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Monday 25 December 2023

बदलता समय

एक लंबी उम्र के बाद जब मनुष्य पीछे मुड़कर देखा है तो उसे आश्चर्य होता है कि एक जमाना ऐसा भी होता था। चलिए आज इसी पर बात करते हैं

एक जमाने में रिक्शा नहीं होता था पैडिल वाला। ऑटो रिक्शा का तो सवाल ही नहीं उठता। तांगे और एक्के होते थे।  हमारे पिताजी की भी जब नई नौकरी लगी थी तो तांगे से ही ऑफिस जाते थे।
 यह 1940 के दशक के शुरू की बात है। तब ना तो टेलीविजन था ना हीं ट्रांजिस्टर रेडियो । मोबाइल का तो सवाल ही नहीं उठाता। इक्के दुक्के घरों में बड़े-बड़े रेडियो सेट हुआ करते थे।
तब कार भी शहर में दो-चार ही लोगों के पास होती थी। मोटरसाइकिल बड़ी मुश्किल से देखने को मिलती थी स्कूटर तो होते ही नही थे। 

आजकल रेडीमेड कपड़ों का जमाना है।
तब रेडीमेड कपड़े होते ही नहीं थे सिर्फ एक कंपनी जिसका नाम शायद सैमसन था कुछ रेडीमेड कपड़े बनाया करती थी। दर्जी बहुत होते थे एक ही सड़क पर बहुत से दर्जियों की दुकान होती थी।

 सब लोग कपड़ा खरीद कर सिलवाते थे। कमीज की सिलाई ₹1 पैंट की सिलाई ₹3 पैजामा की सिलाई 50 पैसे।

  उस जमाने में रुपए के खरीदने की शक्ति बहुत ज्यादा थी। ₹4 में 1 किलो शुद्ध घी आ जाता था और 1 किलो बादाम भी । बड़ी डबल रोटी चार आने की होती थी यानी 25 पैसे । पेट्रोल 10 आने लीटर था यानी 60 पैसे के आसपास।बासमती चावल सवा रुपए किलो। 

उसे जमाने में आबादी कम थी और ज्यादातर लोग गांव में रहते थे। शहर छोटे-छोटे होते थे और शहर के नए इलाकों  में , जहां सरकारी कर्मचारी रहते थे, मकान बहुत बड़े-बड़े होते थे। बड़े-बड़े का मतलब है मकान तो एक मंजिला ही होता था पर बहुत बड़े कंपाउंड में होता था। हमारा मकान भी बहुत ही बड़े कंपाउंड में था आगे बहुत बड़ा लौन, पीछे आंगन दीवारों से घिरा हुआ और बाकी दोनों तरफ भी जमीन। घर में है क्रिकेट का मैदान हो जाता था।

उसे जमाने में साइकिल बहुत चलती थी। हर आदमी के पास साइकिल होती थी जैसे आजकल ज्यादातर लोगों के पास स्कूटर या मोटरसाइकिल होती है। पिताजी के पास भी साइकिल थी जो उन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते वक्त खरीदी थी । नौकरी के दौरान भी काम आ रही थी। बहुत मजबूत साइकिल थी जो 1929 में 28 रुपए में खरीदी गई थी और इंग्लैंड से  आई थी। इस साइकिल पर मैंने साइकिल चलाना सीखा। शुरू शुरू में साइकिल के फ्रेम के बीच में से पैर डालकर कैंची साइकिल चलाता था जब छोटा था।दर्जनों और लोगों ने भी इस साइकिल में बैलेंस करना सीख।

उन दिनों खाने पीने की चीज जनरल मर्चेंट की दुकान में पैकेट में नहीं मिलती थी। खाने का सामान लेना हो तो हलवाई की दुकान पर जाओ या बेकरी की दुकान में जाओ। डबल रोटी भी हर दुकान में नहीं दिखाई देती थी जैसे आजकल होता है। डबल रोटी खरीदने के लिए आपको डबल रोटी की दुकान में ही जाना पड़ता था । वहीं पर डबल रोटी मक्खन केक पेस्ट्री इत्यादि मिलते थे जो खुले होते थे, पैकेट बंद नहीं होते थे। डबल रोटी भी बिना स्लाइस में कटी हुई मिलती थी जिसको घर में आकर हम चाकू से काटते थे।
1940 और 1950 के दशक में सोला हैट बहुत ही फैशन मे थी और दफ्तर में बड़े अफसर से लेकर छोटे बाबू तक सब अपनी हैसियत के हिसाब से अच्छी या सस्ती क्वालिटी की हैट में दिखाई देत थे।अगर आप 1947 के पहले की सरकारी फोटो देखे तो उसमें हर अंग्रेज अफसर 16 हेड पहने हुए नजर आता था जब बाहर धूप में होता था।

उसे जमाने में खसखस बहुत लोकप्रिय था यह एक प्रकार की घास होती है जिसके चटाइयां बनाकर खिड़की और दरवाजा में लटका दिया जाता था और जब लू चलती थी तब उसे पर पानी के छिड़काव से अंदर के कमरे में तेज गर्मी में भी ठंडक रहती थी। तब बिजली के पंखे से चलने वाले कूलर होते ही नहीं थे और AC का तो सवाल ही नहीं उठाता।

आजादी के बाद शुरू शुरू में ज्यादातर चीज बाहर से ही आयातित होती थी क्योंकि भारत में अंग्रेजों ने कोई भी इंडस्ट्री नहीं पनपना दी थी। मैं स्कूल में पढ़ता था 50 के दशक के शुरू में तो पीले रंग की पेंसिल भी आयात होती थी और दो आने की एक होती थी।  स्कूल में इस्तेमाल होने वाली कॉपी तीन आने की बढ़िया क्वालिटी की एलीफेंट छाप जो कोलकाता के टीटागढ़  के कागज से तैयार होती थी।

बातें तो और भी हैं पर फिर कभी ।

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Wednesday 6 September 2023

बचपन के झटके

आपको झटके तब लगते हैं जब आपकी कल्पना के विपरीत कोई बात हो जाती है और बचपन में अगर आपकी कल्पना के विपरीत कोई ऐसी बात हो जाती है जिससे आपको सदमा पहुंचता  तो यह झटके आपके जीवन भर याद रहते हैं।

बचपन की सबसे पहली किताब कहानी की जो हमारे घर पर आई थी वह थी शिशु मैगजीन। छोटी-छोटी कहानी चुटकुले और कविताओं से भरी हुई । संपादक जी का भी एक पृष्ठ होता था और उसमें वह बच्चों से बहुत प्यार से बातें किया करते थे। बचपन में मुझे संपादक जी की ऐसी कल्पना थी कि वह करीब 30 साल के युवक होंगे जो बहुत शांत स्वभाव के बहुत सुंदर और बच्चों से बहुत प्यारी प्यारी बात करने वाले होंगे।

