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Saturday 10 December 2022

पुरानी बातें रेलगाड़ी वाली

एक जमाने में रेलगाड़ी की यात्रा में अक्सर आंख में  रेल के इंजन से निकलने वाले धुंए के कोयले के  कण घुस जाते थे और परेशानी होती थी। इसीलिए  उस जमाने में फर्स्ट क्लास के डिब्बों में  खिड़कियों में कांच और लकड़ी shutters के अलावा एक लोहे की जाली का भी shutter  होता था  ताकि कोयले के कण अंदर नहीं आ पाए।

तब ट्रेनें बहुत कम थी और यात्री भी इतने नहीं होते थे।  जंक्शन वाले बड़े स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर वन में कम ही ट्रेन आती थी। पैसेंजर ट्रेन को जिसमे ज्यादातर गांव के गरीब आदमी ही सफर करते थे प्लेटफार्म नंबर तीन या चार पर डाल दिया जाता । 

 जंक्शन स्टेशन के चौड़े साफ सुथरे  लंबे प्लेटफार्म से अच्छी जगह सैर करने की शहर में और कोई नहीं होती थी। एक तो प्लेटफार्म बहुत साफ-सुथरे होते थे और लंबे होते थे फिर घूमते घूमते आप  कुल्लड़ वाली चाय पी सकते थे और प्लेटफार्म में मैगजीन और अखबार के स्टॉल में जाकर अपने पसंद का अखबार या मैगजीन खरीद सकते थे।
अक्सर वहां दोस्तों से भी मुलाकात हो जाती थी।

बचपन में हम कभी कभी प्लेटफार्म की सैर कर लेते थे अपने पापा के साथ या फिर अपनी दीदी या छोटी बहिन कान्ता के साथ और चंदा मामा जैसी मैगजींस खरीद कर लाते थे। वहां के टिकट चेकर त्रिपाठी जी हमारी जान पहचान के थे और प्लेटफार्म टिकट हम नही खरीदते थे। वैसे भी तब प्लेटफार्म टिकट के बिना भी लोग प्लेटफार्म पर जाते थे। उस जमाने में प्लेटफॉर्म टिकट एक आने का (छह पैसे का) होता था ।

रेल की बात आती है तो रेलवे कॉलोनी की बात भी आनी चाहिए।  उस जमाने में शहर की सबसे खूबसूरत कॉलोनी रेलवे कॉलोनी ही होती थी जहां साफ-सुथरे मकान होते थे , रेलवे में काम करने वालों के लिए खेल के मैदान होते थे, शहर की सबसे बढ़िया सड़कें होती थी और उन पर सबसे ज्यादा रोशनी देने वाली लाइट होती थी।

जी हां रेलवे कॉलोनी भी सैर करने के लिए अच्छी जगह थी पर वहां सन्नाटा होता था। प्लेटफार्म का मजा ही कुछ और था। चहल पहल थी ट्रेन आती-जाती दिखाई देती थी चाय की दुकानें थी किताबों की दुकानें थी

तब ज्यादातर लोगों के सामान में लोहे का एक ट्रक और एक होल्डॉल जरूर होता था और परिवार के लोग प्लेटफार्म पर अक्सर ट्रंक और होल्डॉल के ऊपर बैठ कर ट्रेन का इंतजार करते हुए नजर आते थे।

तब लोग घर से खाना बना कर लाते थे ट्रेन में खाने के लिए । प्लेटफार्म में मिलने वाली चीजें कभी खाते थे हां चाय तो सभी पीते थे और तब चाय मिट्टी के कुल्हड़ में होती थी प्लास्टिक के कप में नहीं और मिट्टी के कुल्हड़ की चाय की सोते-सोते खुशबू अपने आप में एक बहुत ही अच्छा एहसास था। 

रात की ट्रेन चलते के बाद परिवार के साथ जाने वालों के टिफिन केरियर खुलने लगते थे और पूरी की चटपटी सब्जी की और अचार की खुशबू पूरे डिब्बे में भर जाती थी तब जो लोग अगले स्टेशन पर प्लेटफार्म से खरीद कर खाना खाने का इंतजार कर रहे होते थे उनकी भूख और भी ज्यादा बढ़ जाते थे। 

कई ऐसे स्टेशन थे जो खाने-पीने के सामान की वजह से प्रसिद्ध हो गए थे जैसे संडीला स्टेशन के लड्डू (संडीला स्टेशन उत्तर प्रदेश में लखनऊ और हरदोई के बीच में पड़ता है)।  दक्षिण भारत की रेल यात्रा में इटारसी स्टेशन में एक जमाने में बहुत ही बढ़िया दूध मिलता था और ज्यादातर लोग वहां ट्रेन के रुकने पर जायकेदार दूध ही पीना पसंद करते थे। वैसे ही चेन्नई जाने में (जिसको तब मद्रास कहते थे) रास्ते में एक बहुत छोटा स्टेशन पड़ता है नेल्लौर का। वहां के प्याज वाले चटपटे दाल बड़े बहु ही स्वादिष्ट होते थे। लखनऊ से नैनीताल एक्सप्रेस काठगोदाम जाने पर सुबह हल्द्वानी से कुछ पहले लाल कुआं स्टेशन पहुंचा था जहां पर गाड़ी बेड डबल इंजन लगता था क्योंकि वहां से थोड़ी चढ़ाई शुरू हो जाती थी इसमें कुछ वक्त लग जाता था इसलिए ट्रेन काफी देर रुकती थी। वहां पर सुबह-सुबह बढ़िया जलेबी मिलती थी और दूध जलेबी का नाश्ता करने वाले काफी शौकीन होते थे ट्रेन में ऐसे और भी स्टेशन होंगे जिन्हें खाने पीने की चीजों की वजह से याद किया जाता है पर मुझे अब कुछ याद नहीं है। हां बड़ौदा स्टेशन पर एक बार खाने की थाल का आर्डर दिया था। जब खाना आया और मैंने एक चम्मच डाल मुंह में डाली तो नमक के साथ चीनी का भी स्वाद आया। फिर पता चला कि गुजरात में खाने में मीठा मिलाने का भी रिवाज है। 

बाकी फिर कभी। आज के लिए इतना ही।

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Friday 9 December 2022

कुछ इधर की कुछ उधर की

कुछ इधर की कुछ उधर की

Q.  घोड़ा क्यों अड़ा ?  पान क्यों सडा ?
Ans    फेरा न था

आपने देखा होगा कि तांगे वाले या घुड़सवार घोड़े की गर्दन पर हाथ फेरते रहते हैं जिससे घोड़े का मूड ठीक रहता है वैसे ही पान की दुकान वाले पान के पत्तों को उलट-पुलट करते हैं ताकि वह सड़ न जाए

Q. पथिक प्यासा क्यों ? गधा क्यों उदास ?
Ans. लोटा न था 


मतलब यह कि पंडित के पास लोटा न था इसलिए वह कुएं से निकालकर पानी नहीं पी पाए और प्यासे रह गए और गधा ने जमीन पर लोट पोट नही की इसलिए उदास था।

Q जूता नहीं भाया ? समोसा नहीं खाया ?
 Ans. तला ना था

मतलब यह कि समोसा कच्चा था । तला हुआ नहीं था और जूते के नीचे तल्ला यानी सोल नही था।

