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Sunday 21 May 2023

पहली बार

 पहली बार

लोगों को किसी चीज का अनुभव जब पहली बार होता है तो उसे वह बात हमेशा याद रहती है। ऐसे ही मेरे साथ भी कई अनुभव हुए। 

खलखल जी हमारे बचपन के दिनों के  बहुत सज्जन पुरुष थे। बहुत चरित्रवान थे। करीब 22 साल की उम्र तक पहाड़ो में ही बिताया । ज्यादा समय अल्मोड़ा में  बिताया था वैसे गांव के रहने वाले थे।

तो जब मेरे पिताजी ने उनके लिए नौकरी ढूंढ निकाली गोरखपुर में तो वह खंतौली से अल्मोड़ा होते हुए काठगोदाम के स्टेशन पर आ पहुंचे ट्रेन में बैठ कर गोरखपुर जाने के लिए।

खलखल जी ने पहले कभी ट्रेन नहीं देखी थी क्योंकि पहाड़ में ट्रेन नहीं होती है तो अपने लोहे के बक्से और होल्डॉल के ऊपर बैठे हुए जब  प्लेटफार्म पर ट्रेन का इंतजार कर रहे थे तो अचानक एक शंटिंग करता हुआ विशालकाय कैनेडियन इंजन प्लेटफार्म से सटी हुई लाइन पर भक भक की आवाज  करता हुआ उनके नजदीक से निकल गया तो उनके होश उड़ गए। उनकी समझ में नहीं आया यह क्या हो गया।

पहली बार का अनुभव ही कुछ अलग होता है । साइकिल चलाना सीख रहा था मैं काफी दिनों से । सीट के ऊपर बैठता पैडल  मारता और जरा सा आगे जाकर गिर पड़ता। पर जब पहली बार पैडल के बाद गिरा नहीं और तैरता हुआ काफी दूर तक निकल गया तो  वह कैसा सुखद अनुभव था मैं बता नहीं सकता। ऐसा ही अनुभव स्केटिंग सीखते वक्त भी हुआ था जब काफी चोट लगने के बाद फिर अचानक तैरते हुए आगे को निकल गए बिना किसी परेशानी के।

बचपन में पूर्वी उत्तर प्रदेश में था। वहां का खानपान पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और पंजाब से काफी फर्क था। तो जब बचपन में 1 दिन मैं और मेरी बड़ी बहन हमारी मौसी की बीए में पढ़ने वाली लड़की के साथ नैनीताल में घूम रहे थे तो अचानक दिमाग चाहिए आया कि कभी तंदूरी नहीं खाई है तो क्यों नहीं इसका भी स्वाद चखा जाए ।

तो एक रेस्टोरेंट में पहुंच गए ।  वेटर आया और उससे पूछा खाने के लिए क्या लाना है। हमने तीन तंदूरी का ऑर्डर पिज़्ज़ा दे दिया। उसने पूछा सब्जी कौन सी आएगी तो हमारी कजिन ने कहा कोई सब्जी नहीं चाहिए। हमारे दिमाग मैं यह साल था ख्याल था तंदूरी भरवा पराठे टाइप की कोई स्वादिष्ट की होती है।

थोड़ी देर बाद बेटर तीन सूखी कार्ड बोर्ड टाइप रोटी ले आया और हमारे के सामने रख दी। पहली बार की तंदूरी रोटी  भी हमें हमेशा याद रहेगी।

बचपन की प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई हमने घर पर ही थी और सीजर छठी क्लास मैं एडमिशन हो गया। पहले दिन क्लास में बैठा था और किसी लड़के ने मजाक किया और देखो करो मैं खुद करने लगा हंसने लगा। मेरे ठीक है जय पीछे खूंखार टीचर खड़ा था और उसने आव देखा न ताव ।अपनी छड़ी से मेरी अच्छी मरम्मत कर दी। पहली बार का अनुभव अभी तक याद है।

