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Saturday, 22 October 2022

खीमानंद की कहानी

खीमानंद की कहानी ---  कुछ सुनी हुई और कुछ देखी हुई।  ( part one)

उसके पापा के पिताजी का नाम लीलाधर  था। पापा की मम्मी का नाम पता नहीं। लीलाधर  अल्मोड़ा शहर में सरकारी दफ्तर में काम करते थे शायद इंस्पेक्टर ऑफ यूरोपियन स्कूल्स के दफ्तर में हेड क्लर्क थे । अच्छे संस्कारों वाले पुरुष थे पर बहुत गुस्से बाज। कहते हैं एक बार उन्होंने अपने अंग्रेज अफसर के ऊपर कुर्सी उठा ली थी मारने लिए । गांव में लोग हेड क्लर्क शब्द नही समझ पाते थे तो उन्हें हिट लर साहब कहते थे।

माला उनका गांव था जहां उनके पास अपने खेत थे । उन्होंने एक  तीन मंजिला मकान भी बनाया था जिसमें नीचे की मंजिल में , जिसे वहां की भाषा में गोठ कहते थे, गाय बैल रहते थे। बीच की मंजिल में परिवार के लोग और ऊपर की मंजिल में रसोईघर वगैरह था।

 उसे याद है कि बहुत ही छोटी उम्र में जब एक बार वह माला गया था तो वहां की बैठक में बैठकर उससे कल्याण पुस्तक का एक विशेष अंक देखा था और उसमें सुंदर चित्र उसके मन को भा गए थे।

 बचपन में अल्मोड़ा में उसके दादाजी पहले माल रोड पर जाखन  देवी मंदिर के पास किसी मकान में रहते थे । फिर बाद में एक बड़े मकान में बक्शीखोला में आ गए मॉल रोड पर ही । कहते हैं बाद में इसी मकान में  मुरली मनोहर जोशी जी रहते थे।

यह दो मंजिला मकान था और उसमें बहुत बड़ा पक्का आंगन था और पीछे गाय भैंस के लिए गौशाला। नीचे की मंजिल पर रसोई घर था और ऊपर बैठक वगैरह। इस मकान के ठीक ऊपर सड़क पर एक पेड़ था जिसके नीचे उसके बचपन में एक दुबला पतला बुड्ढा रोज बैठा करता था जिसके पास बड़े लंबे पहाड़ी खीरे होते थे और वह उन्हे काट के लंबे-लंबे टुकड़ों में भंगीरे के नमक के साथ खाने के लिए बच्चों को देता था। दो आने में एक लंबा खीरा।  

जैसा कि मैंने ऊपर बताया है वह अपने बचपन में बहुत छोटी उम्र में वह माला गांव जा चुका था । तब उसकी  बुआ की शादी हुई थी केदार दत्त जी के साथ। तब वह शायद करीब  6 बरस का था और  एक बड़े से  दाडिम के पेड़ के चबूतरे पर  बैठकर उसने खाना खाया था , उड़द चने की दाल , चावल, कापा, भांगे की चटनी वगैरह। 

मांला गांव अल्मोड़ा जिले में सोमेश्वर तहसील के अंदर एक गांव है बोरारो घाटी मे।  सोमेश्वर से कुछ ही दूर पर है थोड़ा आगे कौसानी जाने वाली सड़क पर । पहले बाएं तरफ सोमेश्वर आता है फिर थोड़ा आगे जाने पर दाहिने तरफ माला गांव आता है । बीच में गौला नदी है । गौला नदी को पार करने के लिए पहले कोई पुल नहीं था और जैसा कि पहाड़ी नदियों में होता है बड़े-बड़े पत्थरों पर पैर रखते हुए नदी को पार किया जाता था जो बरसात के मौसम में थोड़ा मुश्किल होता था क्योंकि नदी काफी भर जाती थी।। कुछ वर्ष पूर्व गौला नदी के ऊपर एक बहुत सुंदर मजबूत लोहे का हरे रंग का पुल बन गया है और अब नदी पार करना  आसान हो गया है। अब मोटरसाइकिल वगैरह भी गांव में लोगों ने रखी है।