ये थे  अपने बचपन के वह सवाल जिनका एक ही जवाब होता था ।
ऐसे शायद बहुत से सवाल होंगे।

उस जमाने में मोबाइल फोन नहीं थे । इंटरनेट नहीं था । जब चार लोग जब इकट्ठा होते थे और टाइम पास करना होता था तो गप्प लड़ाते थे। ताश खेलते थे । कैरम खेलते थे । चुटकुले सुनाते थे या फिर पहेलियां बुझाते थे।

आजकल तो चार दोस्त अगर किसी रेस्ट्रो में बैठे हैं तो हर एक की खोपड़ी नीचे को झुकी होती है अपने मोबाइल की तरफ और उंगलियां मोबाइल के स्क्रीन पर चिपकी होती  हैं। आपस में ना कोई बातचीत, न गपशप,  न किसी को यह होश है कि आसपास क्या हो रहा है।

जैसा मैंने ऊपर दो पहेलियां लिखी है क्या आपको भी ऐसी कुछ पहेली याद है जिसमें 2 सवालों का एक ही जवाब हो ?

एक और बात दिमाग में आती है।  किसी शहर में छोटी बड़ी सड़कों के नाम होते हैं। इनमें कुछ नाम ऐसे कैसे होते हैं जिनके बारे में कुछ पता ही ना हो ?

मिसाल के तौर पर ले लीजिए तो महानगर लखनऊ में एक छन्नी लाल का चौराहा है।  अब यह छन्नी लाल कौन थे ? 

वैसे ही क्ले स्क्वायर के बीच से होता हुआ एक रास्ता जाता है जिसका नाम है खलीफा ईदुलजी मार्ग।  अब यह खलीफा साहब कौन थे?

 वैसे ही लखनऊ में ही एक झाऊ लाल का पुल है तो भाई यह झाऊ लाल कौन थे ? 

इन बातों पर भी कुछ विचार कीजिएगा।

एक और बात दिमाग में आती है । एक जमाने में कुछ चीजें किसी शहर से ही जुड़ी होती थी। तो उस जगह में ऐसी क्या खास बात थी कि वह चीज उसी जगह की प्रसिद्ध थी ?

 जैसे संडीला के लड्डू, अलीगढ़ के ताले ,खुर्जा का घी, बनारस की साड़ियां, मिर्जापुर की दरी और कालीन, मथुरा के पेड़े , दिल्ली घंटाघर का सोहन हलवा,  बीकानेर की भुजिया, आगरे का पेठा, मुरादाबाद के बर्तन।

चलते-चलते आपसे एक पहेली पूछ लेता हूं उसका जवाब बताइए

एक मुर्गा चश्मे श्याही चलते चलते थक गया
लाओ चाकू काटो गर्दन फिर वह चलने लग गया।

इसका जवाब शायद वही लोग दे पाए जो उस जमाने के हैं जब बॉल पॉइंट पेन और फाउंटेन पेन नहीं होती थी।

क्योंकि आप में से कोई इसका जवाब नहीं बता पाएगा इसलिए मैं ही बता देता हूं ।

एक जमाने में स्कूल में लिखने के लिए जो कलम होती थी वह नरकुल नाम की लकड़ी की होती थी जिसको आगे से तिरछा काटा जाता था फाउंटेन पेन जैसी नोक मनाई जाती थी और नोक को चाकू से चीरा जाता था।

और फिर  श्याही की दावात में डूबो कर लिखा जाता था । पर कुछ समय बाद उसे फिर से काटना पड़ता था जब नोक घिस जाती थी।

बातें तो और भी हैं पर फिर कभी।

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Tuesday 29 November 2022

हिंदी फिल्मों के हास्य कलाकार

 फिल्में काफी लंबी होती है । पिक्चर हॉल के अंदर  3 घंटे तक पिक्चर देखने वाला इंसान  बोर हो जाता है डायलॉगबाजी से और ड्रामा से। ऐसे में आवश्यक होता है कि फिल्म में कुछ ऐसी स्थिति लाई जाए कि वह थोड़ा सा फर्क महसूस कर सकें थोड़ा हंस सके थोड़ा रिलैक्स हो सके । ऐसे में एक विदूषक यानी कॉमेडियन की बहुत जरूरत होती है और कॉमेडियन हमेशा से हिंदी फिल्मों का हिस्सा रहा है ।

50 के दशक के शुरू में हिंदी फिल्मों में जिन हास्य कलाकारो का हाथ रहा उनमें आगा और मिर्जा मुसर्रफ प्रमुख है। मिर्जा साहब अपने टेढ़ी-मेढ़ी  जबड़े की एक्सरसाइज के साथ डायलॉग बोलते थे और हंसाते थे। आगा ज्यादा अच्छे कॉमेडियन थे और अपने चेहरे के एक्सप्रेशन से ही लोगों को हंसा दिया करते थे । 50 के दशक शुरू होने के कुछ समय बाद जॉनी वॉकर एक कॉमेडियन के रूप में आए और उन्होंने अपनी पक्की जगह बना ली । उनकी उस जमाने की मशहूर फिल्में टैक्सी ड्राइवर सीआईडी और मिस्टर एंड मिसेस 55 आदि रही है ।

1960 का दशक शुरू होते ही राजेंद्रनाथ आ गए मेडियन के रूप में और दिल देके देखो फिल्म से उन्होंने अपना स्थान बना दिया

जहां जाने वाकर एक इंटेलिजेंट कॉमेडियन के रूप में दिखाई देते थे वही राजेंद्र नाथ एक बेवकूफ के रूप में एक्टिंग करने में माहिर थे। जॉनी वॉकर की तरह राजेंद्रनाथ ने भी काफी लंबे समय तक राज किया उसके बाद 70 के दशक में महमूद आ गए पर्दे पर और उन्होंने दूसरों को बेवकूफ बनाकर लोगों को हटाया। उनकी देखने लायक फिल्मों में प्यार किए जा हमजोली मुझे अभी तक याद है फिरअसरानी साहब का आगमन हुआ। असरानी शायद सबसे ज्यादा देर तक टिकने वाले कॉमेडियंस में से एक थे और हमेशा फर्क फर्क तरह की एक्टिंग करके मनोरंजन किया करते थे जबकि राजेंद्रनाथ एक ही टाइप में माहिर थे । कुछ और कलाकारों का नाम लिया जा सकता है पर वह ज्यादा पॉपुलर नहीं हुए और कुछ भी फिल्मों में दिखाई दिया। इनमे पेंटल सतीश शाह मुख्य थे। एक और हास्य कलाकार हैं जो सिर्फ एक टाइप की एक्टिंग करते थे शराबी की और उनका नाम है केस्टो मुखर्जी।

कुछ और नाम है हास्य कलाकारों के जो याद आ रहे हैं । इनमें उत्पल दत्त ओम प्रकाश और केस्टो  मुखर्जी प्रमुख हैं । फिल्म गोलमाल में तो यह तीनों ही लोग थे और वह फिल्म शायद अपने टाइप की अकेली ही फिल्म थी बहुत ही मनोरंजक।

