बॉलीवुड की कुछ बातें
एक बहुत पुरानी फिल्म जो याद आ रही है। वह है मिस्टर एंड मिसेज 55। इसमें गुरुदत्त मधुबाला ललिता पवार और जॉनी वॉकर ने बहुत अच्छा काम किया था। दो छोटे कलाकार, जिन्होंने बाद में बहुत से लंबे अच्छे रोल किए , उन्होंने इस फिल्म में शायद पहली बार काम किया होगा । एक थे जगदीप जो फिल्म के शुरू में अखबार बेचते नजर आए सड़क पर। और दूसरे थे सी एस दुबे जिन्होंने एक डॉक्टर का बहुत छोटा सा रोल किया था इस फिल्म में।
उसी जमाने में हावड़ा ब्रिज भी देखी। इसमें ओम प्रकाश ने अच्छा अभिनय कर दिखाया है। यह शायद हेलन की पहली फिल्म थी और इसमें "मेरा नाम चिन चिन चूं" पर डांस किया था जिसकी वजह से वह मशहूर हो गई।
एक और फिल्म थी 50 के दशक की "नई दिल्ली"। इसमें सभी कलाकारों का अच्छा काम था । इस फिल्म की खासियत इसका प्लॉट था। इसमें सबसे बढ़िया एक्टिंग थी हास्य अभिनेता धूमल की जो किशोर कुमार का नकली बाप बना था।
ललिता पवार की फिल्म "जंगली" भी अपने जमाने की क्लासिक फिल्म थी। यह सायरा बानो की पहली फिल्म थी । इस फिल्म में बहुत स्वाभाविक अच्छी एक्टिंग की सायरा बानो ने और उसका पैर की चोट मे टिन्चर आयोडीन लगाने वाला सीन तो लाजवाब ही था। इसी फिल्म के एक गाने "चाहे कोई मुझे जंगली कहे" के शंखनाद "याहू" के साथ शम्मी कपूर भी इसी फिल्म से फिल्म जगत में छा गए। हमेशा की तरह ललिता पवार बहुत ही अच्छे रोल में नजर आई।
1970 के दशक के बाद तो एक के बाद एक कई बढ़िया फिल्में देखने को मिली और अमोल पालेकर, मौसमी चटर्जी, उत्पल दत्त और कई और छोटे कलाकारों का नए अंदाज में बहुत शानदार अभिनय देखने को मिला। यह सब फार्मूला फिल्म से फर्क फिल्में थी।
फिल्म "अंगूर" ही ले लीजिए। डायरेक्शन बहुत अच्छा था। मौसमी चटर्जी ने बहुत ही सुंदर स्वाभाविक काम किया है इसमें । वैसे तो इस फिल्म में सभी कलाकारों ने बहुत ही अच्छा काम किया । मिसाल के तौर पर जौहरी के किरदार में सी एस दुबे , उसके असिस्टेंट के रूप में युनुस परवेज़ और पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में कर्नल कपूर की एक्टिंग बहुत ही लाजवाब रही।
वह ऐसा दौर था जिसमें एक के बाद एक कई बहुत अच्छी फिल्में देखने को मिली जैसे "छोटी सी बात" , "बातों बातों मे" , "गोलमाल" , "रंग बिरंगी", "किसी से ना कहना", "नरम गरम", "दुल्हन वही जो पिया मन भाए" "चश्मे बद्दूर" इत्यादि ।
इन फिल्मों की सफलता और लोकप्रियता के लिए न तो दिलीप कुमार की जरूरत पड़ी ना तो देवानंद की, ना राज कपूर की, ना किसी और सुपरस्टार की जो किसी फिल्म की सफलता के लिए आवश्यक मारे जाते थे।
उस दौर के बाद भी कई और अच्छी फिल्म है आगे चलकर । 1997 की "चाची 420" एक अलग तरह की फिल्म थी। उसके कुछ वर्षों बाद "हंगामा" आई। उसके कुछ वर्षों बाद "जौली एलएलबी 2" ।
अब जौली एलएलबी 2 को ही ले लीजिए इस में टॉप स्टार है अक्षय कुमार पर इसमें टॉप एक्टिंग है एक बहुत छोटे कलाकार की जिसका नाम सौरभ शुक्ला है और जिसने इस फिल्म में जज का रोल किया है।
मैं समझता हूं कि किसी फिल्म के अच्छी होने के लिए किसी सुपरस्टार की जरूरत नहीं होती है। जरूरत होती है एक अच्छी पटकथा , एक अच्छे स्वाभाविक एक्टर की और एक अच्छे डायरेक्टर की।
एक समस्या जरूर है और वह है की अच्छी फिल्म व्यवसायिक रूप से सफल हो यह जरूरी नहीं है। इसीलिए कभी कभी कम लागत पर बनी हुई बहुत अच्छी क्वालिटी की फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फेल हो जाती है। ऐसी फिल्मों की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि ऐसी फिल्मों में कुछ ऐसी चीजें डाल दी जाए जो सभी को पसंद हों।
कभी-कभी समझ में नहीं आता कि एक अच्छी फिल्म जिस पर सब तरह का मनोरंजन है फिर भी क्यों फेल कर जाती है अब इसका एक उदाहरण है फिल्म मुस्कुराहट है जिसका हीरो था एक अनजाना कलाकार जिसका नाम जय मेहता था. पिक्चर काफी अच्छी थी अमरीश पुरी का आवेदन उच्च कोटि का था और बाकी कलाकारों ने बहुत अच्छा काम किया था पर जाने क्यों बॉक्स ऑफिस पर चली नहीं। शायद कार्य हो किसी जमाने में फिल्म आई थी उस जमाने में फिल्म में अच्छे गाने होना आवश्यक होता था।
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