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Monday 13 July 2015

" हम ठहरे " (In a lighter vain)

"हम ठहरे" 

दाज्यू तुम तो हो देसी पहाड़ी
दाज्यू असली पहाड़ी  हम ठहरे।।

देखा क्या तुमनें कभी है शीशूँणा
छूओगे तो भाँगड़ा तुम करने वाले ढहरे.

तुम तो इजा को कहते  हो मम्मी
पर हम पक्के इजा बौज्यू वाले ठहरे ||

तुम कुरसी और मेज में खाते हो खाना
हम तो अटाली में खाना खाने वाले ठहरे ।।

क्वीड़ पाथना  कोई हमसे तो सीखे
हम जो पहाड़ो में रहने वाले  ठहरे ।।

मडुवे की रोटी हैं खाते घी गुड़ से
तुम तो मैगी और पीज्जा वाले ठहरे ।।

सभी को खिलाते हैं खाना हम दाज्यू
काले कउआ तक को खिलाने वाले ठहरे|

हम दही बूंदी का नकली रायता नहीं  खाते
राई खीरे हल्दी का रायता खाने  वाले ठहरे।।

१७ जुलाई हरियाला में आऔ घर दाज्यू
सींगल पुआ आलू गुटुक खिलाने वाले ठहरे||

राजधानी गैरसैड़ँ में अब बनाने से रहे हम
हम देहरादून का कचरा निकालने वाले ठहरे||

(रचयिता: गिरिजा नंदन जोशी)

Saturday 4 July 2015

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन

"कोई लौटा दे मेरे  बीते  हुए  दिन ....  "

वोह पुराने हजरतगंज की रौनक भरी शाम, benbows के पास की पान की दूकान

वोह केशव fruits में रक्खे दशहरी आम,
और  kopoors में छलकते नशीले  जाम.

वो lovers lane में  लड़कियों की भरमार,
लड़के हो जाते थे गलतफहमी के शिकार !

वो सिंह electrcals के बिजली के toaster, Mayfair  में छलकते सोफिया लोरेन के पोस्टर.

वोह लालबाग की गली में शर्मा चाट की दूकान,
जहाँ २५ पैसे मे मिलता था गज़ब का सामान.

वोह नरही का पांडे का मलाई रबड़ी का स्टाल,
Indian coffee house का लम्बा सा hall.

वो king of चाट का रथ जैसा ठेला,
जहाँ  लगता हर शाम रईसों को मेला.

क्या हो गया है  यह वख्त  का सितम,.
न गंज वैसा रह गया और न रहे वैसे हम!