 80 के दशक के अंत में जॉनी लीवर ने बॉलीवुड में प्रवेश किया। वह पहले  एक उच्च कोटि के मिमिक आर्टिस्ट के रूप में और बाद में एक कॉमेडियन के रूप में आए। वह अपनी लाउड एक्टिंग के लिए मशहूर थे यानि इनका हंसाने का तरीका था जोर जोर से चिल्ला कर डायलॉग बोलना।  इसके बाद जो नाम सामने आता है वह  है राजपाल यादव । इनकी बिल्कुल अलग ही तरह की कॉमेडी थी और शुरू में बहुत ही प्रभावशाली रहे जैसे फिल्म हंगामा में।

आगे का इतिहास फिर कभी।

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Saturday 26 November 2022

शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता

हमारी स्कूली शिक्षा

स्कूल में हमें पढ़ाया जाता है कि मोहम्मद तुगलक को क्यों पागल कहते थे। स्कूल में हमें पढ़ाया जाता है कि प्राचीन रोम के पतन के क्या कारण थे। स्कूल में हमें यह पढ़ाया जाता है कि इंग्लैंड के कवि वर्ड्सवर्थ कीट्स और शैली अपनी कविताओं में क्या कहते थे । स्कूल में हमें यह पढ़ाया जाता है कि वीर रस,  सौंदर्य रस इत्यादि के हिंदी के कौन कवि थे । स्कूल में हमें लड़ाइयां के बारे में पढ़ाई जाता है _पानीपत का युद्ध, प्लासी का युद्ध,सिकंदर का भारत पर आक्रमण, नादिर शाह ने कैसे भारत में आकर लूट मचाई, तैमूर का आक्रमण इत्यादि।

स्कूल में हमें यह नहीं पढ़ा जाता है कि हम अपना स्वास्थ्य कैसे अच्छा रख सकते हैं । स्कूल में हमें यह नहीं बताया जाता कि हम को किस तरह अपना खानपान रखना चाहिए ताकि स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकें स्कूल में हमें यह नहीं पढ़ा जाता है कि हमारे शरीर कैसे काम करता है । स्कूल में हमें यह नहीं पढ़ाया जाता कि घर में छोटी मोटी चीजों की मरम्मत हम खुद कैसे कर सकते हैं । और स्कूल में यह नहीं पढ़ाया जाता कि जिस कानून का हमें पालन करता है वह कानून क्या है । कानून की शिक्षा तो m.a. तक कहीं नहीं होती। अलग से एलएलबी करना होता है और हम से यह अपेक्षा की जाती है कि हम कानून का पालन करेंगे।

देखा जाए तो यह शिक्षा पद्धति हमारी जीवन शैली में खरी नहीं उतरती । और उतरे भी कैसे ? यह शिक्षा पद्धति तो उन अंग्रेजों की देन है जिन्होंने भारत में शिक्षा इस उद्देश्य से देनी शुरू की कि उन्हें दफ्तरों में काम करने वाले बाबू मिल जाए।

एक जमाने में ब्रिटेन बहुत बड़ी समुद्री ताकत हुआ करता था।  उस जमाने में वायु सेना तो होती ही नहीं थी तो अपनी नौसेना के बल पर अंग्रेजों ने विश्व के कई देशों को अपना गुलाम बनाया और इन देशों में से जहां जलवायु उसके रहने लायक थी वहां बड़ी संख्या में नरसंहार करके उसे अपना देश बना दिया । जैसे यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका कनाडा ऑस्ट्रेलिया और साउथ अफ्रीका । पर भारत एक ऐसा देश है जहां की जलवायु उसके रहने लायक नहीं थी पर जहां अनाज था कोयला था लोहा था चीनी थी और भी बहुत सी चीजें थी जिनका व्यापार करके वह बहुत धनी हो सकता था। इन सब काम करने के लिए उसे ब्रिटेन से बड़ी संख्या में देशवासी नहीं मिल सकते थे क्योंकि इस गर्म देश में कोई बसना नहीं चाहता था । यह उचित समझा गया कि देश के  लोगों को अंग्रेजी शिक्षा दी जाए ताकि छोटे पदों पर क्लर्क और सुपरवाइजर का काम करने के लिए उसे पर्याप्त मात्रा में लोग मिल जाएं । यहीं से अंग्रेज शासकों की जरूरत पूरी करने वाली शिक्षा की शुरुआत होती है।

भारत की स्वाधीनता के बाद इस बात की बड़ी आवश्यकता थी कि देश की शिक्षा पद्धति में मूलाधार परिवर्तन किया जाए पर हुआ यह कि जिस अंदाज से तब तक शिक्षा दी जा रही थी, वही सिलसिला चलता रहा।  नतीजा यह है कि हमें अपने कानून का ज्ञान नहीं है । हमे अपने शरीर विज्ञान का ज्ञान नहीं है हमें आयुर्वेद की चमत्कारी जड़ी बूटियों का ज्ञान नहीं है। हमें यह नहीं पता है कि घर की छोटी-मोटी चीजों के मरम्मत हम खुद कैसे कर सकते हैं। स्कूल में ऐसा कोई हुनर नहीं सिखाया जाता जिससे हम अपना रोजगार शुरु कर सके अपने आजीविका कमा सके। लड़का हाई स्कूल में फर्स्ट डिवीजन में पास हुआ और आगे भी फर्स्ट डिवीजन देता हुआ एम ए में इतिहास प्रथम श्रेणी में पास होकर जब तैयार हुआ तो नौकरी के लाले पड़ गए। वही एक दर्जी की दुकान वाला लड़का या एक मोटर मैकेनिक का लड़का हाईस्कूल पास करके अच्छे खासे पैसे कमाने लगा क्योंकि जो शिक्षा उसे स्कूल देने में असमर्थ था वो उसके घरवालों ने उसे दे दी। 

होना यह चाहिए की 12वीं क्लास तक आपको ऐसी शिक्षा दी जाए जिससे आप अपने रोजी-रोटी खुद कमा सकें और नौकरी के लिए आपको सरकार का मुंह नहीं ताकना पड़े। और जो लोग आगे अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए पढ़ना चाहते हैं या शिक्षा के क्षेत्र में या किसी और में उच्च शिक्षा लेना चाहते हैं वह ले सकते हैं पर अगर वह ना लेना चाहे तब भी एक सम्मानित जीवन व्यतीत करने योग्य बने रहें 12वीं पास करके । उस उच्च शिक्षा से क्या फायदा यदि उसने यही ज्ञान दिया है अंग्रेजी साहित्य के कवि और उपन्यासकारों की रचनाओं की किस तरह से विवेचना की जाए।

हमारी शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए क्या हम आत्मनिर्भर बन सकें समय आने पर अपनी आजीविका कमा सकते हैं इस लायक बन सके कि अपने परिवार को एक सम्मानित जीवन दे सकें और इसके लिए हमारी शिक्षा पद्धति में मूलाधार परिवर्तन की आवश्यकता है।

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Friday 25 November 2022

खीमा की कहानी (भाग 3)

 खीमा की कहानी भाग 3

खीमा के पिताजी का ट्रांसफर टेहरी गढ़वाल हो गया था और उन्होंने जुलाई के शुरू में गोरखपुर छोड़ दिया। खीमा ने लखनऊ में एम ए में  एडमिशन ले लिया था लखनऊ यूनिवर्सिटी में।  उसकी दो बहनो को भी लखनऊ आना पड़ा क्योंकि टेहरी गढ़वाल में उच्च शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। उन्होंने महिला विद्यालय में एडमिशन ले दिया और हॉस्टल में रहने लगी‌