शायद मैं 6 साल का था जब इलाहाबाद जाने का मौका मिला था।  पिताजी को शायद कोई समारोह में शामिल होना था रिश्तेदार के । 

जब सब काम निपट गया और समय बचा हुआ था तब मुझे उत्सुकता हुई कि शिशु पत्रिका के संपादक जी से मिला जाए। मेरे पिताजी और अन्य लोगों ने मेरी बात मान ली और हम लोग शिशु के संपादक के कार्यालय पहुंच गए।

जब संपादक जी के कमरे में पहुंचे तो देखा वहां एक मोटी सफेद मूंछ वाला  बड़ा व्यक्ति बैठा हुआ है जो कुछ चिड़चिड़ा स्वभाव का है जब हमारे साथ के लोगों ने बताया कि यह बच्चा आपका बहुत बड़े फैन हैं और आपके दर्शन करने आया हैं तो संपादक जी ने कुछ ज्यादा ध्यान नहीं दिया और मुझसे तो बात ही नहीं की। इस घटना से मन को इतनी ठेस पहुंची और यह कल्पना के इतने विपरीत था कि यह घटना मुझे अभी तक याद है।

एक और घटना याद है । जब मैं 10 साल का था और मेरी बड़ी बहन 12 साल की थी हम लोग नैनीताल गए हुए थे और हमारा साथ दे रही थी हमारी मौसी की लड़की जो मुझसे काफी बड़ी करीब 22 साल की थी उन दिनों तक हमने कभी तंदूरी रोटी का नाम नहीं सुना था ना देखा था।  घर पर रोटी चावल वगैरह खाते थे । ना तो दक्षिणी भारतीय दोसा और ना पंजाब की तंदूरी से कभी पाला पड़ा था।

तो एक दिन हम लोगों ने यह सोचा कि क्यों ना आज पता करें कि तंदूरी किस टाइप की रोटी होती है और उसे खाया जाए। हमारी कल्पना में तंदूरी रोटी आलू के पराठे या कचोरी जैसी कोई स्वादिष्ट चीज होगी। एक दिन हमारी मासी की लड़की हमें लेकर एक रेस्टोरेंट में पहुंची हम लोग बैठे, बैरा आया और मौसी की लड़की ने आर्डर दे डाला

"तीन तंदूरी रोटी"

"सब्जी क्या होगी"  बैरा बोला

"और कुछ नहीं चाहिए" मौसी की लड़की बोली

दो  मिनट के बाद बैरा एक प्लेट में तीन लक्कड़ जैसी सूखी रोटियां ले आया और हमारे सामने रख दी। अपने सामने तीन सूखी रोटियां देख कर हमें जो झटका लगा वह अभी तक याद है।

बचपन में कुछ दिन कॉन्वेंट स्कूल में दाखिला हुआ जब मैं तीन-चार साल का था।  पर जल्दी ही वहां से निकाल दिया गया क्योंकि मुझे हूफिंग कफ हो गया था जो बच्चों में फैल सकता था। उसके बाद कुछ साल तक घर पर ही मास्टर साहब आ कर पढ़ाते रहे। अच्छे स्वभाव के थे और कहा करते थे की मां और गुरु का स्थान बहुत ऊंचा होता है। यह दोनों बच्चों को सही मार्ग दिखाते हैं और  आदर्श स्वभाव के होते हैं।

कुछ समय बाद मेरा दाखिला सीधे छठे क्लास में एक गवर्नमेंट हाई स्कूल में हो गया और मैं पहले दिन जाकर क्लास पर बैठा। मैं सबसे आगे की बेंच पर बैठा हुआ था। मास्टर साहब पढ़ा रहे थे और पीछे किसी लड़के ने कोई ऐसा मजाक किया की क्लास के सब लड़के जोर-जोर से हंसने लगे। मैं भी पीछे की तरफ देखकर हंस रहा था कि इतनी देर में पीछे गर्दन और सर के पास एक झंन्नाटेदार झापड़ पड़ा और मुझे सितारे दिखने लगे। यह झापड़ हमारे गुरु जी ने मारा क्योंकि उन दिनों हर स्कूल में बच्चों की खूब पिटाई होती थी। मुझे आज तक उनके घूरते हुए चेहरे और गुस्से से भरी आंखें याद है।

गुरु की ऐसी कल्पना मेरे दिमाग पर कभी नहीं थी और मुझे इतना तगड़ा झटका लगा कि क्लास खत्म होने के बाद मैं अगले क्लास में नहीं गया और सीधे घर को रवाना हो गया। फिर घर के लोगों के जोर देने के बावजूद भी मैं उस स्कूल में नहीं गया। पिताजी के दोस्त के एक प्राइवेट स्कूल में मेरा दाखिला करा दिया गया।

इस नए स्कूल में मुझे कभी भी मार नहीं पड़ी हालांकि मैंने वहां से हाई स्कूल पास किया था। पर वहां की एक घटना से मुझे काफी झटका लगा था।  मेरे साथ कुछ नहीं हुआ था। हुआ ऐसा की मेरी  सातवीं क्लास में  एक शरारती मजबूत पंजाबी लड़का था जिसके घर का वातावरण शायद ऐसा था कि वहां गाली गलौज काफी होता होगा और उसकी जुबान पर हर समय मां बहन की गलियां होती थी। 

तो हुआ ऐसा कि हमारे प्रिंसिपल साहब अंग्रेजी विषय पर कुछ पढ़ा रहे थे । पीछे से उस लड़के ने किसी बात पर अपने बगल के बैठे लड़के को मां-बहन की गाली दे डाली।  प्रिंसिपल साहब ने यह सुन लिया । उन्होंने मेज पर रखी हुई छड़ी उठाई और पीछे जाकर उस पंजाबी लड़के को छड़ी से मारना शुरू किया और तब तक मारते रहे जब तक छड़ी टूट कर दो टुकड़े नहीं हो गई। लड़के को मार पड़ रही थी और वह चुपचाप सह रहा था पर मैं कांप पर रहा था क्योंकि ऐसा दृश्य मैंने कभी नहीं देखा था । मुझे आज भी उस लड़के की शक्ल याद है ।

बचपन में मनुष्य का दिमाग बहुत संवेदनाशील होता है। झटके तो जीवन में कई बार लगाते हैं पर बचपन के झटके सबसे ज्यादा याद रहते हैं।

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Tuesday 5 September 2023

गायब

गायब 

समय बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है और बहुत सी पुरानी उपयोग की वस्तुएं हमसे छूट जा रही है। बहुत से ऐसे दृश्य हैं जब दिखाई नहीं देते ।