छठी क्लास का और किस्सा याद आ रहा है
छमाही का इम्तिहान था और उसके पहले मैंने कभी कोई इंतहान नहीं दिया था और मुझे पता नहीं था कि इम्तहान मैं कैसे लिखा जाता है। 8:00 बजे सुबह इम्तहान देने गया और 8:45 बजे घर वापस आ गया ज्यादा टाइम आने जाने में ही लगा।  पिताजी को आश्चर्य हुआ और उन्होंने पूछा इम्तहान छोड़कर क्यों आ गए। पर मैंने तो पांचों प्रश्नों का उत्तर दे दिया था। 

हुआ यह कि मुझे पता नहीं था कि उत्तर विस्तार में देना है । तो हर प्रश्न का उत्तर  हां या ना में दे दिया। जैसे एक प्रश्न था कि क्या मोहम्मद तुगलक पागल था तो मैंने उत्तर दिया हां पागल था। 5 मिनट पर 5 प्रश्नों का उत्तर देकर मैं घर वापस आया गया।

पर एक ऐसा भी अनुभव है जिसमें पहली बार में मुझे कुछ अजीबोगरीब नहीं लगा और वह है जब मैं पहली बार हवाई जहाज में बैठा। तब तक बहुत से सिनेमा में हवाई जहाज की यात्रा कर चुका था यानि देख चुका था और कुछ नई बात नहीं लगी।
आपके घर में शायद कोई छोटा बच्चा पहली बार चलने की कोशिश कर रहा होगा। उसके चेहरे को गौर से देखिएगा।
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कुछ इधर की कुछ उधर की

समय के साथ सब कुछ बदल जाता है।

हम तो बदल ही गए हैं । पहले छरहरा बदन था, चश्मा नहीं पहनते थे सर पर घने बाल थे कोई तोंद भी नहीं थी। अब सब कुछ उलट पलट गया है

लखनऊ में भी पहले खुली सड़कें थी। सड़कों के दोनों तरफ सौ साल पुराने पेड़ थे। दोनों तरफ चौड़े चौड़े फुटपाथ के और बीच में सिर्फ दो लेन की पक्की सड़क। इक्की दुक्की कार चलती थी । टांगे इक्के सड़कों पर दौड़ते थे।  

उन्हीं सड़कों पर हमने भी कभी दोनों हाथ छोड़कर साइकिल चलाई थी।

वहां अब सब कंक्रीट का जंगल हो गया है । सभी पुराने पेड़  गायब हो गये हैं। फुटपाथ गायब हो गए हैं। पूरा वातावरण पेट्रोल और डीजल से प्रदूषित हो गया है। शहर में जितनी मक्खियां है उससे ज्यादा कार हैं। हर तरफ भागम भाग है।

कुछ दिन पहले सफाई करते वक्त एक पुराने बक्से में एक पीले रंग की लंबी पतली खाली शीशी मिली। ऊपर पीला लेबल लगा था जिसमें लिखा था पेप्स खांसी की गोलियां। 50 के दशक में या उससे पहले पेप्स की खांसी की गोलियां बहुत बिकती थी।स्वाद से लगता था कि उसमें  सौंफ भी मिली है। अब तो कहीं दिखाई ही नहीं देती है।

 एक और पीले रंग की शीशी थी । बाहर लेबल लगा था krushen salt. एक नन्ही सी चपटी चम्मच थी जिससे एक चम्मच सफेद पाउडर निकाल कर   bed tea के प्याले में डालते थे स्वास्थ्य अच्छा रखने के लिए। 50 के दशक में वह काफी घरों में दिखाई देती थी । वह भी अब  कहीं नहीं मिलती। 

 एक बड़ी कांच की चौड़े मुंह वाली बोतल में सौ गोली वाला SQUIBBS YEAST आता था सिर्फ एक रूपये में। खाना के बाद दो गोली खाने का रिवाज था अच्छे हाजमा के लिये। बाद में बोतल नींबू का अचार बनाने में काम आती थी।