उसे नरेंद्र देव हॉल छात्रावास में एक सिंगल रूम मिल गया। हॉस्टल नया बना हुआ था। साफ-सथरी अच्छी बिल्डिंग थी।
 और कमरे भी अच्छे थे जहां दीवार की अलमारी (बंद करने वाली) और छत पर सीलिंग फैन भी था जो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में नही था

 अमरनाथ झा हॉस्टल और नरेंद्र देव हॉस्टल दोनों में जमीन आसमान का अंतर था बिल्डिंग में भी और वहां की लाइफ में भी। अमर नाथ झा हॉस्टल की बिल्डिंग 100 साल पुरानी थी । पत्थर की थी । काफी सुंदर थी कलात्मक। पर आधुनिक हॉस्टलों जैसी सुविधाएं नहीं थी जैसा  नए हॉस्टल्स में होती थी । पर हॉस्टल की लाइफ भाईचारे वाली थी । सभी लोग एक दूसरे को जानते थे । मिलने पर हेलो होती थी और सब लोग कॉमन हॉल में अक्सर मिलते रहते थे। हॉस्टल की अपनी क्रिकेट, टेबल टेनिस वगेरह की टीम थे जो टूर्नामेंट में हिस्सा लेती थी।

नरेंद्र देव हॉस्टल में कोई भाईचारा जैसी चीज नहीं थी। ऐसा लगता था अजनबी लोग एक धर्मशाला में रह रहे हैं । किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है । जिसको सोशल लाइफ कहते हैं वह पूरी तरह से गायब थी।

  इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में खीमा का कोई अपना रिश्तेदार नहीं था । वहां पूरा समय हॉस्टल के दोस्तों के साथी व्यतीत होता था
। यहां लखनऊ में रिश्तेदार थे बड़े मामा  छोटे माना और मौसी जो हुसैनगंज के पास मुरली नगर में रहते थे।

एक और बड़ा फर्क था दोनों हॉस्टल की स्टाइल में। म्योर हॉस्टल के दस कदम पर कटरा बाजार शुरू होती थी और यूनिवर्सिटी रोड पर भी काफी दुकानें थी  गेट से बाहर निकलते ही यूनिवर्सिटी रोड की छोटी सी बाजार आ जाती थी जहां रोजमर्रा के काम की हर चीज मिलती थी।  जगाती का रेस्त्रां , डबल रोटी मक्खन, जनरल मर्चेंट की दुकान और किताबों का बड़ा बाजार।  आप  बाहर निकलते ही दुकानों से जरूरत की चीज खरीद सकते थे ।  यूनिवर्सिटी का अपना छोटा सा अस्पताल भी था जो  हॉस्टल के बगल में ही था ।

नरेंद्र देव हॉस्टल लखनऊ यूनिवर्सिटी की मुख्य बिल्डिंग के पीछे मेन रोड से बहुत ही दूर था जहां से आपको एक लंबी सूनी सड़क चल कर जाना पड़ता था तब आप मुख्य सड़क पर आते थे। मुख्य सड़क पर भी दूर-दूर तक सन्नाटा था। वहां पर न तो कोई रिक्शा था ना कोई यातायात का साधन। हॉस्टल के गेट पर की तो बात छोड़िए, लंबी दूरी चलकर भी जब यूनिवर्सिटी के मेन गेट से बाहर आते थे वहां पर भी कोई रिक्शा नहीं थी जबकि म्योर हॉस्टल के गेट पर रिक्शेवाले खड़े रहते थे। सामान खरीदने की बात करें तो आस पास एक कप चाय पीने की भी व्यवस्था नहीं थी किताबों की दुकान अमीनाबाद में थी वहां से कई मील दूर था। बाजार भी  दूर।

ऐसे में यह जरूरी हो गया था कि एक साइकिल हो जिसके आना-जाना मुश्किल ना हो । तो यहां खीमा को अपने पापा की पुरानी मजबूत साइकल लाना जरूरी हो गया।

साइकिल आते ही यातायात की समस्या दूर हो गई। हॉस्टल की तो कोई अपनी जिंदगी थी नहीं इसलिए वह अक्सर साइकिल मैं पेडल मारता हुआ अपने मामा जी के घर पहुंच जाता था और वही गपशप लगाता रहता था। 

उसकी दो बहनें उसी के साथ लखनऊ आ गई थी और उन्होंने महिला विद्यालय में एडमिशन ले लिया था वह भी शनिवार की शाम को मामा जी के घर आ जाती थी और सोमवार की सुबह को अपने हॉस्टल में वापस चली जाती थी‌। इसलिए हर शनिवार और रविवार को वह मुरलीनगर चला जाता था।

नरेंद्र देव हॉस्टल में एक ही मेस था जो कि यूनिवर्सिटी द्वारा चलाया जाता था और जिस का खाना बहुत चौपट मिलता था। यह पता नहीं कि खीमा सुबह का नाश्ता और शाम की चाय का नाश्ता का जुगाड़ कैसे और कहां करता था। शायद मेस में चाय और टोस्ट भी मिलते हो पर निश्चित नहीं है। लखनऊ के हॉस्टल में कोई डबल रोटी मक्खन पेस्ट्री केक वाला भी नहीं आता था। 

 एक तरह से नरेंद्र देव हॉस्टल एक धर्मशाला सी थी।

एम ए  के दो साल मैं हॉस्टल में कोई  याद रखने वाली खास बात नही हुई। हां, खीमा ने डायनिंग हॉल के बाहर लगे नोटिस बोर्ड पर कभी-कभी कुछ नोटिस चिपकाने शुरू किए जिसमें टेबल टेनिस संबंधित सूचनाएं दी जाती थी।  लोगों को यह आईडिया पसंद आया। खीमा टेबल टेनिस का शौकीन था और आते ही उसके टेबल टेनिस खेल की शुरूआत कर दी ‌‌। हॉस्टल में दिल्ली यूनिवर्सिटी से बी ए करके एक लड़का आया था जिसका नाम उसका चुटकी वाला वर्मा रखा था और जो अच्छी टेबल टेनिस खेलता था। दोनों ने मिलकर हॉस्टल के लड़कों में टेबल टेनिस के प्रति दिलचस्पी पैदा की और फिर उसने फाइनल ईयर में एक टेबल टेनिस प्रतियोगिता भी रखी हॉस्टल की जिसमें हॉस्टल के लड़कों ने भाग लिया

 और इस प्रतियोगिता में उसका टेबल टेनिस पार्टनर फाइनल मैच में विजई हुआ और उसको रनर्स अप का कप मिला। दोनों सालों में यही नतीजा रहा और 2 साल के अंत में फौज के जनरल थोराट के हाथों प्राइज डिसटीब्यूशन कराया गया जिसमें ढेर सारे कप खीमा और उसके दोस्त को मिले।

उन दो सालो में उसके पिता टेहरी गढ़वाल जिले में कार्यरत थे और उसके एम ए के अंतिम दो महीनों के दौरान उसके पिता का ट्रांसफर लखनऊ हो गया। इसलिए m.a. का इम्तिहान देने के बाद और लखनऊ में अपने पापा के पास ही आ गया और यहां से उसका नौकरी की तलाश में इम्तहान देने का सिलसिला शुरू हुआ।

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Tuesday 22 November 2022

गाना गाइए आप चाहे कितना ही बेसुरा हो

क्या आप गाना गाते हैं ?

