कुछ पुरानी बातें दिल्ली की
नौकरी के ज्यादातर साल
दिल्ली में ही गुजारे । दफ्तर दिल्ली में होता था और रहता था फरीदाबाद में ।
फरीदाबाद में उन दिनो फौरन ही एक सरकारी आवास मिल जाता था। दिल्ली में सरकारी आवास मिलने का कोई सवाल ही नहीं था ।इसलिए जब शुरू शुरू में फरीदाबाद दफ्तर ज्वाइन किया तो मकान मिल गया और जब फरीदाबाद से दिल्ली को ट्रांसफर हो गया तो फरीदाबाद से ही दिल्ली आया जाया था
तो दिनचर्या यह थी कि सुबह उठे , तैयार हुए और चल पड़े दिल्ली की तरफ । फरीदाबाद के स्टेशन टहलते हुए निकल पड़े। नजदीक ही था। फिर पीले रंग की एक लोकल ट्रेन आती थी । उसी में बैठ गए।
उस जमाने में फरीदाबाद से दिल्ली का एक तरफ का किराया लोकल ट्रेन से 50 पैसे था यानी एक महीने का ₹15। पर पूरे महीने का सीजन टिकट जिसे एमएसटी कहते थे वह ₹5 में बन जाता था । तो सभी लोग बनवा लेते थे एमएसटी और स्टेशन पर आकर सीधे ट्रेन में बैठ जाते थे। रोज-रोज टिकट खरीदने का झंझट खत्म।
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से पहले कनॉट प्लेस के मिंटू ब्रिज स्टेशन पर उतर जाते थे जो सुपर बाजार के पीछे था कनॉट प्लेस में। फिर बाहर निकल कर आते थे और सुपर बाजार के परिसर में बाहर एक चाय की दुकान में बैठकर ब्रेकफास्ट करते थे । टोस्ट मक्खन चाय समोसा वगैरह । फिर वहां से 25 पैसे का टिकट लेकर मंत्रालय पहुंच जाते थे।
1965 से 1975 के बीच कनॉट प्लेस में जहां अब अंडर ग्राउंड पालिका बाजार है वहां पर ऊपर एक कॉफी हाउस हुआ करता था। कॉफी हाउस की विशेषताएं थी के वह एक बहुत ही बड़े से टेंट के नीचे था और उसी में एक तरफ ताजा खाने का सामान बनता रहता था सफाई से। खाने का सामान बहुत सस्ता था और लोग वहां बैठकर खूब देर तक गप्पे लड़ाते एक कप कौफी के ऊपर या फिर दोसा, बड़े इत्यादि का सेवन करते । दफ्तर से शाम को लौटते वक्त वहीं बैठकर चाय पानी कर लेता और फिर मेट्रो ब्रिज स्टेशन से ट्रेन से फरीदाबाद को रवाना हो जाता।
छुट्टी के दिन तो फरीदाबाद से सीधे आकर वही टेंट वाले कॉफी हाउस में बैठ जाता था और 11:30 बजे के करीब ओड़ियन या प्लाजा सिनेमा के सामने बाहर spare टिकट खरीदने की कोशिश करता।
यह भी एक मजेदार अनुभव था। ओडियन या प्लाजा के ठीक बाहर खड़े होकर अंदर जाते हुए लोगों को गौर से देखता । जिन लोगों की आंखें कुछ ढूंढती हुई नजर आती उनसे पूछता कि उनके पास कोई अतिरिक्त टिकट है। और ऐसे लोग के ही पास अक्सर फालतू टिकट निकाल आता था और फिर उनके साथ अंदर जाकर पिक्चर का आनंद लेता।
दिल्ली में एक मद्रास होटल हुआ करता था रिवोली के सामने की बिल्डिंग में। ऊपर जाना पड़ता था और वहां एक लंबी गैलरी में कुर्सियां और मेज लगे थे नाश्ता करने वालों के लिए। मद्रास होटल का दोसा काफी लोकप्रिय था।और जो खाना खाना चाहते उनके लिए एक अलग कमरे में व्यवस्था थी। खाना दक्षिण भारतीय होता था और अच्छी क्वालिटी का होता था।
उन दिनों कनॉट सर्कस से न्यू दिल्ली रेलवे स्टेशन की ओर 25 पैसे सवारी के हिसाब से तांगे चलते थे और क्योंकि काफी तांगे थे तो फौरन मिल जाते थे। तो कभी-कभी छुट्टी के दिन पिक्चर देखने के बाद नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की तरफ चले जाते थे और फिर वहां पोर्टिको के ऊपर खुली जगह पर बेंत की आराम कुर्सी में बैठकर आराम से ग्रीन लेबल चाय पीते थे । वहां पर बहुत बढ़िया ग्रीन लेबल चाय सही दाम पर मिल जाती थी ।
वह समय आजकल के समय से बहुत फर्क था।
बहुत जमाना बीत गया है। अब पता नहीं दिल्ली के क्या हाल है । तांगे चलने तो कभी के बंद हो गए हैं । अब तो मेट्रो का जमाना है। हर जगह कंक्रीट के खंबे । खंबे के ऊपर से जाती हुई मेट्रो रेल गाड़ियां आम बात हो गई हैं ।
जिंदगी का वह मजा जो तब था फिर नहीं आ सकता है।
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