चलिए देखते हैं कि क्या गायब हो गया।

एक जमाने में भारत की आजादी से पहले की बात है जब टाइपराइटर  कम होते थे और जब दफ्तर में लिखा पड़ी का काम काफी ज्यादा । उस जमाने में अगर किसी चिट्ठी की कॉपी बनानी होती थी जैसा कि दफ्तर में होता है तो दो कागज के बीच में एक कार्बन के पेपर रखकर उस पर हाथ से लिखा जाता था तो नीचे वाले कागज में भी कार्बन की वजह से उसी की कॉपी निकाल आई थी। ज्यादा कार्बन लगाकर ज्यादी कॉपी निकाल सकते थे पर उससै पेंसिल टूटने का डर रहता था क्योंकि कुछ दबा कर लिखना होता था । तो उसके लिए एक खास पेंसिल  होती थी जिसका नाम था कॉपीइंग पेंसिल। यह कॉपीइंग पेंसिल और कार्बन पेपर दोनों गायब हो चुके हैं। अब तो पुराने जमाने वाले टाइपराइटर भी गायब हो चुके हैं।

अब आप दफ्तर से बाहर सड़क पर आते थे तो कहीं दूर पर पुराने जमाने में टेलीफोन बूथ दिखाई देता था लाल रंग का या काले रंग का। उस ज़माने के लैंडलाइन वाले फोन भी बहुत कम लोगों के पास थे तो जनता के इस्तेमाल के लिए यह टेलीफोन बूथ रखे गए थे। अब आपको यह टेलीफोन बूथ कहीं नहीं दिखाई देंगे

यही हाल तीन बैंड वाले उन रेडियो सेट का है जिसमें  शॉर्ट वेव और मीडियम वेव के मीटर बैंड होते थे जिससे देश की और पूरे संसार की खबरें और अन्य प्रोग्राम सुने जा सकते थे। यह रेडियो भी गायब हो चुके हैं और इसके बाद आने वाले ट्रांजिस्टर रेडियो भी गायब हो चुके हैं।

गायब तो बहुत ही चीज हो चुकी है । आपको याद होगा एक जमाने में वीडियो और ऑडियो कैसेट हुआ करते थे जिनको  आप देख सकते थे सुन सकते थे ऑडियो वीडियो कैसेट भी गायब हो चुके हैं।

और पुरानी बात करें तो एक जमाने में ग्रामाफोन हुआ करता था गाना सुनने के लिए । एक छोटे से बक्से में एक घूमता हुआ तवा होता था जिसके बीच में एक कील होती थी।एक काले रंग का रिकॉर्ड होता था जिसके बीच में भी छेद होता था ग्रामाफोन में रिकॉर्ड को फिट करके तवे के ऊपर बिठाया जाता था और फिर  चाबी भर कर घूमते हुए तवे पर लोग गाना सुनते थे। 

 अब तो आपको ना कहीं यह रिकॉर्ड दिखाई देगा  और नहीं ग्रामाफोन। उसी के साथ उस जमाने के रेडियोग्राम भी गायब हो चुके हैं।

मैं स्कूल में पढ़ता था तो स्कूल में बिजली नहीं थी। कमरे बड़े-बड़े थे और बड़ी-बड़ी ऊंची खिड़की होती थी। इसकी वजह से अंदर काफी रोशनी रहती थी। गर्मियों में बिजली के पंख तो थे नहीं। उस जमाने में मोटे कपड़े के करीब 8 फुट लंबे और 2 फीट चौड़े टांट के पंखे छत से लटके रहते थे और उसमें एक रस्सी बाहर बरामदे को जाती थी जिसे छोटे-छोटे लड़के खींचते और छोड़ते  थे। इससे टांट  तेजी से हिलता था और हवा आती थी कमरे में।

हमारे बचपन में एक और दृष्य ऐसा था जो अब नहीं दिखाई देता। उसे जमाने में बहुत कम कार में सेल्फ स्टार्टर होता था यानी अंदर बैठकर इंजन चालू नहीं कर सकते थे ड्राइवर। मोटर के आगे के हिस्से में एक जिग जैग आकार का लोहे को रौड  डाला जाता था और हैंडल घुमाया जाता था इससे गाड़ी स्टार्ट होती है।

एक और चीज आजकल दिखाई नहीं देती है। पुराने जमाने में घर के अंदर घड़ी - चाहे दीवाल की हो या मेज की हो या हाथ में पहनने वाली हो - उसमें चाबी भरनी पड़ती थी और उससे वह घड़ी अगले 24 घंटे के लिए चालू रहती थी।  अगर घड़ी में चाबी देना भूल गए तो सुबह घड़ी बंद मिलती थी।  अब वैसी घड़ियां गायब हो चुकी है इसलिए किसी को यह भी पता नहीं है की चाबी भरना क्या होता था ।

चीजें तो और भी कई गायब हो चुकी है जैसे मिट्टी के चूल्हे, petromax  स्टोव, धुआं निकालने वाली चिमनी वाले मकान, एक्के की सवारी वगैरह। पर यह सब बात फिर कभी।

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अमरनाथ झा छात्रावास इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की कुछ यादें



इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अमरनाथ झा हॉस्टल में रहकर मैंने बी ए पास किया। बहुत पुराने जमाने का मजबूत पत्थरों का बना हुआ हॉस्टल था जिसमें आधुनिक सुविधाओं की कमी थी जैसे की किसी कमरे में भी सीलिंग फैन नहीं था। पर इमारत की अपनी शान थी।

 पहले साल  ऊपर की मंजिल के बीच में क्यूबिकल्स में जगह मिली थी। 65 B कमरे में।

मेरे कमरे में दो और लोग रहते थे जिनमें से एक का नाम था सुब्रत टैगोर जिनके पिताजी शायद मुगलसराय में अध्यापक थे। दूसरे सज्जन का नाम था विनोद कुमार आनंद जो बाद में इसी हॉस्टल के सुपरीटेंडेंट भी रहे और इकोनॉमिक्स विभाग के प्रोफेसर भी। बाद में यूनिवर्सिटी के पास बंड रोड में उन्होंने मकान बनवाया।

क्यूबिकल्स एक चिड़ियाघर टाइप का था जिसमें बहुत से विचित्र जीव रहते थे । एक कमरे में अरुण कुमार सिग्नल थे जिनके पिताजी का बरेली सिनेमा हॉल था। उनके चेहरे का कट कुछ इस तरह का था कि लोगों ने उनका नाम मेमना रख दिया था। एक और व्यक्ति थे अरुण कुमार चंद्रा। बिल्कुल आबनूसी चेहरा और चमकते हुए सफेद दांत।  एक और व्यक्ति थे नरेंद्र स्वरूप भटनागर जो बाद में नेवी में चले गए और जिनका यूनिवर्सिटी के केमिस्ट्री डिपार्टमेंट  के एक प्रोफेसर की लड़की से, जिसका नाम पुष्पा जुत्सी था, इश्क का चक्कर चल रहा था। क्यूबिकल्स में एक और सज्जन रहते थे सुरेन्द्र प्रताप सिंह जो मेरे मित्र थे  बाद में  वह इंडियन पुलिस सर्विस में आ गए थे और जयपुर में जिनका मकान है।

