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Friday 25 November 2022

खीमा की कहानी (भाग 3)

 खीमा की कहानी भाग 3

खीमा के पिताजी का ट्रांसफर टेहरी गढ़वाल हो गया था और उन्होंने जुलाई के शुरू में गोरखपुर छोड़ दिया। खीमा ने लखनऊ में एम ए में  एडमिशन ले लिया था लखनऊ यूनिवर्सिटी में।  उसकी दो बहनो को भी लखनऊ आना पड़ा क्योंकि टेहरी गढ़वाल में उच्च शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। उन्होंने महिला विद्यालय में एडमिशन ले दिया और हॉस्टल में रहने लगी‌

उसे नरेंद्र देव हॉल छात्रावास में एक सिंगल रूम मिल गया। हॉस्टल नया बना हुआ था। साफ-सथरी अच्छी बिल्डिंग थी।
 और कमरे भी अच्छे थे जहां दीवार की अलमारी (बंद करने वाली) और छत पर सीलिंग फैन भी था जो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में नही था

 अमरनाथ झा हॉस्टल और नरेंद्र देव हॉस्टल दोनों में जमीन आसमान का अंतर था बिल्डिंग में भी और वहां की लाइफ में भी। अमर नाथ झा हॉस्टल की बिल्डिंग 100 साल पुरानी थी । पत्थर की थी । काफी सुंदर थी कलात्मक। पर आधुनिक हॉस्टलों जैसी सुविधाएं नहीं थी जैसा  नए हॉस्टल्स में होती थी । पर हॉस्टल की लाइफ भाईचारे वाली थी । सभी लोग एक दूसरे को जानते थे । मिलने पर हेलो होती थी और सब लोग कॉमन हॉल में अक्सर मिलते रहते थे। हॉस्टल की अपनी क्रिकेट, टेबल टेनिस वगेरह की टीम थे जो टूर्नामेंट में हिस्सा लेती थी।

नरेंद्र देव हॉस्टल में कोई भाईचारा जैसी चीज नहीं थी। ऐसा लगता था अजनबी लोग एक धर्मशाला में रह रहे हैं । किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है । जिसको सोशल लाइफ कहते हैं वह पूरी तरह से गायब थी।

  इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में खीमा का कोई अपना रिश्तेदार नहीं था । वहां पूरा समय हॉस्टल के दोस्तों के साथी व्यतीत होता था
। यहां लखनऊ में रिश्तेदार थे बड़े मामा  छोटे माना और मौसी जो हुसैनगंज के पास मुरली नगर में रहते थे।

एक और बड़ा फर्क था दोनों हॉस्टल की स्टाइल में। म्योर हॉस्टल के दस कदम पर कटरा बाजार शुरू होती थी और यूनिवर्सिटी रोड पर भी काफी दुकानें थी  गेट से बाहर निकलते ही यूनिवर्सिटी रोड की छोटी सी बाजार आ जाती थी जहां रोजमर्रा के काम की हर चीज मिलती थी।  जगाती का रेस्त्रां , डबल रोटी मक्खन, जनरल मर्चेंट की दुकान और किताबों का बड़ा बाजार।  आप  बाहर निकलते ही दुकानों से जरूरत की चीज खरीद सकते थे ।  यूनिवर्सिटी का अपना छोटा सा अस्पताल भी था जो  हॉस्टल के बगल में ही था ।

नरेंद्र देव हॉस्टल लखनऊ यूनिवर्सिटी की मुख्य बिल्डिंग के पीछे मेन रोड से बहुत ही दूर था जहां से आपको एक लंबी सूनी सड़क चल कर जाना पड़ता था तब आप मुख्य सड़क पर आते थे। मुख्य सड़क पर भी दूर-दूर तक सन्नाटा था। वहां पर न तो कोई रिक्शा था ना कोई यातायात का साधन। हॉस्टल के गेट पर की तो बात छोड़िए, लंबी दूरी चलकर भी जब यूनिवर्सिटी के मेन गेट से बाहर आते थे वहां पर भी कोई रिक्शा नहीं थी जबकि म्योर हॉस्टल के गेट पर रिक्शेवाले खड़े रहते थे। सामान खरीदने की बात करें तो आस पास एक कप चाय पीने की भी व्यवस्था नहीं थी किताबों की दुकान अमीनाबाद में थी वहां से कई मील दूर था। बाजार भी  दूर।