चाहें सबके सामने हो या फिर बाथरूम में अकेले ही , गाना गाने के बहुत फायदे हैं। फेफड़े मजबूत होते हैं दिमाग में ब्लड सरकुलेशन बढ़ता है आपका मूड अच्छा हो जाता है ।अनेक फायदे हैं

और हां गाना गाने के लिए आपका लता मंगेशकर या मोहम्मद रफी होने की जरूरत नहीं है । चाहे आप कितना ही बेसुरा ही गाते हो, खुलकर गाइए। आजकल गधे गायब हो गए हैं शहर से। आपके गाना से कोई गधा ढेंचू ढेंचू नहीं करने लगेगा।

गाना गाने से बहुत से फायदे होते हैं  । लिंक को पढ़िए और अपना ज्ञान बढ़ाइए।

https://www.operanorth.co.uk/news/10-reasons-singing-is-good-for-you/#:~:text=Singing%20also%20counts%20as%20an,circulation%20%E2%80%93%20and%20a%20better%20mood.

Friday 4 November 2022

खीमा की कहानी (भाग दूसरा)

खीमानंद की कहानी  भाग2

जब खीमा 2 साल का था तो उसके पापा का तबादला बिजनौर से गोरखपुर हो गया। कहते है आते वक्त रेल के डिब्बे की खिड़की से चलती गाड़ी के बाहर खीमा ने अपना नया सिल्क का हाफ पैंट सूट बाहर फेंक दिया था।

गोरखपुर में उसके पापा के एक मित्र शंकर सिंह पोस्टेड थे जिनका तबादला उसके पिता की ही बिजनौर की पोस्ट में हो गया था। स्टेशन से उसके पिता  शंकर सिंह जी के  इसी खाली मकान पर आए।  मकान के नजदीक ही गोलघर की छोटी सी साफ-सुथरी बाजार थी और स्टेशन भी बहुत ज्यादा दूर नहीं था । गोरखपुर का स्टेशन बहुत शानदार था।

 उस जमाने में उस एरिया में जिसे सिविल लाइंस कहते थे बहुत बड़े-बड़े अहाते में मकान हुआ करते थे। इस इलाके में एक जमाने में अंग्रेज लोग रहा करते थे और उन्होंने अपने हिसाब से ही सिविल लाइंस इलाके की व्यवस्था की थी।  पास में ही अंग्रेजों के जरूरत पूरी कराने के लिए छोटी सी बाजार जहां अंग्रेजी शराब की दुकान डबल रोटी मक्खन अंडा की दुकान द रेसर बैडमिंटन रैकेट वाली खेलकूद के सामान की दुकान एक घर के जरूरत के सामान रखने वाली दुकान जहां अंग्रेजी बिस्किट टोपी टॉफी खिलौने से लेकर साबुन तेल कंगी वगैरह सब मिलता था। 

मकान का कंपाउंड तो बहुत ही बड़ा था पर मकान कुछ छोटा था हालांकि  अच्छा बना हुआ था। पहले वह मकान किसी अंग्रेज औरत ने अपने लिए बनवाया था  पर जब वह इंग्लैंड चली गई तो बाबूलाल जी नाम के एक लैंडलॉर्ड ने उसे खरीद लिया था। खीमा के पापा ने मकान मालिक से कहकर कुछ और कमरे बनवाए , सुंदर डिजाइन के बरामदे बनवाए और मकान के चारों तरफ मजबूत बाउंड्री वॉल भी बनवा दी जो पहले नहीं थी। खीमा के पापा को बागवानी का बहुत शौक था खासकर फूलों का और उन्होंने पूरे मकान में सुंदर फूल के बेल और पौधे लगाए

मकान से  चौथाई किलोमीटर पर उसके पिताजी का दफ्तर था। उतनी ही दूरी पर नेपाल क्लब था जहां उसके पापा अंग्रेजों के जमाने में टेनिस खेलने जाया करते थे। अंग्रेजों के जाने के बाद क्लब वाला कल्चर खत्म ही हो गया था।

जब खीमानंद साडे तीन साल का था उसके बड़े मामा दामोदर जी की शादी हो गई नैनीताल से। बहू पुष्पा रामनगर की थी, मामा से 12 साल छोटी। शादी के प्रोग्राम की याद की एक ग्रुप फोटो  खींची गई जो अभी भी खेमानंद के पास है जिस पर उसके नाना उसकी नानी उसकी मां उसकी मौसी उसकी मासी की लड़की और उसकी दीदी वगैरह सभी है। 

चार साल की उम्र के करीब खीमानंद गोरखपुर में सेंट मेरिज कॉन्वेंट  स्कूल में भर्ती हुआ था। साफ सुथरा अच्छा स्कूल था। वहां उसने ए बी सी डी और गणित वगैरा का पहला ज्ञान प्राप्त किया। वहां की सभी टीचर गोरी चिटटी अंग्रेज नन थी।वहां शायद 2 साल तक उसने पढ़ाई की जिसके बाद उसे हूफिंग कफ की वजह से स्कूल से निकाल दिया गया। वैसे भी वह स्कूल लड़कियों का था पर छोटे लड़कों को रख लिया जाता था।

 तब गोरखपुर एक  छोटा शहर था। रिक्शा  जैसी सवारिया उन दिनों होती नही थी । लोग पैदल ही जाते थे एक जगह से दूसरी जगह या फिर साइकिल या इक्का में । उसे और उसकी दीदी को एक चपरासी रोज स्कूल छोड़ने और लेने जाता था। पैदल ही जाते थे। स्कूल के बगल में दूसरी तरफ उसके पिताजी का ऑफिस का बड़ा सा अहाता था। वह और उसकी दीदी अक्सर पापा के  दफ्तर चले जाते थे स्कूल के बाद।

जब उसे स्कूल से निकाला गया तब उसके दफ्तर के ही एक बाबू ने उसके घर में आकर उसको पढ़ाना शुरू कर दिया। पापा उस बाबू को अच्छी ट्यूशन फीस देते थे और वह सभी विषय पढ़ाता था। मास्टर का नाम था राम राज्य भट्ट और वह हिंदी में m.a. पास था। फिर उसने तीन साल तक घर पर ही मास्टर से पढ़ा करीब-करीब सभी विषय और फिर उसने छठी क्लास पर गवर्नमेंट जुबली स्कूल में एडमिशन लिया। 

जुबली स्कूल की पहले दिन की उसे अच्छी तरह याद जीवन भर रही क्योंकि वहां पहले ही दिन एक खूंखार टीचर में बिना बात के उसकी पिटाई कर दी और वह स्कूल से भाग खड़ा हुआ । पुराने जमाने में स्कूल में लड़कों की बहुत पिटाई होती थी जो अब कानूनी तौर पर मना है। 