मेरे कमरे के ठीक सामने के क्यूबिकल्स में  तीन लोग रहते थे । इनमे दो भाई थे राम अवतार गोयल और कैलाश चंद्र गोयल जो मेरठ से आए थे और शायद किसी बिजनेसमैन के लड़के थे। उनके कमरे में 10 किलो वाले टीन के कनिस्टर पर में लड्डू और मठरियां भरी हुई रहती थी।
 
जब क्यूबिकल्स में अंदर आते थे  तो दाहिने तरफ पहला कैमरा लाइब्रेरी था और उसके ठीक सामने के कमरे में तीन लोग रहते थे जिसमें दो के नाम मुझे याद है । एक थे महाराज कुमार टंडन और दूसरे कोई गुप्ता जी थे भारी अगर कम शरीर वाले अटल बिहारी वाजपेई टाइप। उनका हाथ देखकर किसी ने बताया था कि वह 90 साल से ज्यादा उम्र तक जीवित रहेंगे तो शायद वह अभी जीवित हों।

ऊपर क्यूबिकल्स के बाहर  जो बरामदा था ऊपर की मंजिल में वहां पर क्यूबिकल्स वाले अपने बाल कटवाया करते थे एक कायन नाम के नाई से ।वह काफी दिलचस्प किस्म का आदमी था।  कहता था कि मैंने बड़े-बड़े नेताओं के बाल काट रखे हैं, जवाहरलाल नेहरू वगैरह। उसके नाम के ही शीर्षक का उसके बारे में एक लेख भी कदंबिनी मैगजीन में छप चुका था हॉस्टल के किसी लड़के की तरफ से।

हमारे हॉस्टल में एक विचित्र प्रथा थी जो शायद किसी और हॉस्टल में ना हो।  8:00 बजे रात को सब लोगों को अपनी अटेंडेंस देनी होती थी । हॉस्टल के हर ब्लॉक में एक प्रिंटेड कगज लटका दिया जाता था जिसमें हर कमरे का नंबर लिखा रहता था और अपने नंबर के सामने आपको दस्तखत करने होते थे। 9:00 बजे के बाद वह कागज हॉस्टल सुपरीटेंडेंट को भेज दिया जाता था।

 इसके बावजूद भी हाजिरी लगाने के बाद ज्यादातर लड़के रात के 9:30 से 12:30 के शो में सिनेमा देखने के लिए जाया करते थे क्योंकि उस समय के शो का टिकट मिलना बहुत आसान रहता था।

तभी का एक वाकया याद है ।चौबे जी नाम के 5 फुट के एक विद्यार्थी एक बार पिक्चर देखकर 12:30 बजे लौटे रात के और क्यों के हॉस्टल का लोहे का बड़ा फाटक बंद कर दिया गया था तो जैसा कि  सभी करते थे गेट के ऊपर चढ़कर  ऊपर से नीचे कूदना होता था ।

तो हुआ ऐसा कि चौबे जी ऊपर तो चढ़ गए लेकिन जब कूदने लगे तो उनके पैंट का नीचे का हिस्सा फाटक के नोकीले लोहे में फंस कर फटा  और वह मुंह के बल नीचे गिरे और चौकीदार ने उन्हें पकड़ लिया। याद नहीं है कि उसके बाद क्या हुआ।

कौमन हॉल के ठीक बाहर नीचे एक कोने में एक मोची हमेशा बैठा रहता था जो हॉस्टल के लड़कों के जूते में पॉलिश करता था और जूते की सिलाई खुल जाने पर सिलाई किया करता था। उसके बारे में यह कहा जाता है कि वह पॉलिश करते समय जूते की सिलाई को कहीं से काट देता था ताकि दो-चार दिन बाद सिलाई के लिए जूता उसके पास आ जाए।

हॉस्टल में कई लड़कों के नाम रख दिए गए थे। जैसे एक लड़के को कबूतर कहते थे और वाकई उसे लड़के को देखकर कबूतर की याद आ जाती थी। एक लड़का था जिसके  नाक के नथुने बहुत फैले हुए और बड़े थे उसे लोग भैंस कहते थे । एक और लड़का था जिसको कहते थे आईसीबीएम क्योंकि वह 6 फुट 4 इंच लंबा था और बहुत ही पतला था। एक वर्मा साहब थे जिनका चेहरा कुछ अजीबोगरीब था उनका नाम रख रखा था बुलडॉग।

हमारा हॉस्टल शायद अकेला हॉस्टल था जिसमें बहुत रैगिंग होती थी नए लड़कों की । और पहले महीने में जुलाई के और शायद अगस्त के भी उन्हें जब भी कोई सीनियर दिखाई दिया तो उसे सेल्यूट करना होता था और सबसे ज्यादा सीनियर लोगों को तो फर्शी मारकर मूगलाई सलूट देना होता था।

यादें तो और भी है और फिर कभी बताएंगे।

लखनऊ यूनिवर्सिटी छात्रावास की यादें

यादें लखनऊ यूनिवर्सिटी हॉस्टल की

MA मैंने लखनऊ यूनिवर्सिटी से किया। गोमती के पार लखनऊ यूनिवर्सिटी एक बहुत बड़े कैंपस में फैली हुई है और उसकी शानदार इमारतें हैं।
 मैं नरेंद्र देव हॉस्टल में रहने लगा । यह बात 1960 की है और तब आचार्य नरेंद्र हॉस्टल नया नया बना था। शानदार तीन मंजिल बिल्डिंग थी।

 पहले साल मेरा कमरा नीचे वाली मंजिल में था और बगल में कोई सूर्य प्रकाश  रहते थे हरदोई के, जो एलएलबी कर रहे थे। पास ही के कमरे में भगवान प्रसाद वर्मा रहते थे जो इकोनॉमिक्स में एम ए कर रहे थे और जो बाद में इंडियन कस्टम सर्विस में आ गए। हॉस्टल के इकोनॉमिक्स ब्लॉक की तरफ वाले विंग में एक जैन साहब रहते थे जो एमएसडब्ल्यू कर रहे थे। काफी स्वस्थ शरीर के थे और उनके होंठ बिल्कुल काले थे।  इस हॉस्टल में रहकर एमएसडब्ल्यू करने वाला एक और लड़का था जिसका नाम था अग्रवाल।

 हॉस्टल के वार्डन मिश्रा जी थे । काफी डरपोक किस्म के आदमी जो हिस्ट्री डिपार्टमेंट में वेस्टर्न हिस्ट्री के प्रोफेसर थे।