लोहे की और पीतल की बाल्टियां तो अब दिखाई नहीं देती है सभी  प्लास्टिक की हो गई हैं। तब  सभी घरों में पीतल की या लोहे की बाल्टी होती थी।   कहीं नहीं दिखाई देती अब तो वह।

जब हमने दाढ़ी बनाना शुरू किया था तब दाढ़ी बनाने के ब्लेड की बड़ी समस्या हो गई थी। बाहर से इंपोर्ट बंद हो गया था और हिंदुस्तान में सिर्फ एक ब्रांड का ब्लड मिलता था जिसका नाम भारत ब्लेड था। उससे दाढ़ी बनाना बहुत हिम्मत का काम होता था। काफी खून खराबा होता था और फिटकरी यानि एलम साथ हमेशा रखना पड़ता था। बहुत वर्षों बाद साठ के दशक में जाकर कहीं एक अच्छा ब्लड आया इरास्मिक सिल्क एज। 

तब पैकेट बंद खाने पीने की चीजें का रिवाज नहीं था।  यह आजकल जो लोग हल्दीराम की भुजिया मैगी नूडल्स टॉप रामन टाइप के खाने के पैकेट खरीदते रहते हैं तब नहीं हुआ करता था। भड़भूजे की दुकान से भुना हुआ चना या चावल का  मुरमुरा मिल जाता था चबाने के लिए। फेरीवाले जरूर आते थे । गन्ने के छल्ले दार टुकड़ों को असली गुलाब जल से तर कर के पत्तल के दोने में हम बच्चों को पेश करते । एक और चीज आती थी जो शायद अब किसी ने देखी भी ना हो उसे कहते थे कमलगट्टा जिसमें कमल के बीज भरे होते थे । हरे रंग के छिलके को चीर कर अंदर का सफेद गूदा खाया जाता था। चना जोर गरम भी काफी दिखता था कागज की रॉकेट पुड़िया में । 

जमाने में एक और चीज होती थी जिसे बाइस्कोपक कहते थे । फुटपाथ पर बाइस्कोप रखकर  गाना बजता था और जब देखने वाले बच्चे इकट्ठे हो जाते थे  तो वह उस बाइस्कोप के बगल का हैंडल घुमाता हुआ कमेंट्री करता था और बच्चे झरोखों से अंदर बदलती हुई तस्वीरों को देखते थे।

50 के दशक में बॉल पॉइंट पेन नई नई आई थी और ज्यादातर लोग स्याही वाली फाउंटेन पेन का इस्तेमाल करते थे। बैंक वाले बॉल पॉइंट पॉइंट से लिखे हुए चेक को स्वीकार नहीं करते थे। 

जाते जाते एक बात और बता दूं। उस जमाने में सिनेमा हॉल में सिगरेट पीना मना नहीं था और क्योंकि ज्यादातर युवक सिगरेट पीना  शान समझते थे तो पिक्चर हॉल के अंदर भी सिगरेट का धुआं भरा रहता था। पान की दुकान में भी चारमीनार , कैची यानि सीजर्स , पासिंग शो जैसी सस्ती सिगरेट खूब बिकती थी। पान वाले की लकड़ी की छोटी सी दुकान के एक तरफ एक रस्सी हमेशा सुलगती रहती थी और सिगरेट खरीदने वाले सिगरेट का पैकेट फाड़ कर उसमें से एक सिगरेट निकाल कर उसी समय जलती रस्सी से उसे सुलगा लेते थे और एक कश गहरी सांस लेकर छोड़ते थे।

तो वो जमाना आज के जमाने से बिल्कुल फर्क था । कुछ मायने में अच्छा था कुछ मायने में बुरा था।

 पर याद तो बहुत आती है उस जमाने की।

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Saturday 20 May 2023

लछमय्या जी

लछमैया जी

नौकरी के शुरुआत में ही नागपुर मैं पोस्टिंग हो गई हालांकि कुछ ही समय बाद फरीदाबाद का ट्रांसफर हो गया था।