फिर उसने उस स्कूल में जाने से इंकार कर दिया बावजूद इसके कि उसके पिता ने उसकी  पिटाई भी की । हार कर उसके पिता ने उसे एक दूसरे स्कूल में भर्ती करा दिया जहां के हेड मास्टर पापा के परिचित थे। स्कूल का नाम था सेंट एंड्रयूज स्कूल। वहां उसने हाई स्कूल तक की पढ़ाई की । सुबह नौ बजे से क्लासेज होते थे  और  तीन बजे स्कूल बंद हो जाता था। सुबह दाल चावल सब्जी वगैरह का खाना खाकर वह स्कूल जाता था और शाम को जब लौटता था तो बुरी तरह भूखा होता था हालांकि स्कूल में एक बजे भीगा हुआ चना अदरक के टुकड़ो और नमक के साथ खाने को मिलता था। वह चना अदरक नहीं खाता था और अपने हिस्से का चना अदरक एक गरीब लड़के को दे देना था।
स्कूल से आने के बाद उसे शाम के 3:30 बजे रोज और लोगों के साथ बैठकर पूड़ी और आलू मटर की सब्जी खाने को  मिलती थी। 

उसे स्कूल पहुंचाने के लिए साइकिल में बैठा कर एक चपरासी आता था और शाम को उसे घर ले जाता था क्योंकि स्कूल घर से थोड़ा दूर था। बाद में जब पापा के पास कार आ गई  तब उसके ठाठ हो गए क्योंकि एक ड्राइवर उसे कभी कभी स्कूल छोड़ने और लेने जाता था।

नए स्कूल में खीमा का मन लग गया था क्योंकि लड़के अच्छे थे और मास्टर भी उसे परेशान नहीं करते थे। उसे सबसे अच्छे मास्टर शशिमॉल पंडित लगते थे जो हिंदी पढ़ाया करते थे। बंगाली टीचर बिस्वास अंग्रेजी पढाते थे।  स्कूल ईसाइयों का था तो सुबह क्लासेस शुरु होने से पहले प्रार्थना होती थी बाइबल के पाठ जैसा कि अन्य क्रिश्चियन स्कूल में होता था1 हेड मास्टर साहब का नाम राय बहादुर अमर सिंह था जो ईसाई थे। वह गोरे चिट्टे थे और उनकी शादी एक एंग्लो इंडियन औरत से हुई थी। स्कूल के बगल में ही उनका बंगला था।

इंटरमीडिएट की पढ़ाई करने के लिए वह सेंट एंड्रयूज कॉलेज पर आ गया जो उस जमाने का अच्छे  कॉलेज  था। वहां के प्रिंसिपल पीटी चांडी थे जो आगे चलकर कई विश्वविद्यालयों में वाइस चांसलर भी रहे।

 केमिस्ट्री की लैब में प्रैक्टिकल करते वक्त एक बार उसकी अच्छी खासी नई पेंट में कई जगह छेद हो एसिड गिरने से। उसे अभी तक केमिस्ट्री लैब के बाहर h2s गैस की बदबू  याद है।

इंटरमीडिएट तक उसका विषय विज्ञान  (साइंस)  सब्जेक्ट का था पर इंटरमीडिएट के बाद उस आर्ट्स मैं बीए करने का फैसला किया और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी चला गया ।

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी मै वह एक हॉस्टल में रहने लगा। हॉस्टल  का नाम अमरनाथ झा हॉस्टल था जिसे म्योर हॉस्टल भी कहते थे।  शुरू शुरू में सभी नए लड़कों की रैगिंग होती है और उसकी भी काफी खिंचाई हुई पर बाद में आपस में काफी भाईचारा हो गया था सीनियर्स के साथ। 

हॉस्टल की पुराने जमाने की शानदार बिल्डिंग थी।उस हॉस्टल में दो प्राइवेट मेस यानी भोजनालय थे। उसने झुल्लर महाराज का मेस ज्वाइन कर लिया। ज्यादातर लड़के झुल्लार महाराज का मेस ही पसंद करते थे।

सुबह सात बजे रजा बेकरी का एक आदमी डबलरोटी मक्खन पेस्ट्री इत्यादि लेकर आता था। खीमा उससे आधी ब्रेड स्लाइस करवाकर और एक टिकिया मक्खन ले लेता था और फिर हीटर मैं चाय बना कर नाश्ता कर लेता था। अधिकतर लड़के ऐसा ही करते थे। शाम चार बजे  एक आदमी सामने यूनिवर्सिटी रोड की भट्ट जी की बेकरी से आता था। वह बहुत ताजे मुलायम बन में मक्खन लगा कर देता था। यूनिवर्सिटी रोड पर ही जगाती का पुराना पॉपुलर रेस्त्रां था जहां स्टूडेंट्स अक्सर खाना खाते थे।किताबों की भी बहुत सी दुकान थी। 

 पहले साल  हॉस्टल के एनुअल फंक्शन में उसने अंग्रेजी ड्रामे में पार्ट लिया था। इसके अलावा उसने वहां टेबल टेनिस और स्क्वैश रैकेट खेलना शुरू किया। उसे बाद में स्क्वैश रैकेट डबल्स टूर्नामेंट में दो बार यूनिवर्सिटी चैंपियनशिप मिली।

उस जमाने में इलाहाबाद एक बहुत अच्छा, खुला हुआ साफ सुथरा शहर था।  किसी जमाने में इलाहाबाद यू पी सरकार की राजधानी रही थी और वहां की ब्रिटिश समय की इमारतें बहुत भव्य थीं।

 यूनिवर्सिटी की इमारतें भी लाजवाब थीं। आर्ट्स फैकल्टी के सीनेट हाल के ऊपर हूबहू लंदन के बिग बेन जैसा एक क्लॉक टावर था जिसके म्यूजिकल घंटे की आवाज कई मील दूर तक सुनाई देती थी। साइंस ब्लॉक मैं प्रसिद्ध म्योर टावर था।

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बी.ए. करने के बाद वह लखनऊ यूनिवर्सिटी आ गया एम.ए. करने ।

बाकी की कहानी तीसरे भाग मैं।

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Saturday 22 October 2022

खीमानंद की कहानी

खीमानंद की कहानी ---  कुछ सुनी हुई और कुछ देखी हुई।  ( part one)

उसके पापा के पिताजी का नाम लीलाधर  था। पापा की मम्मी का नाम पता नहीं। लीलाधर  अल्मोड़ा शहर में सरकारी दफ्तर में काम करते थे शायद इंस्पेक्टर ऑफ यूरोपियन स्कूल्स के दफ्तर में हेड क्लर्क थे । अच्छे संस्कारों वाले पुरुष थे पर बहुत गुस्से बाज। कहते हैं एक बार उन्होंने अपने अंग्रेज अफसर के ऊपर कुर्सी उठा ली थी मारने लिए । गांव में लोग हेड क्लर्क शब्द नही समझ पाते थे तो उन्हें हिट लर साहब कहते थे।

माला उनका गांव था जहां उनके पास अपने खेत थे । उन्होंने एक  तीन मंजिला मकान भी बनाया था जिसमें नीचे की मंजिल में , जिसे वहां की भाषा में गोठ कहते थे, गाय बैल रहते थे। बीच की मंजिल में परिवार के लोग और ऊपर की मंजिल में रसोईघर वगैरह था।

