसके पास आ जाए।

हॉस्टल में कई लड़कों के नाम रख दिए गए थे। जैसे एक लड़के को कबूतर कहते थे और वाकई उसे लड़के को देखकर कबूतर की याद आ जाती थी। एक लड़का था जिसके  नाक के नथुने बहुत फैले हुए और बड़े थे उसे लोग भैंस कहते थे । एक और लड़का था जिसको कहते थे आईसीबीएम क्योंकि वह 6 फुट 4 इंच लंबा था और बहुत ही पतला था। एक वर्मा साहब थे जिनका चेहरा कुछ अजीबोगरीब था उनका नाम रख रखा था बुलडॉग।

हमारा हॉस्टल शायद अकेला हॉस्टल था जिसमें बहुत रैगिंग होती थी नए लड़कों की । और पहले महीने में जुलाई के और शायद अगस्त के भी उन्हें जब भी कोई सीनियर दिखाई दिया तो उसे सेल्यूट करना होता था और सबसे ज्यादा सीनियर लोगों को तो फर्शी मारकर मूगलाई सलूट देना होता था।

यादें तो और भी है और फिर कभी बताएंगे।

लखनऊ यूनिवर्सिटी छात्रावास की यादें

यादें लखनऊ यूनिवर्सिटी हॉस्टल की

MA मैंने लखनऊ यूनिवर्सिटी से किया। गोमती के पार लखनऊ यूनिवर्सिटी एक बहुत बड़े कैंपस में फैली हुई है और उसकी शानदार इमारतें हैं।
 मैं नरेंद्र देव हॉस्टल में रहने लगा । यह बात 1960 की है और तब आचार्य नरेंद्र हॉस्टल नया नया बना था। शानदार तीन मंजिल बिल्डिंग थी।

 पहले साल मेरा कमरा नीचे वाली मंजिल में था और बगल में कोई सूर्य प्रकाश  रहते थे हरदोई के, जो एलएलबी कर रहे थे। पास ही के कमरे में भगवान प्रसाद वर्मा रहते थे जो इकोनॉमिक्स में एम ए कर रहे थे और जो बाद में इंडियन कस्टम सर्विस में आ गए। हॉस्टल के इकोनॉमिक्स ब्लॉक की तरफ वाले विंग में एक जैन साहब रहते थे जो एमएसडब्ल्यू कर रहे थे। काफी स्वस्थ शरीर के थे और उनके होंठ बिल्कुल काले थे।  इस हॉस्टल में रहकर एमएसडब्ल्यू करने वाला एक और लड़का था जिसका नाम था अग्रवाल।

 हॉस्टल के वार्डन मिश्रा जी थे । काफी डरपोक किस्म के आदमी जो हिस्ट्री डिपार्टमेंट में वेस्टर्न हिस्ट्री के प्रोफेसर थे।

हॉस्टल में एक कोहली भी रहते थे किसी पैसे वाले बाप के बेटे। शायद पिता  पुराने जमीदार रह चुके थे क्योंकि इस हॉस्टल में कोहली साहब के पिताजी की रखैल का बेटा भी पढ़ रहा था।  यह बात मुझे बताई थी कोहली साहब ने खुद ही मुझे।

भगवान प्रसाद वर्मा के अलावा वर्मा नाम का एक और लड़का था। नौजवान था 16, 17 साल का। बहुत स्वस्थ शरीर वाला। जिसका नाम था शिशुलेन्द्र वर्मा। छोटे वर्मा साहब को पास ही के मकान के एक प्रोफेसर साहब की लड़की से इश्क हो गया था जो उन्ही की उम्र की थी और जब मैं गर्मियों की छुट्टी के बाद  पार्ट 2 के लिए वापस आया तो पता चला कि गर्मियों में उनकी एक बिन ब्याहे संतान हो चुकी थी। खैर लड़की के बाप ने मामला रफा दफा करने के लिए लड़की की शादी छोटा वर्मा जी से कर दी ।

 बहुत बाद में एक दिन मैंने उन दोनों को मेफेयर सिनेमा के क्वालिटी रेस्टोरेंट से बाहर निकलते देखा जब शायद वह लड़की 16 17 साल की होगी।
हमारे हॉस्टल में एक सरकारी मेस था जहां सभी लोग खाना खाते थे और उसका मैनेजमेंट के लिए एक मैनेजर था। खाना बहुत ही थर्ड क्लास होता था और जाहिर है की काफी पैसों का घोटाला मैनेजर करता था। बीपी वर्मा उस्ताद आदमी था इस यूनिवर्सिटी लाइफ में भी और अपनी नौकरी के दौरान भी।  उसने किसी तरह उस मैनेजर को पटा लिया और उसके साथ अक्सर खाना खाया करता था बहुत बढ़िया क्वालिटी का उसके कमरे में।

हमारे हॉस्टल में  सिंगल सीटेट रूम ज्यादा थे और थोड़े से डबल और ट्रिपल सीटेट थे। एक ट्रिपल सीटेट रूम में एक दर्शन सिंह रहा करते थे जो  बॉडीबिल्डर थे और जिनको फिल्म लाइन में जाने का बड़ा तगड़ा शौक था। कई साल बाद पता चला कि वह मुंबई पहुंच चुके थ। सफलता तो नहीं मिली उन्हें पर एक दो फिल्मों में एक-दो मिनट के लिए दिखाई दिए थे फिर बाद में कहीं गायब हो गए।

हमारे हॉस्टल में एक पाठक जी भी थे जो फिल्मी गाने में बहुत इंटरेस्ट रखते थे।उन्हें की मदद से  हमारे पहले साल में अग्रवाल जो सोशल सेक्रेटरी भी थे और एमएसडब्ल्यू कर रहे थे उन्होंने हॉस्टल के लिए एक रेडियोग्राम खरीदा जिसमें एक साथ 10-10 रिकॉर्ड सुन जा सकते थे। उसके बाद तो हॉस्टल के कौमन रूम में जो पहले खाली पड़ा रहता था काफी लोग आने लगे फिल्मी गाने सुनने के लिए बार-बार।

 बहुत सालों बाद  पाठक जी से दुबारा मुलाकात हुई शायद मेरे बुआ जी के लड़के हिमांशु पांडे के कमरे में जो इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में थे। याद नहीं है की पाठक जी कहां नौकरी कर रहे थे।

एक और सज्जन हॉस्टल में  रहते थे  जिन्हें कैंसर हो गया था और जो बार-बार मुंबई में टाटा इंस्टिट्यूट में जाकर सर्जरी करवा रहे थे। नाम अभी याद नहीं आ रहा है। कुछ साल पहले पता चला था वह जीवित है। मतलब यह की वह 1960 में कैंसर  होने के बाद भी अगले 50 साल तक जीवित रहे।

 पार्ट 2 में आने पर मैं ऊपर तीसरी मंजिल पर चला गया ठीक उसी कमरे के ऊपर जहां मैं प्रथम वर्ष में नीचे रहता था। वहीं पास में किसी कमरे में एक बहुत सीधे-साधे उड़ीसा के विशंभर महापात्र रहते थे जिनसे अक्सर मुलाकात हो जाती थी। बड़े अच्छे स्वभाव के थे।

मेरे हॉस्टल में रहने के दौरान में लखनऊ में गोमती नदी का बंधा टूटा और पूरे शहर में बाढ़ आ गई थी। हमारे हॉस्टल के लोन में भी पानी भर गया था।

यह सब बहुत पुरानी बातें हैं अब तो लखनऊ यूनिवर्सिटी तथा अन्य बहुत सी यूनिवर्सिटी में काफी अराजकता आ गई है।

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