नागपुर शहर में मैं अजनबी था क्योंकि उत्तर प्रदेश का रहने वाला था। दफ्तर के बाहर कोई पहचान नहीं थी । अनजाना शहर। दफ्तर में भी फरक स्वभाव के लोग थे और उनके  साथ मित्रता करना मुश्किल था।

 ऐसे में मुझसे कोई 20 साल बड़े एक सज्जन मिल गए अपने ही दफ्तर में। मझला कद, स्वस्थ सरल स्वभाव, माथे में आगे से थोड़ा गंजापन, पान के शौकीन आंध्र प्रदेश के थे पर हिंदी अच्छी बोलते थे और हमारे ही दफ्तर के ऑफिसर थे।  नाम लछमय्या जी था । सरल स्वभाव के थे। अकेले थे परिवार नहीं था । राजयोग और हठयोग के बहुत अच्छे ज्ञाता थे। उनके पास अध्यात्म की पुस्तकों का ढेर था । पान खाना खाते थे 90 नंबर के तंबाकू के साथ और मस्त रहते थे। उनके साथ नागपुर मैं दोस्ती शुरू हुई और एक दूसरे के साथ अच्छा तालमेल बैठ गया। 

फिर हम दोनों का ट्रांसफर एक ही साथ फरीदाबाद में एक ही दफ्तर में हो गया तो दोस्ती बनी रही। फरीदाबाद से हम लोग सरकारी कॉलोनी के सीपीडब्ल्यूडी एफ्लैट्स में नजदीकी रहते थे ।इकट्ठे अक्सर दिल्ली जाते रहते थे छुट्टी  के दिनों में।

एक बड़ा रोचक सा किस्सा है लछमय्या जी के साथ का। फरीदाबाद से ट्रेन से दिल्ली जा रहे थे संडे के दिन समय बिताने के लिए। कुछ ऐसा प्लान था कि पहले बंगाली मार्केट पर जाकर कुछ नाश्ता कर लेंगे और फिर कोई से सिनेमा देखेंगे । रास्ते में मेट्रो ब्रिज से पहले ही बंगाली मार्केट के पीछे का हिस्सा पड़ता था पर वहां कोई ट्रेन का स्टॉप नहीं था । प्लान था कि मेट्रो ब्रिज स्टेशन पर उतर जाएंगे ,वहां से पैदल चलकर बंगाली मार्केट आयेंगे और वहां पर  स्वादिष्ट मिठाई और नमकीन का सेवन करेंगे।

तो उस समय जब हम बंगाली मार्केट के पीछे के हिस्से की तरफ पहुंच रहे थे हम लोगों की अध्यात्म पर बातें हो रही थी और ट्रेन के यात्रीगण बहुत गौर से हमारी बात सुन रहे थे । तो बातों ही बातों में लछमय्या जी बोले कि अध्यात्म में  वह शक्ति है कि वह चलती ट्रेन को भी रोक सकता है। 

मैं उस समय कुछ मजाक के मूड में था तो मैंने भी मजाक मैं कहा कि आप कहे तो मैं बंगाली मार्केट के ठीक पीछे ट्रेन को रुकवा सकता हो अध्यात्म से।  हमें बंगाली मार्केट में जाना ही है।

 लछमय्या जी कहने लगे नहीं नहीं ऐसा मत करना। स्पिरिचुअल पावर का इस तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। पर मैं तो मजाक के मूड में था तो मैंने कहा  जी अब तो मैं ट्रेन रुका ही रहा ह।

बात ऐसी थी कि बंगाली मार्केट के ठीक पीछे एक आउटर सिग्नल था जहां पर ज्यादातर ट्रेने आकर रुक जाया करती थीं और मुझे यह बात अच्छी तरह पता थी।

 तो सचमुच आउटर सिग्नल के पास गाड़ी आकर रुक गई। लछमय्या जी  कहने लगे यह क्या काम कर दिया तुमने।

