लछमैया जी
नौकरी के शुरुआत में ही नागपुर मैं पोस्टिंग हो गई. उस जमाने में नागपुर का मॉडर्न इलाका बहुत खुला हुआ था पेड़ों से भरा था साफ सुथरा था और मुझे शहर बहुत पसंद आया।l
नागपुर शहर में मैं अजनबी था क्योंकि उत्तर प्रदेश का रहने वाला था। दफ्तर के बाहर कोई पहचान नहीं थी । अनजाना शहर। दफ्तर में भी फरक स्वभाव के लोग थे और उनके साथ औपचारिक मित्रता ही थी।
नागपुर के अपने दफ्तरम ही मुझसे कोई 20 साल बड़े एक सज्जन थेअपने ही दफ्तर में। मझला कद, स्वस्थ सरल स्वभाव, माथे में आगे से थोड़ा गंजापन, पान के शौकीन आंध्र प्रदेश के थे पर हिंदी अच्छी बोलते थे। नाम था लछमय्या जी । अकेले रह है थे । परिवार गांव मै था । राजयोग और हठयोग के बहुत अच्छे ज्ञाता थे। उनके पास अध्यात्म की पुस्तकों का ढेर था । रोज सुबह योगाभ्यास और meditation करते थे। पान खाते थे 90 नंबर के तंबाकू के साथ और मस्त रहते थे। उनके साथ नागपुर मैं दोस्ती शुरू हुई और एक दूसरे के साथ अच्छा तालमेल बैठ गया। उनके संपर्क में आने के बाद मैंने तिब्बतन योग पर उनसे लेकर बहुत पुस्तक पढ़ी।
फिर हम दोनों का ट्रांसफर एक ही साथ फरीदाबाद में एक ही दफ्तर में हो गया । फरीदाबाद से हम लोग सरकारी कॉलोनी के सीपीडब्ल्यूडी फ्लैट्स में नजदीकी रहते थे ।इकट्ठे अक्सर दिल्ली जाते रहते थे छुट्टी के दिनों में।
एक बड़ा रोचक सा किस्सा है लछमय्या जी के साथ का। फरीदाबाद से ट्रेन से दिल्ली जा रहे थे संडे के दिन समय बिताने के लिए। हम लोगों के पास सीजन टिकट हुआ करता था ट्रेन का। कुछ ऐसा प्लान था कि पहले बंगाली मार्केट पर जाकर कुछ नाश्ता कर लेंगे और फिर का Connaught place में मूवी देखेंगे ।
रास्ते में minti bridge से पहले ही बंगाली मार्केट के पीछे का हिस्सा पड़ता था पर वहां कोई ट्रेन का स्टॉप नहीं था । प्लान था कि मिंटो ब्रिज स्टेशन पर उतर जाएंगे ,वहां से पैदल चलकर बंगाली मार्केट आयेंगे और वहां पर नाश्ता करेंगे।
तो उस समय जब हम बंगाली मार्केट के पीछे के हिस्से की तरफ पहुंच रहे थे हम लोगों की अध्यात्म पर बातें हो रही थी और ट्रेन के यात्रीगण बहुत गौर से हमारी बात सुन रहे थे । तो बातों ही बातों में लछमय्या जी बोले कि अध्यात्म में वह शक्ति है कि वह चलती ट्रेन को भी रोक सकता है।
मैं उस समय कुछ मजाक के मूड में था तो मैंने भी मजाक मैं कहा कि आप कहे तो मैं बंगाली मार्केट के ठीक पीछे ट्रेन को रुकवा सकता हो अध्यात्म से। हमें बंगाली मार्केट तो जाना ही है।
लछमय्या जी कहने लगे नहीं नहीं ऐसा मत करना। स्पिरिचुअल पावर का इस तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। पर मैं तो मजाक के मूड में था तो मैंने कहा जी अब तो मैं ट्रेन रुका ही रहा हूँ।
बात ऐसी थी कि बंगाली मार्केट के ठीक पीछे एक आउटर सिग्नल था जहां पर ज्यादातर ट्रेने आकर रुक जाया करती थीं और मुझे यह बात अच्छी तरह पता थी।
तो सचमुच आउटर सिग्नल के पास गाड़ी आकर रुक गई। लछमय्या जी कहने लगे यह क्या काम कर दिया तुमने।
जब हम ट्रेन से नीचे उतर रहे थे तो ट्रेन के उस डिब्बे में बैठे हुए बाकी लोग बहुत श्रद्धा और आश्चर्य से हमारी तरफ देख रहे थे कि हमारे बीच एक बहुत बड़े गुरु बैठे हुए थे।
लक्षभैया जी जब रिटायर हुए तो वापस आंध्रप्रदेश चले गए और अपने साथ सिर्फ कई बड़े बड़े टीन के बक्से ले गए जो आध्यात्मिक की किताबों से भरे थे।
ऐसे व्यक्तित्व का पुरुष फिर दोबारा मेरी जिंदगी में कभी नहीं आया।
***
No comments:
Post a Comment