 उसे याद है कि बहुत ही छोटी उम्र में जब एक बार वह माला गया था तो वहां की बैठक में बैठकर उससे कल्याण पुस्तक का एक विशेष अंक देखा था और उसमें सुंदर चित्र उसके मन को भा गए थे।

 बचपन में अल्मोड़ा में उसके दादाजी पहले माल रोड पर जाखन  देवी मंदिर के पास किसी मकान में रहते थे । फिर बाद में एक बड़े मकान में बक्शीखोला में आ गए मॉल रोड पर ही । कहते हैं बाद में इसी मकान में  मुरली मनोहर जोशी जी रहते थे।

यह दो मंजिला मकान था और उसमें बहुत बड़ा पक्का आंगन था और पीछे गाय भैंस के लिए गौशाला। नीचे की मंजिल पर रसोई घर था और ऊपर बैठक वगैरह। इस मकान के ठीक ऊपर सड़क पर एक पेड़ था जिसके नीचे उसके बचपन में एक दुबला पतला बुड्ढा रोज बैठा करता था जिसके पास बड़े लंबे पहाड़ी खीरे होते थे और वह उन्हे काट के लंबे-लंबे टुकड़ों में भंगीरे के नमक के साथ खाने के लिए बच्चों को देता था। दो आने में एक लंबा खीरा।  

जैसा कि मैंने ऊपर बताया है वह अपने बचपन में बहुत छोटी उम्र में वह माला गांव जा चुका था । तब उसकी  बुआ की शादी हुई थी केदार दत्त जी के साथ। तब वह शायद करीब  6 बरस का था और  एक बड़े से  दाडिम के पेड़ के चबूतरे पर  बैठकर उसने खाना खाया था , उड़द चने की दाल , चावल, कापा, भांगे की चटनी वगैरह। 

मांला गांव अल्मोड़ा जिले में सोमेश्वर तहसील के अंदर एक गांव है बोरारो घाटी मे।  सोमेश्वर से कुछ ही दूर पर है थोड़ा आगे कौसानी जाने वाली सड़क पर । पहले बाएं तरफ सोमेश्वर आता है फिर थोड़ा आगे जाने पर दाहिने तरफ माला गांव आता है । बीच में गौला नदी है । गौला नदी को पार करने के लिए पहले कोई पुल नहीं था और जैसा कि पहाड़ी नदियों में होता है बड़े-बड़े पत्थरों पर पैर रखते हुए नदी को पार किया जाता था जो बरसात के मौसम में थोड़ा मुश्किल होता था क्योंकि नदी काफी भर जाती थी।। कुछ वर्ष पूर्व गौला नदी के ऊपर एक बहुत सुंदर मजबूत लोहे का हरे रंग का पुल बन गया है और अब नदी पार करना  आसान हो गया है। अब मोटरसाइकिल वगैरह भी गांव में लोगों ने रखी है।

हां तो मै बता रहा था कि खीमा के दादाजी ने माला गांव में एक तीन मंजिला मकान बनाया था और उस मकान के एक ओर पक्का आगन था जहां दाढ़िम अखरोट वगैरा के पेड़ लगे हुए थे। उस मकान के आंगन में एक ओखली भी थी जहां पर उसकी मां  धान के दानों को कूटती थी। पुराने जमाने में बहू की पोजीशन सास के घर में एक नौकरानी टाइप की होती थी जो सब तरह के काम करती थी झाड़ू पोछा, ओखली मैं धान कूटना , घर से दूर पानी के प्राकृतिक   नौला से गगरी में भर के पानी लाना और सास की जली कटी सुनना ।  बचपन में जब शायद वह 3 साल का होगा , उसे गौशाला में गायों के साथ बंद कर दिया था उसकी मा की सास ने। और  मा कुछ नहीं कर पाई। अपनी उस बहुत छोटी उम्र  में अपनी माता जी के साथ वह रोज ऊपर की ओर सड़क में नौला की तरफ जाता था यहां से गगरी में भरकर माताजी पानी लाती थी। तब माला गांव में पक्के मकान बहुत कम थे। अब तो काफी लोगो ने बड़े बड़े मकान बना लिए हैं। 

माला गांव की सपाट घाटी मैं दूर-दूर तक खेत थे जहां औरते खेती का काम भी करती थी।

उसके पापा जब 2 साल के थे तब उनकी मां की मृत्यु हो गई। पापा के पिताजी ने शीघ्र ही दूसरा विवाह किया और 12 साल की नई मां (जिनको  कैंजा कहते थे) घर पर आ गई। वह पापा से दस साल बड़ी थी यानी बारह साल की। उस जमाने में बाल विवाह की प्रथा काफी जोरों पर थी। 

कुछ वर्षों बाद दादी ने बच्चों को जन्म देना शुरू किया। पहली लड़की  शायद 17 साल की उम्र में हुई थी  । उसके बाद तीन और लड़कियां हुई  और उसके बाद दो पुत्रों  का जन्म हुआ और अंत में उसकी सबसे छोटी बुआ का।

घर में  बच्चों को देखने की ड्यूटी उसके पापा की थी क्योंकि वह सबसे बड़े थे तो गोद में किसी बच्चे को चुप कराते हुए या खिलाते हुए उन्होंने अपना विद्यार्थी जीवन शुरू किया। फिर भी हर साल अपनी कक्षा में प्रथम आए और यह सिलसिला उन्होंने एम एस सी की परीक्षा तक जारी रख्खा। 

उसके पापा ने हाई स्कूल की पढ़ाई अल्मोड़े के जीआईसी इंटर कॉलेज से की। पढ़ाई के दौरान वह मॉल रोड पर स्थित जय दत्त जी के मकान में रहते थे जिनको उसके पापा जयका कहते थे । मुझे पता नहीं कि उस समय उसके दादा जी कहां पोस्टेड थे क्योंकि आम तौर पर दादाजी अल्मोड़ा में सरकारी नौकरी करते थे। हां इतना अवश्य पता है कि 1935 में वह इलाहाबाद में पोस्टेड थे क्योकि उस पोस्टिंग के दौरान उसके बड़े चाचा का जन्म हुआ था इलाहाबाद के कर्नलगंज वाली रोड पर स्थित एक मकान में । बाद में उसके चाचा ने उसे वह मकान दिखाया था जब वह इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा था ।

उसके पापा ने हाईस्कूल  और  इंटर  प्रथम श्रेणी में पास किया और पूरे कुमाऊं में सबसे ज्यादा नंबर लाए।

फिर वो ग्रेजुएशन के लिए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी गए  और वह वहां गंगानाथ झा हॉस्टल में रहे।  वहां से उन्होंने बीएससी किया।

 उसके बाद लखनऊ यूनिवर्सिटी में आ गए और उन्होंने एमएससी किया। यूनिवर्सिटी में वह बटलर हॉस्टल में रहते थे और बटलर हॉस्टल की क्रिकेट टीम में भी सदस्य थे। 

 प्रथम श्रेणी में एमएससी करने के बाद सवाल आया नौकरी का और टीचर बनने के लिए LT की एक साल पढ़ाई की और एलटी की डिग्री प्राप्त की। (वही डिग्री LT की बाद में बी एड बन गई थी)। अपने ट्रेनिंग के दौरान वो क्रिश्चियन कॉलेज में जो बलरामपुर हॉस्पिटल के पास था फिजिक्स पढ़ाया करते थे थ्योरी और प्रैक्टिकल दोनों।