 जब हम ट्रेन से नीचे उतर रहे थे तो ट्रेन के उस डिब्बे में बैठे हुए बाकी लोग बहुत श्रद्धा और आश्चर्य से हमारी तरफ देख रहे थे कि हमारे बीच एक बहुत बड़े गुरु बैठे हुए थे।

लक्षभैया जी जब रिटायर हुए तो वापस आंध्रप्रदेश चले गए और अपने साथ सिर्फ कई बड़े बड़े टीन के बक्से ले गए जो आध्यात्मिक की  किताबों से भरे थे।

ऐसे व्यक्तित्व का पुरुष फिर दोबारा मेरी जिंदगी में कभी नहीं आया।

दिल्ली की पुरानी बातें

कुछ पुरानी बातें दिल्ली की

नौकरी के ज्यादातर साल 
 दिल्ली में ही गुजारे । दफ्तर दिल्ली में होता था  और रहता था फरीदाबाद में ।

फरीदाबाद में उन दिनो फौरन ही एक सरकारी आवास मिल जाता था। दिल्ली में सरकारी आवास मिलने का कोई सवाल ही नहीं था ।इसलिए जब शुरू शुरू में फरीदाबाद दफ्तर ज्वाइन किया तो मकान मिल गया और जब  फरीदाबाद से दिल्ली को ट्रांसफर हो गया तो फरीदाबाद से ही दिल्ली आया जाया  था

तो दिनचर्या यह थी कि सुबह उठे , तैयार हुए और चल पड़े दिल्ली की तरफ । फरीदाबाद के स्टेशन टहलते हुए निकल पड़े।  नजदीक ही था।  फिर पीले रंग की एक लोकल ट्रेन आती थी । उसी में बैठ गए।

उस जमाने में फरीदाबाद से दिल्ली का एक तरफ का किराया लोकल ट्रेन से 50 पैसे था यानी एक महीने  का ₹15।  पर पूरे महीने का सीजन टिकट जिसे एमएसटी कहते थे वह ₹5 में बन जाता था । तो सभी लोग  बनवा लेते थे एमएसटी और स्टेशन पर आकर सीधे ट्रेन में बैठ जाते थे। रोज-रोज टिकट खरीदने का झंझट खत्म।

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से पहले कनॉट प्लेस के मिंटू ब्रिज स्टेशन पर उतर जाते थे जो सुपर बाजार के पीछे था कनॉट प्लेस में। फिर बाहर निकल कर आते थे और सुपर बाजार के परिसर में बाहर एक चाय की दुकान में बैठकर ब्रेकफास्ट करते थे । टोस्ट मक्खन चाय समोसा वगैरह । फिर वहां से 25 पैसे का टिकट लेकर मंत्रालय पहुंच जाते थे।

1965 से 1975 के बीच कनॉट प्लेस में जहां अब अंडर ग्राउंड पालिका बाजार है वहां पर ऊपर एक कॉफी हाउस हुआ करता था। कॉफी हाउस की विशेषताएं थी के वह एक बहुत ही बड़े से टेंट के नीचे था और उसी में एक तरफ ताजा खाने का सामान बनता रहता था सफाई से। खाने का सामान बहुत सस्ता था और लोग वहां बैठकर खूब देर तक गप्पे लड़ाते एक कप कौफी के ऊपर या फिर दोसा,  बड़े इत्यादि का सेवन करते । दफ्तर से शाम को लौटते वक्त वहीं बैठकर चाय पानी कर लेता और फिर मेट्रो ब्रिज स्टेशन से ट्रेन से फरीदाबाद को रवाना हो जाता।

 छुट्टी के दिन तो फरीदाबाद से सीधे आकर वही टेंट वाले कॉफी हाउस में बैठ जाता था और 11:30 बजे के करीब  ओड़ियन या प्लाजा सिनेमा के सामने बाहर spare टिकट खरीदने की कोशिश करता। 