हॉस्टल में एक कोहली भी रहते थे किसी पैसे वाले बाप के बेटे। शायद पिता  पुराने जमीदार रह चुके थे क्योंकि इस हॉस्टल में कोहली साहब के पिताजी की रखैल का बेटा भी पढ़ रहा था।  यह बात मुझे बताई थी कोहली साहब ने खुद ही मुझे।

भगवान प्रसाद वर्मा के अलावा वर्मा नाम का एक और लड़का था। नौजवान था 16, 17 साल का। बहुत स्वस्थ शरीर वाला। जिसका नाम था शिशुलेन्द्र वर्मा। छोटे वर्मा साहब को पास ही के मकान के एक प्रोफेसर साहब की लड़की से इश्क हो गया था जो उन्ही की उम्र की थी और जब मैं गर्मियों की छुट्टी के बाद  पार्ट 2 के लिए वापस आया तो पता चला कि गर्मियों में उनकी एक बिन ब्याहे संतान हो चुकी थी। खैर लड़की के बाप ने मामला रफा दफा करने के लिए लड़की की शादी छोटा वर्मा जी से कर दी ।

 बहुत बाद में एक दिन मैंने उन दोनों को मेफेयर सिनेमा के क्वालिटी रेस्टोरेंट से बाहर निकलते देखा जब शायद वह लड़की 16 17 साल की होगी।
हमारे हॉस्टल में एक सरकारी मेस था जहां सभी लोग खाना खाते थे और उसका मैनेजमेंट के लिए एक मैनेजर था। खाना बहुत ही थर्ड क्लास होता था और जाहिर है की काफी पैसों का घोटाला मैनेजर करता था। बीपी वर्मा उस्ताद आदमी था इस यूनिवर्सिटी लाइफ में भी और अपनी नौकरी के दौरान भी।  उसने किसी तरह उस मैनेजर को पटा लिया और उसके साथ अक्सर खाना खाया करता था बहुत बढ़िया क्वालिटी का उसके कमरे में।

हमारे हॉस्टल में  सिंगल सीटेट रूम ज्यादा थे और थोड़े से डबल और ट्रिपल सीटेट थे। एक ट्रिपल सीटेट रूम में एक दर्शन सिंह रहा करते थे जो  बॉडीबिल्डर थे और जिनको फिल्म लाइन में जाने का बड़ा तगड़ा शौक था। कई साल बाद पता चला कि वह मुंबई पहुंच चुके थ। सफलता तो नहीं मिली उन्हें पर एक दो फिल्मों में एक-दो मिनट के लिए दिखाई दिए थे फिर बाद में कहीं गायब हो गए।

हमारे हॉस्टल में एक पाठक जी भी थे जो फिल्मी गाने में बहुत इंटरेस्ट रखते थे।उन्हें की मदद से  हमारे पहले साल में अग्रवाल जो सोशल सेक्रेटरी भी थे और एमएसडब्ल्यू कर रहे थे उन्होंने हॉस्टल के लिए एक रेडियोग्राम खरीदा जिसमें एक साथ 10-10 रिकॉर्ड सुन जा सकते थे। उसके बाद तो हॉस्टल के कौमन रूम में जो पहले खाली पड़ा रहता था काफी लोग आने लगे फिल्मी गाने सुनने के लिए बार-बार।

 बहुत सालों बाद  पाठक जी से दुबारा मुलाकात हुई शायद मेरे बुआ जी के लड़के हिमांशु पांडे के कमरे में जो इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में थे। याद नहीं है की पाठक जी कहां नौकरी कर रहे थे।

एक और सज्जन हॉस्टल में  रहते थे  जिन्हें कैंसर हो गया था और जो बार-बार मुंबई में टाटा इंस्टिट्यूट में जाकर सर्जरी करवा रहे थे। नाम अभी याद नहीं आ रहा है। कुछ साल पहले पता चला था वह जीवित है। मतलब यह की वह 1960 में कैंसर  होने के बाद भी अगले 50 साल तक जीवित रहे।

 पार्ट 2 में आने पर मैं ऊपर तीसरी मंजिल पर चला गया ठीक उसी कमरे के ऊपर जहां मैं प्रथम वर्ष में नीचे रहता था। वहीं पास में किसी कमरे में एक बहुत सीधे-साधे उड़ीसा के विशंभर महापात्र रहते थे जिनसे अक्सर मुलाकात हो जाती थी। बड़े अच्छे स्वभाव के थे।

मेरे हॉस्टल में रहने के दौरान में लखनऊ में गोमती नदी का बंधा टूटा और पूरे शहर में बाढ़ आ गई थी। हमारे हॉस्टल के लोन में भी पानी भर गया था।

यह सब बहुत पुरानी बातें हैं अब तो लखनऊ यूनिवर्सिटी तथा अन्य बहुत सी यूनिवर्सिटी में काफी अराजकता आ गई है।

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Thursday 8 June 2023

Hypertension and old age

In old age people generally die either in sleep or of heart attack early in the morning.

 The reason is that the whole game of blood pressure CHANGES  in old age.

Until old age blood pressure rises during the day and goes down when you are asleep.

In old age BP  may not go down during the sleep but may  start going up and be highest in the period after the midnight and early morning.

 The latest medical opinion is that in old age blood pressure medicine should be taken at bed time and NOT with the breakfast. (Google search for details)

2. It is always good to have life style changes and ayurvedic herbs for improvement in blood pressure. These are practices that will keep you healthy. If you are doing so in old age and not taking any blood pressure medicines, you should monitor your blood pressure early in the morning EVERY DAY.

 If your BP is more than 130/75
in early morning you are at risk of serious consequences in  sleep/early morning.

It is advisable to talk to your doctor if you are without blood pressure medicine in old age and have early morning blood pressure.  It is also advisable to bring to his notice the new research about the time of medication of blood pressure medicines for senior citizens.



Sunday 21 May 2023

पहली बार

 पहली बार

लोगों को किसी चीज का अनुभव जब पहली बार होता है तो उसे वह बात हमेशा याद रहती है। ऐसे ही मेरे साथ भी कई अनुभव हुए। 

खलखल जी हमारे बचपन के दिनों के  बहुत सज्जन पुरुष थे। बहुत चरित्रवान थे। करीब 22 साल की उम्र तक पहाड़ो में ही बिताया । ज्यादा समय अल्मोड़ा में  बिताया था वैसे गांव के रहने वाले थे।

तो जब मेरे पिताजी ने उनके लिए नौकरी ढूंढ निकाली गोरखपुर में तो वह खंतौली से अल्मोड़ा होते हुए काठगोदाम के स्टेशन पर आ पहुंचे ट्रेन में बैठ कर गोरखपुर जाने के लिए।

