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Sunday, 21 May 2023

कुछ इधर की कुछ उधर की

समय के साथ सब कुछ बदल जाता है।

हम तो बदल ही गए हैं । पहले छरहरा बदन था, चश्मा नहीं पहनते थे सर पर घने बाल थे कोई तोंद भी नहीं थी। अब सब कुछ उलट पलट गया है

लखनऊ में भी पहले खुली सड़कें थी। सड़कों के दोनों तरफ सौ साल पुराने पेड़ थे। दोनों तरफ चौड़े चौड़े फुटपाथ के और बीच में सिर्फ दो लेन की पक्की सड़क। इक्की दुक्की कार चलती थी । टांगे इक्के सड़कों पर दौड़ते थे।  

उन्हीं सड़कों पर हमने भी कभी दोनों हाथ छोड़कर साइकिल चलाई थी।

वहां अब सब कंक्रीट का जंगल हो गया है । सभी पुराने पेड़  गायब हो गये हैं। फुटपाथ गायब हो गए हैं। पूरा वातावरण पेट्रोल और डीजल से प्रदूषित हो गया है। शहर में जितनी मक्खियां है उससे ज्यादा कार हैं। हर तरफ भागम भाग है।

कुछ दिन पहले सफाई करते वक्त एक पुराने बक्से में एक पीले रंग की लंबी पतली खाली शीशी मिली। ऊपर पीला लेबल लगा था जिसमें लिखा था पेप्स खांसी की गोलियां। 50 के दशक में या उससे पहले पेप्स की खांसी की गोलियां बहुत बिकती थी।स्वाद से लगता था कि उसमें  सौंफ भी मिली है। अब तो कहीं दिखाई ही नहीं देती है।

 एक और पीले रंग की शीशी थी । बाहर लेबल लगा था krushen salt. एक नन्ही सी चपटी चम्मच थी जिससे एक चम्मच सफेद पाउडर निकाल कर   bed tea के प्याले में डालते थे स्वास्थ्य अच्छा रखने के लिए। 50 के दशक में वह काफी घरों में दिखाई देती थी । वह भी अब  कहीं नहीं मिलती। 

 एक बड़ी कांच की चौड़े मुंह वाली बोतल में सौ गोली वाला SQUIBBS YEAST आता था सिर्फ एक रूपये में। खाना के बाद दो गोली खाने का रिवाज था अच्छे हाजमा के लिये। बाद में बोतल नींबू का अचार बनाने में काम आती थी।

लोहे की और पीतल की बाल्टियां तो अब दिखाई नहीं देती है सभी  प्लास्टिक की हो गई हैं। तब  सभी घरों में पीतल की या लोहे की बाल्टी होती थी।   कहीं नहीं दिखाई देती अब तो वह।

जब हमने दाढ़ी बनाना शुरू किया था तब दाढ़ी बनाने के ब्लेड की बड़ी समस्या हो गई थी। बाहर से इंपोर्ट बंद हो गया था और हिंदुस्तान में सिर्फ एक ब्रांड का ब्लड मिलता था जिसका नाम भारत ब्लेड था। उससे दाढ़ी बनाना बहुत हिम्मत का काम होता था। काफी खून खराबा होता था और फिटकरी यानि एलम साथ हमेशा रखना पड़ता था। बहुत वर्षों बाद साठ के दशक में जाकर कहीं एक अच्छा ब्लड आया इरास्मिक सिल्क एज। 

तब पैकेट बंद खाने पीने की चीजें का रिवाज नहीं था।  यह आजकल जो लोग हल्दीराम की भुजिया मैगी नूडल्स टॉप रामन टाइप के खाने के पैकेट खरीदते रहते हैं तब नहीं हुआ करता था। भड़भूजे की दुकान से भुना हुआ चना या चावल का  मुरमुरा मिल जाता था चबाने के लिए। फेरीवाले जरूर आते थे । गन्ने के छल्ले दार टुकड़ों को असली गुलाब जल से तर कर के पत्तल के दोने में हम बच्चों को पेश करते । एक और चीज आती थी जो शायद अब किसी ने देखी भी ना हो उसे कहते थे कमलगट्टा जिसमें कमल के बीज भरे होते थे । हरे रंग के छिलके को चीर कर अंदर का सफेद गूदा खाया जाता था। चना जोर गरम भी काफी दिखता था कागज की रॉकेट पुड़िया में । 

जमाने में एक और चीज होती थी जिसे बाइस्कोपक कहते थे । फुटपाथ पर बाइस्कोप रखकर  गाना बजता था और जब देखने वाले बच्चे इकट्ठे हो जाते थे  तो वह उस बाइस्कोप के बगल का हैंडल घुमाता हुआ कमेंट्री करता था और बच्चे झरोखों से अंदर बदलती हुई तस्वीरों को देखते थे।

50 के दशक में बॉल पॉइंट पेन नई नई आई थी और ज्यादातर लोग स्याही वाली फाउंटेन पेन का इस्तेमाल करते थे। बैंक वाले बॉल पॉइंट पॉइंट से लिखे हुए चेक को स्वीकार नहीं करते थे। 

जाते जाते एक बात और बता दूं। उस जमाने में सिनेमा हॉल में सिगरेट पीना मना नहीं था और क्योंकि ज्यादातर युवक सिगरेट पीना  शान समझते थे तो पिक्चर हॉल के अंदर भी सिगरेट का धुआं भरा रहता था। पान की दुकान में भी चारमीनार , कैची यानि सीजर्स , पासिंग शो जैसी सस्ती सिगरेट खूब बिकती थी। पान वाले की लकड़ी की छोटी सी दुकान के एक तरफ एक रस्सी हमेशा सुलगती रहती थी और सिगरेट खरीदने वाले सिगरेट का पैकेट फाड़ कर उसमें से एक सिगरेट निकाल कर उसी समय जलती रस्सी से उसे सुलगा लेते थे और एक कश गहरी सांस लेकर छोड़ते थे।

तो वो जमाना आज के जमाने से बिल्कुल फर्क था । कुछ मायने में अच्छा था कुछ मायने में बुरा था।

 पर याद तो बहुत आती है उस जमाने की।

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