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Tuesday 5 September 2023

अमरनाथ झा छात्रावास इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की कुछ यादें



इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अमरनाथ झा हॉस्टल में रहकर मैंने बी ए पास किया। बहुत पुराने जमाने का मजबूत पत्थरों का बना हुआ हॉस्टल था जिसमें आधुनिक सुविधाओं की कमी थी जैसे की किसी कमरे में भी सीलिंग फैन नहीं था। पर इमारत की अपनी शान थी।

 पहले साल  ऊपर की मंजिल के बीच में क्यूबिकल्स में जगह मिली थी। 65 B कमरे में।

मेरे कमरे में दो और लोग रहते थे जिनमें से एक का नाम था सुब्रत टैगोर जिनके पिताजी शायद मुगलसराय में अध्यापक थे। दूसरे सज्जन का नाम था विनोद कुमार आनंद जो बाद में इसी हॉस्टल के सुपरीटेंडेंट भी रहे और इकोनॉमिक्स विभाग के प्रोफेसर भी। बाद में यूनिवर्सिटी के पास बंड रोड में उन्होंने मकान बनवाया।

क्यूबिकल्स एक चिड़ियाघर टाइप का था जिसमें बहुत से विचित्र जीव रहते थे । एक कमरे में अरुण कुमार सिग्नल थे जिनके पिताजी का बरेली सिनेमा हॉल था। उनके चेहरे का कट कुछ इस तरह का था कि लोगों ने उनका नाम मेमना रख दिया था। एक और व्यक्ति थे अरुण कुमार चंद्रा। बिल्कुल आबनूसी चेहरा और चमकते हुए सफेद दांत।  एक और व्यक्ति थे नरेंद्र स्वरूप भटनागर जो बाद में नेवी में चले गए और जिनका यूनिवर्सिटी के केमिस्ट्री डिपार्टमेंट  के एक प्रोफेसर की लड़की से, जिसका नाम पुष्पा जुत्सी था, इश्क का चक्कर चल रहा था। क्यूबिकल्स में एक और सज्जन रहते थे सुरेन्द्र प्रताप सिंह जो मेरे मित्र थे  बाद में  वह इंडियन पुलिस सर्विस में आ गए थे और जयपुर में जिनका मकान है।

मेरे कमरे के ठीक सामने के क्यूबिकल्स में  तीन लोग रहते थे । इनमे दो भाई थे राम अवतार गोयल और कैलाश चंद्र गोयल जो मेरठ से आए थे और शायद किसी बिजनेसमैन के लड़के थे। उनके कमरे में 10 किलो वाले टीन के कनिस्टर पर में लड्डू और मठरियां भरी हुई रहती थी।
 
जब क्यूबिकल्स में अंदर आते थे  तो दाहिने तरफ पहला कैमरा लाइब्रेरी था और उसके ठीक सामने के कमरे में तीन लोग रहते थे जिसमें दो के नाम मुझे याद है । एक थे महाराज कुमार टंडन और दूसरे कोई गुप्ता जी थे भारी अगर कम शरीर वाले अटल बिहारी वाजपेई टाइप। उनका हाथ देखकर किसी ने बताया था कि वह 90 साल से ज्यादा उम्र तक जीवित रहेंगे तो शायद वह अभी जीवित हों।

ऊपर क्यूबिकल्स के बाहर  जो बरामदा था ऊपर की मंजिल में वहां पर क्यूबिकल्स वाले अपने बाल कटवाया करते थे एक कायन नाम के नाई से ।वह काफी दिलचस्प किस्म का आदमी था।  कहता था कि मैंने बड़े-बड़े नेताओं के बाल काट रखे हैं, जवाहरलाल नेहरू वगैरह। उसके नाम के ही शीर्षक का उसके बारे में एक लेख भी कदंबिनी मैगजीन में छप चुका था हॉस्टल के किसी लड़के की तरफ से।

हमारे हॉस्टल में एक विचित्र प्रथा थी जो शायद किसी और हॉस्टल में ना हो।  8:00 बजे रात को सब लोगों को अपनी अटेंडेंस देनी होती थी । हॉस्टल के हर ब्लॉक में एक प्रिंटेड कगज लटका दिया जाता था जिसमें हर कमरे का नंबर लिखा रहता था और अपने नंबर के सामने आपको दस्तखत करने होते थे। 9:00 बजे के बाद वह कागज हॉस्टल सुपरीटेंडेंट को भेज दिया जाता था।

 इसके बावजूद भी हाजिरी लगाने के बाद ज्यादातर लड़के रात के 9:30 से 12:30 के शो में सिनेमा देखने के लिए जाया करते थे क्योंकि उस समय के शो का टिकट मिलना बहुत आसान रहता था।

तभी का एक वाकया याद है ।चौबे जी नाम के 5 फुट के एक विद्यार्थी एक बार पिक्चर देखकर 12:30 बजे लौटे रात के और क्यों के हॉस्टल का लोहे का बड़ा फाटक बंद कर दिया गया था तो जैसा कि  सभी करते थे गेट के ऊपर चढ़कर  ऊपर से नीचे कूदना होता था ।

तो हुआ ऐसा कि चौबे जी ऊपर तो चढ़ गए लेकिन जब कूदने लगे तो उनके पैंट का नीचे का हिस्सा फाटक के नोकीले लोहे में फंस कर फटा  और वह मुंह के बल नीचे गिरे और चौकीदार ने उन्हें पकड़ लिया। याद नहीं है कि उसके बाद क्या हुआ।

कौमन हॉल के ठीक बाहर नीचे एक कोने में एक मोची हमेशा बैठा रहता था जो हॉस्टल के लड़कों के जूते में पॉलिश करता था और जूते की सिलाई खुल जाने पर सिलाई किया करता था। उसके बारे में यह कहा जाता है कि वह पॉलिश करते समय जूते की सिलाई को कहीं से काट देता था ताकि दो-चार दिन बाद सिलाई के लिए जूता उसके पास आ जाए।

हॉस्टल में कई लड़कों के नाम रख दिए गए थे। जैसे एक लड़के को कबूतर कहते थे और वाकई उसे लड़के को देखकर कबूतर की याद आ जाती थी। एक लड़का था जिसके  नाक के नथुने बहुत फैले हुए और बड़े थे उसे लोग भैंस कहते थे । एक और लड़का था जिसको कहते थे आईसीबीएम क्योंकि वह 6 फुट 4 इंच लंबा था और बहुत ही पतला था। एक वर्मा साहब थे जिनका चेहरा कुछ अजीबोगरीब था उनका नाम रख रखा था बुलडॉग।

हमारा हॉस्टल शायद अकेला हॉस्टल था जिसमें बहुत रैगिंग होती थी नए लड़कों की । और पहले महीने में जुलाई के और शायद अगस्त के भी उन्हें जब भी कोई सीनियर दिखाई दिया तो उसे सेल्यूट करना होता था और सबसे ज्यादा सीनियर लोगों को तो फर्शी मारकर मूगलाई सलूट देना होता था।

यादें तो और भी है और फिर कभी बताएंगे।

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