यह भी एक मजेदार अनुभव था। ओडियन या प्लाजा के ठीक बाहर खड़े होकर अंदर जाते हुए लोगों को गौर से देखता । जिन लोगों की आंखें कुछ ढूंढती  हुई नजर आती उनसे पूछता कि उनके पास कोई अतिरिक्त टिकट है।  और ऐसे लोग के ही पास अक्सर फालतू टिकट निकाल आता था और फिर उनके साथ अंदर जाकर पिक्चर का आनंद लेता।

दिल्ली में एक मद्रास होटल हुआ करता था रिवोली के सामने की बिल्डिंग में। ऊपर जाना पड़ता था और वहां एक लंबी गैलरी में कुर्सियां और मेज लगे थे नाश्ता करने वालों के लिए। मद्रास होटल का दोसा काफी लोकप्रिय था।और  जो खाना खाना चाहते उनके लिए एक अलग कमरे में व्यवस्था थी। खाना दक्षिण भारतीय होता था और अच्छी क्वालिटी का होता था। 

उन दिनों कनॉट सर्कस से न्यू दिल्ली रेलवे स्टेशन की ओर 25 पैसे सवारी के हिसाब से तांगे चलते थे और क्योंकि काफी तांगे थे तो फौरन मिल जाते थे। तो कभी-कभी छुट्टी के दिन पिक्चर देखने के बाद नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की तरफ चले जाते थे और फिर वहां पोर्टिको के ऊपर खुली जगह पर बेंत की आराम कुर्सी में बैठकर आराम से ग्रीन लेबल चाय पीते थे । वहां पर बहुत बढ़िया ग्रीन लेबल चाय सही दाम पर मिल जाती थी ।

वह समय आजकल के समय से बहुत फर्क था।

 बहुत जमाना बीत गया है। अब पता नहीं दिल्ली के क्या हाल है । तांगे चलने तो कभी के बंद हो गए हैं । अब तो मेट्रो का जमाना है। हर जगह कंक्रीट के खंबे । खंबे के ऊपर से जाती हुई मेट्रो रेल गाड़ियां आम बात हो गई हैं । 

जिंदगी का वह मजा जो तब था फिर नहीं आ सकता है।


Thursday 18 May 2023

छोटे कलाकारों की बातें

कुछ विचार बॉलीवुड के

बॉलीवुड का नाम आता है तो बड़े-बड़े कलाकार दिमाग पर आ जाते हैं  - देवानंद , दिलीप कुमार, राज कपूर , राजेंद्र कुमार , शम्मी कपूर , राजेश खन्ना , अमिताभ बच्चन , अनिल कपूर वगैरा-वगैरा। बॉक्स ऑफिस पर ज्यादातर फिल्में इन्हीं के दम पर चलती थीं। डायरेक्टर कोई भी हो कहानी कैसी ही हो पर अगर यह फिल्में होते थे तो अपने आप ही बॉक्स ऑफिस में फिल्म को सफलता मिल जाती थी।

पर फिल्म की कहानी में सिर्फ हीरो हीरोइन नहीं होते । एक पूरी फिल्म में हीरो के अलावा भी बहुत कुछ होता है । कई छोटे रोल होते हैं जिनके इर्द-गिर्द कहानी बुनी जाती है और जिनकी अच्छी एक्टिंग पूरी पिक्चर पर प्रभाव डालती है। बहुत से सहायक अभिनेता अभिनेत्री होते हैं और पूरी स्टोरी काफी हद तक उनके कंट्रीब्यूशन पर भी निर्भर करती है।

 बॉलीवुड में कुछ ऐसे निर्देशक हैं  जो एक छोटे कलाकार को  या फिर एक नए कलाकार को बहुत ही अच्छे रूप में पेश कर सकने की क्षमता रखते हैं। यह कहानी को भी  बहुत अच्छे तरीके से स्क्रीन में पेश करते हैं और कलाकार चाहे कितना ही छोटा हो उसके अभिनय को स्वाभाविक और प्रभावकारी बना देते थे।