खलखल जी ने पहले कभी ट्रेन नहीं देखी थी क्योंकि पहाड़ में ट्रेन नहीं होती है तो अपने लोहे के बक्से और होल्डॉल के ऊपर बैठे हुए जब  प्लेटफार्म पर ट्रेन का इंतजार कर रहे थे तो अचानक एक शंटिंग करता हुआ विशालकाय कैनेडियन इंजन प्लेटफार्म से सटी हुई लाइन पर भक भक की आवाज  करता हुआ उनके नजदीक से निकल गया तो उनके होश उड़ गए। उनकी समझ में नहीं आया यह क्या हो गया।

पहली बार का अनुभव ही कुछ अलग होता है । साइकिल चलाना सीख रहा था मैं काफी दिनों से । सीट के ऊपर बैठता पैडल  मारता और जरा सा आगे जाकर गिर पड़ता। पर जब पहली बार पैडल के बाद गिरा नहीं और तैरता हुआ काफी दूर तक निकल गया तो  वह कैसा सुखद अनुभव था मैं बता नहीं सकता। ऐसा ही अनुभव स्केटिंग सीखते वक्त भी हुआ था जब काफी चोट लगने के बाद फिर अचानक तैरते हुए आगे को निकल गए बिना किसी परेशानी के।

बचपन में पूर्वी उत्तर प्रदेश में था। वहां का खानपान पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और पंजाब से काफी फर्क था। तो जब बचपन में 1 दिन मैं और मेरी बड़ी बहन हमारी मौसी की बीए में पढ़ने वाली लड़की के साथ नैनीताल में घूम रहे थे तो अचानक दिमाग चाहिए आया कि कभी तंदूरी नहीं खाई है तो क्यों नहीं इसका भी स्वाद चखा जाए ।

तो एक रेस्टोरेंट में पहुंच गए ।  वेटर आया और उससे पूछा खाने के लिए क्या लाना है। हमने तीन तंदूरी का ऑर्डर पिज़्ज़ा दे दिया। उसने पूछा सब्जी कौन सी आएगी तो हमारी कजिन ने कहा कोई सब्जी नहीं चाहिए। हमारे दिमाग मैं यह साल था ख्याल था तंदूरी भरवा पराठे टाइप की कोई स्वादिष्ट की होती है।

थोड़ी देर बाद बेटर तीन सूखी कार्ड बोर्ड टाइप रोटी ले आया और हमारे के सामने रख दी। पहली बार की तंदूरी रोटी  भी हमें हमेशा याद रहेगी।

बचपन की प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई हमने घर पर ही थी और सीजर छठी क्लास मैं एडमिशन हो गया। पहले दिन क्लास में बैठा था और किसी लड़के ने मजाक किया और देखो करो मैं खुद करने लगा हंसने लगा। मेरे ठीक है जय पीछे खूंखार टीचर खड़ा था और उसने आव देखा न ताव ।अपनी छड़ी से मेरी अच्छी मरम्मत कर दी। पहली बार का अनुभव अभी तक याद है।

छठी क्लास का और किस्सा याद आ रहा है
छमाही का इम्तिहान था और उसके पहले मैंने कभी कोई इंतहान नहीं दिया था और मुझे पता नहीं था कि इम्तहान मैं कैसे लिखा जाता है। 8:00 बजे सुबह इम्तहान देने गया और 8:45 बजे घर वापस आ गया ज्यादा टाइम आने जाने में ही लगा।  पिताजी को आश्चर्य हुआ और उन्होंने पूछा इम्तहान छोड़कर क्यों आ गए। पर मैंने तो पांचों प्रश्नों का उत्तर दे दिया था। 

हुआ यह कि मुझे पता नहीं था कि उत्तर विस्तार में देना है । तो हर प्रश्न का उत्तर  हां या ना में दे दिया। जैसे एक प्रश्न था कि क्या मोहम्मद तुगलक पागल था तो मैंने उत्तर दिया हां पागल था। 5 मिनट पर 5 प्रश्नों का उत्तर देकर मैं घर वापस आया गया।

पर एक ऐसा भी अनुभव है जिसमें पहली बार में मुझे कुछ अजीबोगरीब नहीं लगा और वह है जब मैं पहली बार हवाई जहाज में बैठा। तब तक बहुत से सिनेमा में हवाई जहाज की यात्रा कर चुका था यानि देख चुका था और कुछ नई बात नहीं लगी।
आपके घर में शायद कोई छोटा बच्चा पहली बार चलने की कोशिश कर रहा होगा। उसके चेहरे को गौर से देखिएगा।
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कुछ इधर की कुछ उधर की

समय के साथ सब कुछ बदल जाता है।

हम तो बदल ही गए हैं । पहले छरहरा बदन था, चश्मा नहीं पहनते थे सर पर घने बाल थे कोई तोंद भी नहीं थी। अब सब कुछ उलट पलट गया है

लखनऊ में भी पहले खुली सड़कें थी। सड़कों के दोनों तरफ सौ साल पुराने पेड़ थे। दोनों तरफ चौड़े चौड़े फुटपाथ के और बीच में सिर्फ दो लेन की पक्की सड़क। इक्की दुक्की कार चलती थी । टांगे इक्के सड़कों पर दौड़ते थे।  

उन्हीं सड़कों पर हमने भी कभी दोनों हाथ छोड़कर साइकिल चलाई थी।

वहां अब सब कंक्रीट का जंगल हो गया है । सभी पुराने पेड़  गायब हो गये हैं। फुटपाथ गायब हो गए हैं। पूरा वातावरण पेट्रोल और डीजल से प्रदूषित हो गया है। शहर में जितनी मक्खियां है उससे ज्यादा कार हैं। हर तरफ भागम भाग है।

कुछ दिन पहले सफाई करते वक्त एक पुराने बक्से में एक पीले रंग की लंबी पतली खाली शीशी मिली। ऊपर पीला लेबल लगा था जिसमें लिखा था पेप्स खांसी की गोलियां। 50 के दशक में या उससे पहले पेप्स की खांसी की गोलियां बहुत बिकती थी।स्वाद से लगता था कि उसमें  सौंफ भी मिली है। अब तो कहीं दिखाई ही नहीं देती है।

 एक और पीले रंग की शीशी थी । बाहर लेबल लगा था krushen salt. एक नन्ही सी चपटी चम्मच थी जिससे एक चम्मच सफेद पाउडर निकाल कर   bed tea के प्याले में डालते थे स्वास्थ्य अच्छा रखने के लिए। 50 के दशक में वह काफी घरों में दिखाई देती थी । वह भी अब  कहीं नहीं मिलती। 

 एक बड़ी कांच की चौड़े मुंह वाली बोतल में सौ गोली वाला SQUIBBS YEAST आता था सिर्फ एक रूपये में। खाना के बाद दो गोली खाने का रिवाज था अच्छे हाजमा के लिये। बाद में बोतल नींबू का अचार बनाने में काम आती थी।

लोहे की और पीतल की बाल्टियां तो अब दिखाई नहीं देती है सभी  प्लास्टिक की हो गई हैं। तब  सभी घरों में पीतल की या लोहे की बाल्टी होती थी।   कहीं नहीं दिखाई देती अब तो वह।