ऐसे में यह जरूरी हो गया था कि एक साइकिल हो जिसके आना-जाना मुश्किल ना हो । तो यहां खीमा को अपने पापा की पुरानी मजबूत साइकल लाना जरूरी हो गया।

साइकिल आते ही यातायात की समस्या दूर हो गई। हॉस्टल की तो कोई अपनी जिंदगी थी नहीं इसलिए वह अक्सर साइकिल मैं पेडल मारता हुआ अपने मामा जी के घर पहुंच जाता था और वही गपशप लगाता रहता था। 

उसकी दो बहनें उसी के साथ लखनऊ आ गई थी और उन्होंने महिला विद्यालय में एडमिशन ले लिया था वह भी शनिवार की शाम को मामा जी के घर आ जाती थी और सोमवार की सुबह को अपने हॉस्टल में वापस चली जाती थी‌। इसलिए हर शनिवार और रविवार को वह मुरलीनगर चला जाता था।

नरेंद्र देव हॉस्टल में एक ही मेस था जो कि यूनिवर्सिटी द्वारा चलाया जाता था और जिस का खाना बहुत चौपट मिलता था। यह पता नहीं कि खीमा सुबह का नाश्ता और शाम की चाय का नाश्ता का जुगाड़ कैसे और कहां करता था। शायद मेस में चाय और टोस्ट भी मिलते हो पर निश्चित नहीं है। लखनऊ के हॉस्टल में कोई डबल रोटी मक्खन पेस्ट्री केक वाला भी नहीं आता था। 

 एक तरह से नरेंद्र देव हॉस्टल एक धर्मशाला सी थी।

एम ए  के दो साल मैं हॉस्टल में कोई  याद रखने वाली खास बात नही हुई। हां, खीमा ने डायनिंग हॉल के बाहर लगे नोटिस बोर्ड पर कभी-कभी कुछ नोटिस चिपकाने शुरू किए जिसमें टेबल टेनिस संबंधित सूचनाएं दी जाती थी।  लोगों को यह आईडिया पसंद आया। खीमा टेबल टेनिस का शौकीन था और आते ही उसके टेबल टेनिस खेल की शुरूआत कर दी ‌‌। हॉस्टल में दिल्ली यूनिवर्सिटी से बी ए करके एक लड़का आया था जिसका नाम उसका चुटकी वाला वर्मा रखा था और जो अच्छी टेबल टेनिस खेलता था। दोनों ने मिलकर हॉस्टल के लड़कों में टेबल टेनिस के प्रति दिलचस्पी पैदा की और फिर उसने फाइनल ईयर में एक टेबल टेनिस प्रतियोगिता भी रखी हॉस्टल की जिसमें हॉस्टल के लड़कों ने भाग लिया

 और इस प्रतियोगिता में उसका टेबल टेनिस पार्टनर फाइनल मैच में विजई हुआ और उसको रनर्स अप का कप मिला। दोनों सालों में यही नतीजा रहा और 2 साल के अंत में फौज के जनरल थोराट के हाथों प्राइज डिसटीब्यूशन कराया गया जिसमें ढेर सारे कप खीमा और उसके दोस्त को मिले।

उन दो सालो में उसके पिता टेहरी गढ़वाल जिले में कार्यरत थे और उसके एम ए के अंतिम दो महीनों के दौरान उसके पिता का ट्रांसफर लखनऊ हो गया। इसलिए m.a. का इम्तिहान देने के बाद और लखनऊ में अपने पापा के पास ही आ गया और यहां से उसका नौकरी की तलाश में इम्तहान देने का सिलसिला शुरू हुआ।

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