मिसाल के तौर पर ले लीजिए बासु चटर्जी को जिन्होंने छोटे-छोटे कलाकारों से बहुत बढ़िया काम करवाया।  अमोल पालेकर को ही ले लीजिए । एक अनजाने कलाकार थे और फिल्म छोटी सी बात में  निर्देशक ने उनसे इस खूबी से काम लिया कि यह  यादगार फिल्म बन गई । हिंदी की एक और यादगार फिल्म थी गोलमाल। यह भी बासु चटर्जी द्वारा ही निर्देशित थी और यह बीसवीं सदी की सबसे बढ़िया फिल्मों में से एक है। अच्छे निर्देशक  छोटे से छोटे कलाकार से भी  बहुत अच्छी एक्टिंग करा देता है।

 अब कुछ छोटे कलाकारों की बात भी हो जाए जिन्होंने वैसे तो कोई विशेष नाम नहीं कमाया है पर जिनकी अच्छी एक्टिंग के कारण फिल्मे बहुत सा स्वाभाविक बन जाती हैं।

इनमें से एक हैं युनुस परवेज़ । फिल्म अंगूर में एक सुनार की दुकान में काम करने वाले एक कर्मचारी का किरदार इन्होंने बहुत सुंदर तरीके से निभाया है । या फिर फिल्म  'किसी से ना कहना' मे होटल के मैनेजर का किरदार बखूबी निभाया है। एक और कलाकार हैं सीएस दुबे जिन्होंने फिल्म छोटी सी बात में एक मोटर गैराज के मालिक के रूप में और फिल्म अंगूर में एक सुनार की दुकान के मालिक के रूप में अच्छे स्वाभाविक रोल किए हैं। एक और कलाकार है जावेद खान हैं जिन्होंने फिल्म नरम-गरम में शत्रुघ्न सिन्हा के गैराज में काम करने वाले कर्मचारी और फिल्म   रंग बिरंगी  में ब्लैक टिकट बेचने वाले का धंधा करने वाले का रोल बहुत अच्छी तरह निभाया है।

ऐसे ही एक और कलाकार है अन्नू कपूर। पहली फिल्म एक रूका हुआ फैसला मैं उन्होंने एक 70 साल के बुड्ढे का रोल किया था जिसे उन्होंने बहुत खूबी के साथ निभाया। उसके बाद फिर मुस्कुराहट है उन्होंने बहुत अच्छा काम किया  । फिल्म मिस्टर इंडिया में एक अखबार के दफ्तर में एडिटर के रूप में बहुत ही अच्छा काम किया और 21वीं सदी में फिल्म जौली एलएलबी 2 में और विक्की डोनर में तो कमाल ही कर दिया।

सुपरस्टार  के पास अदाएं होती हैं,  लटके झटके होते हैं डायलॉग बोलने के अजीबोगरीब तरीके होता हैं। इसकी वजह से अपने समय में तो वह बहुत बड़े हो जाते हैं पर 20 साल बाद जब हम उनको दोबारा देखते हैं तो कुछ मजा नहीं आता। और सच पूछा जाए तो देवानंद जैसे कलाकारों के लटके झटके देखकर अब तो हंसी आती है। राजकुमार जैसे कलाकारों के विचित्र अदा से डायलॉग बोलना बहुत बेतुका लगता  है।

पिछले एक दशक से  अच्छे कलाकार सामने नहीं आ रहे हैं। बॉलीवुड का जो नशा था पब्लिक में वह धीरे-धीरे पहले टेलीविजन की वजह से और फिर इंटरनेट की और यूट्यूब की वजह से धीरे-धीरे कम होता जा रहा है और ऐसा लगता है कि आने वाले कुछ दशकों में बॉलीवुड का प्रभाव काफी हद तक समाप्त हो जाएगा।   