जब हमने दाढ़ी बनाना शुरू किया था तब दाढ़ी बनाने के ब्लेड की बड़ी समस्या हो गई थी। बाहर से इंपोर्ट बंद हो गया था और हिंदुस्तान में सिर्फ एक ब्रांड का ब्लड मिलता था जिसका नाम भारत ब्लेड था। उससे दाढ़ी बनाना बहुत हिम्मत का काम होता था। काफी खून खराबा होता था और फिटकरी यानि एलम साथ हमेशा रखना पड़ता था। बहुत वर्षों बाद साठ के दशक में जाकर कहीं एक अच्छा ब्लड आया इरास्मिक सिल्क एज। 

तब पैकेट बंद खाने पीने की चीजें का रिवाज नहीं था।  यह आजकल जो लोग हल्दीराम की भुजिया मैगी नूडल्स टॉप रामन टाइप के खाने के पैकेट खरीदते रहते हैं तब नहीं हुआ करता था। भड़भूजे की दुकान से भुना हुआ चना या चावल का  मुरमुरा मिल जाता था चबाने के लिए। फेरीवाले जरूर आते थे । गन्ने के छल्ले दार टुकड़ों को असली गुलाब जल से तर कर के पत्तल के दोने में हम बच्चों को पेश करते । एक और चीज आती थी जो शायद अब किसी ने देखी भी ना हो उसे कहते थे कमलगट्टा जिसमें कमल के बीज भरे होते थे । हरे रंग के छिलके को चीर कर अंदर का सफेद गूदा खाया जाता था। चना जोर गरम भी काफी दिखता था कागज की रॉकेट पुड़िया में । 

जमाने में एक और चीज होती थी जिसे बाइस्कोपक कहते थे । फुटपाथ पर बाइस्कोप रखकर  गाना बजता था और जब देखने वाले बच्चे इकट्ठे हो जाते थे  तो वह उस बाइस्कोप के बगल का हैंडल घुमाता हुआ कमेंट्री करता था और बच्चे झरोखों से अंदर बदलती हुई तस्वीरों को देखते थे।

50 के दशक में बॉल पॉइंट पेन नई नई आई थी और ज्यादातर लोग स्याही वाली फाउंटेन पेन का इस्तेमाल करते थे। बैंक वाले बॉल पॉइंट पॉइंट से लिखे हुए चेक को स्वीकार नहीं करते थे। 

जाते जाते एक बात और बता दूं। उस जमाने में सिनेमा हॉल में सिगरेट पीना मना नहीं था और क्योंकि ज्यादातर युवक सिगरेट पीना  शान समझते थे तो पिक्चर हॉल के अंदर भी सिगरेट का धुआं भरा रहता था। पान की दुकान में भी चारमीनार , कैची यानि सीजर्स , पासिंग शो जैसी सस्ती सिगरेट खूब बिकती थी। पान वाले की लकड़ी की छोटी सी दुकान के एक तरफ एक रस्सी हमेशा सुलगती रहती थी और सिगरेट खरीदने वाले सिगरेट का पैकेट फाड़ कर उसमें से एक सिगरेट निकाल कर उसी समय जलती रस्सी से उसे सुलगा लेते थे और एक कश गहरी सांस लेकर छोड़ते थे।

तो वो जमाना आज के जमाने से बिल्कुल फर्क था । कुछ मायने में अच्छा था कुछ मायने में बुरा था।

 पर याद तो बहुत आती है उस जमाने की।

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Saturday 20 May 2023

लछमय्या जी

लछमैया जी

नौकरी के शुरुआत में ही नागपुर मैं पोस्टिंग हो गई हालांकि कुछ ही समय बाद फरीदाबाद का ट्रांसफर हो गया था।

नागपुर शहर में मैं अजनबी था क्योंकि उत्तर प्रदेश का रहने वाला था। दफ्तर के बाहर कोई पहचान नहीं थी । अनजाना शहर। दफ्तर में भी फरक स्वभाव के लोग थे और उनके  साथ मित्रता करना मुश्किल था।

 ऐसे में मुझसे कोई 20 साल बड़े एक सज्जन मिल गए अपने ही दफ्तर में। मझला कद, स्वस्थ सरल स्वभाव, माथे में आगे से थोड़ा गंजापन, पान के शौकीन आंध्र प्रदेश के थे पर हिंदी अच्छी बोलते थे और हमारे ही दफ्तर के ऑफिसर थे।  नाम लछमय्या जी था । सरल स्वभाव के थे। अकेले थे परिवार नहीं था । राजयोग और हठयोग के बहुत अच्छे ज्ञाता थे। उनके पास अध्यात्म की पुस्तकों का ढेर था । पान खाना खाते थे 90 नंबर के तंबाकू के साथ और मस्त रहते थे। उनके साथ नागपुर मैं दोस्ती शुरू हुई और एक दूसरे के साथ अच्छा तालमेल बैठ गया। 

फिर हम दोनों का ट्रांसफर एक ही साथ फरीदाबाद में एक ही दफ्तर में हो गया तो दोस्ती बनी रही। फरीदाबाद से हम लोग सरकारी कॉलोनी के सीपीडब्ल्यूडी एफ्लैट्स में नजदीकी रहते थे ।इकट्ठे अक्सर दिल्ली जाते रहते थे छुट्टी  के दिनों में।

एक बड़ा रोचक सा किस्सा है लछमय्या जी के साथ का। फरीदाबाद से ट्रेन से दिल्ली जा रहे थे संडे के दिन समय बिताने के लिए। कुछ ऐसा प्लान था कि पहले बंगाली मार्केट पर जाकर कुछ नाश्ता कर लेंगे और फिर कोई से सिनेमा देखेंगे । रास्ते में मेट्रो ब्रिज से पहले ही बंगाली मार्केट के पीछे का हिस्सा पड़ता था पर वहां कोई ट्रेन का स्टॉप नहीं था । प्लान था कि मेट्रो ब्रिज स्टेशन पर उतर जाएंगे ,वहां से पैदल चलकर बंगाली मार्केट आयेंगे और वहां पर  स्वादिष्ट मिठाई और नमकीन का सेवन करेंगे।

तो उस समय जब हम बंगाली मार्केट के पीछे के हिस्से की तरफ पहुंच रहे थे हम लोगों की अध्यात्म पर बातें हो रही थी और ट्रेन के यात्रीगण बहुत गौर से हमारी बात सुन रहे थे । तो बातों ही बातों में लछमय्या जी बोले कि अध्यात्म में  वह शक्ति है कि वह चलती ट्रेन को भी रोक सकता है। 

मैं उस समय कुछ मजाक के मूड में था तो मैंने भी मजाक मैं कहा कि आप कहे तो मैं बंगाली मार्केट के ठीक पीछे ट्रेन को रुकवा सकता हो अध्यात्म से।  हमें बंगाली मार्केट में जाना ही है।