 एमएससी की पढ़ाई के दौरान खीमा के पापा का विवाह भोला जी की लड़की से हो गया  । भोला जी उस समय नैनीताल में रहते थे और सरकारी दफ्तर में ऑफिस सुपरिटेंडेंट थे। 

 LT करने के कितने बाद वह स्टेट सिविल सर्विस में आए। LT करने के शायद एक साल बाद। अपनी पहली पोस्टिंग में वह बिजनौर में डिप्टी कलेक्टर थे। 

बिजनौर में खीमा का जन्म हुआ। उसके पापा जिस मकान में रहते थे वह पुराने जमाने का काफी बड़ा मकान था जिसके दो हिस्से कर दिए गए थे और जिस पर दो किराएदार रहते थे। उसके पापा के अलावा दूसरे किराएदार एक बहुत ही सज्जन पुरुष थे जो कहीं पर पढ़ाते थे और उनको सब लोग मास्टर साहब कहते थे।

बिजनौर  मे 5 साल रहने के बाद खीमा के पिताजी का तबादला गोरखपुर हो गया। तब हुआ 2 साल का था।

 गोरखपुर की बातें कहानी के पार्ट 2 में ।
(आगे की कहानी पार्ट 2 मैं)

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Tuesday 11 October 2022

बॉलीवुड की कुछ बातें

बॉलीवुड की कुछ बातें

एक बहुत पुरानी फिल्म जो याद आ रही है। वह है मिस्टर एंड मिसेज 55। इसमें गुरुदत्त मधुबाला ललिता पवार और  जॉनी वॉकर ने बहुत अच्छा काम किया था। दो छोटे कलाकार, जिन्होंने बाद में बहुत से लंबे अच्छे रोल किए , उन्होंने इस फिल्म में शायद पहली बार काम किया होगा । एक थे जगदीप जो फिल्म के शुरू में अखबार बेचते नजर आए सड़क पर।  और दूसरे थे सी एस दुबे  जिन्होंने एक डॉक्टर का बहुत छोटा सा रोल किया था इस फिल्म में।

 उसी जमाने में  हावड़ा ब्रिज भी देखी। इसमें ओम प्रकाश ने  अच्छा अभिनय कर दिखाया है। यह शायद हेलन की पहली फिल्म थी और इसमें "मेरा नाम चिन चिन चूं" पर डांस किया था जिसकी वजह से वह मशहूर हो गई। 

 एक और फिल्म थी 50 के दशक की   "नई दिल्ली"। इसमें सभी कलाकारों का अच्छा काम था । इस फिल्म की खासियत इसका प्लॉट  था। इसमें सबसे बढ़िया एक्टिंग थी हास्य अभिनेता धूमल की जो किशोर कुमार का नकली बाप बना था।

 ललिता पवार  की फिल्म  "जंगली"  भी अपने जमाने की क्लासिक फिल्म थी। यह सायरा बानो की पहली फिल्म थी ।   इस फिल्म में बहुत स्वाभाविक अच्छी एक्टिंग की सायरा बानो ने और उसका पैर की चोट मे टिन्चर आयोडीन लगाने वाला सीन तो लाजवाब ही था। इसी फिल्म के एक गाने "चाहे कोई मुझे जंगली कहे" के शंखनाद "याहू" के साथ शम्मी कपूर भी इसी फिल्म से फिल्म जगत में छा गए। हमेशा की तरह ललिता पवार बहुत ही अच्छे रोल में नजर आई।

1970 के दशक के बाद तो एक के बाद एक कई बढ़िया फिल्में देखने को मिली और अमोल पालेकर, मौसमी चटर्जी, उत्पल दत्त और कई और छोटे कलाकारों का नए अंदाज में बहुत शानदार अभिनय देखने को मिला। यह सब फार्मूला फिल्म से फर्क फिल्में थी। 

फिल्म "अंगूर"  ही ले लीजिए। डायरेक्शन बहुत अच्छा था। मौसमी चटर्जी ने बहुत ही सुंदर स्वाभाविक काम किया है इसमें । वैसे तो इस फिल्म में सभी कलाकारों ने बहुत ही अच्छा काम किया । मिसाल के तौर पर जौहरी के किरदार में सी एस दुबे , उसके असिस्टेंट के रूप में युनुस परवेज़ और पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में कर्नल कपूर की एक्टिंग बहुत ही लाजवाब रही।

वह ऐसा दौर था जिसमें एक के बाद एक कई बहुत अच्छी फिल्में देखने को मिली जैसे "छोटी सी बात" ,  "बातों बातों मे"  ,  "गोलमाल" ,  "रंग बिरंगी",  "किसी से ना कहना",  "नरम गरम",   "दुल्हन वही जो पिया मन भाए"  "चश्मे बद्दूर" इत्यादि ।


  इन फिल्मों की सफलता और लोकप्रियता के लिए न तो दिलीप कुमार की जरूरत पड़ी  ना तो देवानंद की,  ना राज कपूर की, ना किसी और सुपरस्टार की जो  किसी फिल्म की सफलता के लिए आवश्यक मारे जाते थे।

उस दौर के बाद भी कई और अच्छी फिल्म है आगे चलकर । 1997 की   "चाची 420" एक अलग तरह की फिल्म थी। उसके कुछ वर्षों  बाद  "हंगामा"  आई।  उसके कुछ वर्षों बाद   "जौली एलएलबी 2" ।

 अब जौली एलएलबी 2 को ही ले लीजिए इस में टॉप स्टार है अक्षय कुमार पर इसमें टॉप एक्टिंग है एक बहुत छोटे कलाकार की जिसका नाम सौरभ शुक्ला है और जिसने इस फिल्म में जज का रोल किया है।

मैं समझता हूं कि किसी फिल्म के अच्छी होने के लिए किसी सुपरस्टार की जरूरत नहीं  होती है।  जरूरत होती  है एक अच्छी पटकथा , एक अच्छे स्वाभाविक एक्टर की और एक अच्छे डायरेक्टर की। 

एक समस्या जरूर है और वह है की अच्छी फिल्म व्यवसायिक रूप से सफल हो यह जरूरी नहीं है। इसीलिए कभी कभी कम लागत पर बनी हुई बहुत अच्छी क्वालिटी की फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फेल हो जाती है। ऐसी फिल्मों की सफलता  इस बात पर निर्भर करती है कि ऐसी फिल्मों में  कुछ ऐसी चीजें डाल दी जाए जो सभी को पसंद हों।

कभी-कभी समझ में नहीं आता कि एक अच्छी फिल्म जिस पर सब तरह का मनोरंजन है फिर भी क्यों फेल कर जाती है अब इसका एक उदाहरण है फिल्म मुस्कुराहट है जिसका हीरो था एक अनजाना कलाकार जिसका नाम जय मेहता था. पिक्चर काफी अच्छी थी अमरीश पुरी का आवेदन उच्च कोटि का था और बाकी कलाकारों ने बहुत अच्छा काम किया था पर जाने क्यों बॉक्स ऑफिस पर चली नहीं। शायद कार्य हो किसी जमाने में फिल्म आई थी उस जमाने में फिल्म में अच्छे गाने होना आवश्यक होता था।