प्लास्टिक ही प्लास्टिक

प्लास्टिक ही प्लास्टिक

 100 साल पहले तक कहीं प्लास्टिक का नामोनिशान नहीं था। किसी को पता भी नहीं था कि  प्लास्टिक क्या चीज होती है। उस जमाने में एक प्राकृतिक  पौधे से बनता था गाटापार्चा ।
 फाउंटेन पेन वगैरह में  काम आता था और बहुत ही ज्वलनशील था। गूगल सर्च कीजिए तो पता चल जाएगा  क्या था।

हां तो  बात प्लास्टिक की हो रही है। मुझे याद है मेरी बचपन में सरसों का तेल लोहे के टीन में आता था। उस जमाने में क्वेकर ओट्स विदेश से आता था और टीन के डिब्बे में होता था और तो और 1947 से पहले बिस्किट भीउ इंग्लैंड से ही आते थे और टीन के डिब्बे में होते थे। 

आजकल कार की सीटें प्लास्टिक की होती है पुराने जमाने में चमड़े की होती थी। अब तो टेबल फैन और सीलिंग फैन भी प्लास्टिक के आने लगे हैं
 पर तब स्टील के होते थे। मेरा पहला टेबल फैन बहुत ही भारी स्टील का था।सं

ज्यादातर चीज  अब  फैक्ट्री में ही बनती है। कपड़े पहनते हैं आप जो वह भी प्लास्टिक टाइप की ही चीज से बनते हैं जिसे पॉलिस्टर कहते हैं प्राकृतिक कपास या ऊन से नहीं बनते। काफी हद तक आपका फर्नीचर प्लास्टिक का है आपकी कटलरी क्रोकरी प्लास्टिक की है ।आप के पंखे प्लास्टिक के। खाने-पीने का जितना पदार्थ आता है चाहे वह बोतल में हो या फिर पैकेट में हो वह सब भी प्लास्टिक मे ही पैक होता है । घर में काम आने वाले रेफ्रिजरेटर के अंदर प्लास्टिक की लाइनिंग होती है प्लास्टिक के शेल्फ होते हैं। कारों और स्कूटर में भी प्लास्टिक का बहुत अधिक इस्तेमाल होता है ।आपके मोबाइल फोन प्लास्टिक के होते हैं। घर में इस्तेमाल होने वाले बिजली के तार मैं भी प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है। फेरी वालों से जब सब्जी या फल खरीदते हैं तब वो प्लास्टिक के थैलों का ही भरकर आपको देते हैं। जब दवाइयां खरीदते हैं वह भी प्लास्टिक के  strips  में बंद होती है।

क्या प्लास्टिक को हम अपनी जिंदगी से निकाल सकते हैं। नहीं लगता है कि यह कभी संभव है क्योंकि प्लास्टिक इसी तरह हमारे जीवन की जरूरतों में आ गया है कि उसे निकाल देना करीब-करीब असंभव ही है । 

कई बार हुई है कोशिश पर प्लास्टिक को आम जिंदगी से दूर करना लगभग असंभव हो गया है ।

इसलिए जरूरी यही है किस तरह के प्लास्टिक का निर्माण किया जाए जो बायोडिग्रेडेबल हो याने बाहर फेंके जाने पर जल्दी ही मिट्टी में घुल मिल जाए और प्रकृति को नुकसान न पहुंचाए । अब धीरे-धीरे ऐसे एंजाइम्स ढूंढे जा रहे हैं और मिल भी रहे हैं जो प्लास्टिक को बहुत जल्दी ही प्रकृति में नष्ट करने की क्षमता रखते हैं.

https://en.m.wikipedia.org/wiki/Biodegradable_plastic#:~:text=Biodegradable%20plastics%20are%20plastics%20that,or%20combinations%20of%20all%20three.
 भविष्य में हर चीज में ऐसे ही प्लास्टिक का इस्तेमाल होने पर हमारा भविष्य खतरे में नहीं पड़ सकता है और हमारी यही कोशिश होनी चाहिए कि कभी भी नष्ट ना होने वाले प्लास्टिक का इस्तेमाल न करके इस तरह के प्लास्टिक को प्रचलित करें ‌।

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