 लछमय्या जी कहने लगे नहीं नहीं ऐसा मत करना। स्पिरिचुअल पावर का इस तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। पर मैं तो मजाक के मूड में था तो मैंने कहा  जी अब तो मैं ट्रेन रुका ही रहा ह।

बात ऐसी थी कि बंगाली मार्केट के ठीक पीछे एक आउटर सिग्नल था जहां पर ज्यादातर ट्रेने आकर रुक जाया करती थीं और मुझे यह बात अच्छी तरह पता थी।

 तो सचमुच आउटर सिग्नल के पास गाड़ी आकर रुक गई। लछमय्या जी  कहने लगे यह क्या काम कर दिया तुमने।

 जब हम ट्रेन से नीचे उतर रहे थे तो ट्रेन के उस डिब्बे में बैठे हुए बाकी लोग बहुत श्रद्धा और आश्चर्य से हमारी तरफ देख रहे थे कि हमारे बीच एक बहुत बड़े गुरु बैठे हुए थे।

लक्षभैया जी जब रिटायर हुए तो वापस आंध्रप्रदेश चले गए और अपने साथ सिर्फ कई बड़े बड़े टीन के बक्से ले गए जो आध्यात्मिक की  किताबों से भरे थे।

ऐसे व्यक्तित्व का पुरुष फिर दोबारा मेरी जिंदगी में कभी नहीं आया।

दिल्ली की पुरानी बातें

कुछ पुरानी बातें दिल्ली की

नौकरी के ज्यादातर साल 
 दिल्ली में ही गुजारे । दफ्तर दिल्ली में होता था  और रहता था फरीदाबाद में ।

फरीदाबाद में उन दिनो फौरन ही एक सरकारी आवास मिल जाता था। दिल्ली में सरकारी आवास मिलने का कोई सवाल ही नहीं था ।इसलिए जब शुरू शुरू में फरीदाबाद दफ्तर ज्वाइन किया तो मकान मिल गया और जब  फरीदाबाद से दिल्ली को ट्रांसफर हो गया तो फरीदाबाद से ही दिल्ली आया जाया  था

तो दिनचर्या यह थी कि सुबह उठे , तैयार हुए और चल पड़े दिल्ली की तरफ । फरीदाबाद के स्टेशन टहलते हुए निकल पड़े।  नजदीक ही था।  फिर पीले रंग की एक लोकल ट्रेन आती थी । उसी में बैठ गए।

उस जमाने में फरीदाबाद से दिल्ली का एक तरफ का किराया लोकल ट्रेन से 50 पैसे था यानी एक महीने  का ₹15।  पर पूरे महीने का सीजन टिकट जिसे एमएसटी कहते थे वह ₹5 में बन जाता था । तो सभी लोग  बनवा लेते थे एमएसटी और स्टेशन पर आकर सीधे ट्रेन में बैठ जाते थे। रोज-रोज टिकट खरीदने का झंझट खत्म।

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से पहले कनॉट प्लेस के मिंटू ब्रिज स्टेशन पर उतर जाते थे जो सुपर बाजार के पीछे था कनॉट प्लेस में। फिर बाहर निकल कर आते थे और सुपर बाजार के परिसर में बाहर एक चाय की दुकान में बैठकर ब्रेकफास्ट करते थे । टोस्ट मक्खन चाय समोसा वगैरह । फिर वहां से 25 पैसे का टिकट लेकर मंत्रालय पहुंच जाते थे।

1965 से 1975 के बीच कनॉट प्लेस में जहां अब अंडर ग्राउंड पालिका बाजार है वहां पर ऊपर एक कॉफी हाउस हुआ करता था। कॉफी हाउस की विशेषताएं थी के वह एक बहुत ही बड़े से टेंट के नीचे था और उसी में एक तरफ ताजा खाने का सामान बनता रहता था सफाई से। खाने का सामान बहुत सस्ता था और लोग वहां बैठकर खूब देर तक गप्पे लड़ाते एक कप कौफी के ऊपर या फिर दोसा,  बड़े इत्यादि का सेवन करते । दफ्तर से शाम को लौटते वक्त वहीं बैठकर चाय पानी कर लेता और फिर मेट्रो ब्रिज स्टेशन से ट्रेन से फरीदाबाद को रवाना हो जाता।

 छुट्टी के दिन तो फरीदाबाद से सीधे आकर वही टेंट वाले कॉफी हाउस में बैठ जाता था और 11:30 बजे के करीब  ओड़ियन या प्लाजा सिनेमा के सामने बाहर spare टिकट खरीदने की कोशिश करता। 

यह भी एक मजेदार अनुभव था। ओडियन या प्लाजा के ठीक बाहर खड़े होकर अंदर जाते हुए लोगों को गौर से देखता । जिन लोगों की आंखें कुछ ढूंढती  हुई नजर आती उनसे पूछता कि उनके पास कोई अतिरिक्त टिकट है।  और ऐसे लोग के ही पास अक्सर फालतू टिकट निकाल आता था और फिर उनके साथ अंदर जाकर पिक्चर का आनंद लेता।

दिल्ली में एक मद्रास होटल हुआ करता था रिवोली के सामने की बिल्डिंग में। ऊपर जाना पड़ता था और वहां एक लंबी गैलरी में कुर्सियां और मेज लगे थे नाश्ता करने वालों के लिए। मद्रास होटल का दोसा काफी लोकप्रिय था।और  जो खाना खाना चाहते उनके लिए एक अलग कमरे में व्यवस्था थी। खाना दक्षिण भारतीय होता था और अच्छी क्वालिटी का होता था। 

उन दिनों कनॉट सर्कस से न्यू दिल्ली रेलवे स्टेशन की ओर 25 पैसे सवारी के हिसाब से तांगे चलते थे और क्योंकि काफी तांगे थे तो फौरन मिल जाते थे। तो कभी-कभी छुट्टी के दिन पिक्चर देखने के बाद नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की तरफ चले जाते थे और फिर वहां पोर्टिको के ऊपर खुली जगह पर बेंत की आराम कुर्सी में बैठकर आराम से ग्रीन लेबल चाय पीते थे । वहां पर बहुत बढ़िया ग्रीन लेबल चाय सही दाम पर मिल जाती थी ।

वह समय आजकल के समय से बहुत फर्क था।

 बहुत जमाना बीत गया है। अब पता नहीं दिल्ली के क्या हाल है । तांगे चलने तो कभी के बंद हो गए हैं । अब तो मेट्रो का जमाना है। हर जगह कंक्रीट के खंबे । खंबे के ऊपर से जाती हुई मेट्रो रेल गाड़ियां आम बात हो गई हैं । 

जिंदगी का वह मजा जो तब था फिर नहीं आ सकता है।