हां तो मै बता रहा था कि खीमा के दादाजी ने माला गांव में एक तीन मंजिला मकान बनाया था और उस मकान के एक ओर पक्का आगन था जहां दाढ़िम अखरोट वगैरा के पेड़ लगे हुए थे। उस मकान के आंगन में एक ओखली भी थी जहां पर उसकी मां  धान के दानों को कूटती थी। पुराने जमाने में बहू की पोजीशन सास के घर में एक नौकरानी टाइप की होती थी जो सब तरह के काम करती थी झाड़ू पोछा, ओखली मैं धान कूटना , घर से दूर पानी के प्राकृतिक   नौला से गगरी में भर के पानी लाना और सास की जली कटी सुनना ।  बचपन में जब शायद वह 3 साल का होगा , उसे गौशाला में गायों के साथ बंद कर दिया था उसकी मा की सास ने। और  मा कुछ नहीं कर पाई। अपनी उस बहुत छोटी उम्र  में अपनी माता जी के साथ वह रोज ऊपर की ओर सड़क में नौला की तरफ जाता था यहां से गगरी में भरकर माताजी कई बार पानी लाती थी। तब माला गांव में पक्के मकान बहुत कम थे। अब तो काफी लोगो ने बड़े बड़े मकान बना लिए हैं। 

माला गांव की सपाट घाटी मैं दूर-दूर तक खेत थे जहां औरते खेती का काम भी करती थी।

उसके पापा जब 2 साल के थे तब उनकी मां की मृत्यु हो गई। पापा के पिताजी ने शीघ्र ही दूसरा विवाह किया और 12 साल की नई मां (जिनको  कैंजा कहते थे) घर पर आ गई। वह पापा से दस साल बड़ी थी यानी बारह साल की। उस जमाने में बाल विवाह की प्रथा काफी जोरों पर थी। 

कुछ वर्षों बाद दादी ने बच्चों को जन्म देना शुरू किया। पहली लड़की  शायद 17 साल की उम्र में हुई थी  । उसके बाद तीन और लड़कियां हुई  और उसके बाद दो पुत्रों  का जन्म हुआ और अंत में उसकी सबसे छोटी बुआ का।

घर में  बच्चों को देखने की ड्यूटी उसके पापा की थी क्योंकि वह सबसे बड़े थे तो गोद में किसी बच्चे को चुप कराते हुए या खिलाते हुए उन्होंने अपना विद्यार्थी जीवन शुरू किया। फिर भी हर साल अपनी कक्षा में प्रथम आए और यह सिलसिला उन्होंने एम एस सी की परीक्षा तक जारी रख्खा। 

उसके पापा ने हाई स्कूल की पढ़ाई अल्मोड़े के जीआईसी इंटर कॉलेज से की। पढ़ाई के दौरान वह मॉल रोड पर स्थित जय दत्त जी के मकान में रहते थे जिनको उसके पापा जयका कहते थे । मुझे पता नहीं कि उस समय उसके दादा जी कहां पोस्टेड थे क्योंकि आम तौर पर दादाजी अल्मोड़ा में सरकारी नौकरी करते थे। हां इतना अवश्य पता है कि 1935 में वह इलाहाबाद में पोस्टेड थे क्योकि उस पोस्टिंग के दौरान उसके बड़े चाचा का जन्म हुआ था इलाहाबाद के कर्नलगंज वाली रोड पर स्थित एक मकान में । बाद में उसके चाचा ने उसे वह मकान दिखाया था जब वह इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा था ।

उसके पापा ने हाईस्कूल  और  इंटर  प्रथम श्रेणी में पास किया और पूरे कुमाऊं में सबसे ज्यादा नंबर लाए।

फिर वो ग्रेजुएशन के लिए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी गए  और वह वहां गंगानाथ झा हॉस्टल में रहे।  वहां से उन्होंने बीएससी किया, फर्स्ट क्लास फर्स्ट, हमेशा की तरह।

 उसके बाद लखनऊ यूनिवर्सिटी में आ गए और उन्होंने एमएससी किया फर्स्ट डिवीजन और टॉपर बनकर। यूनिवर्सिटी में वह बटलर हॉस्टल में रहते थे और बटलर हॉस्टल की क्रिकेट टीम में भी सदस्य थे। 

 प्रथम श्रेणी में एमएससी करने के बाद सवाल आया नौकरी का । उसे जमाने में या तो आप सरकारी नौकरी करते थे या फिर टीचर बनते थे।
अच्छे विद्यार्थी अगर साधन संपन्न हो तो उस जमाने में इंग्लैंड जाकर आईसीएस के परीक्षा में बैठते थे। दादाजी साधन संपन्न नहीं थे इसलिए आईसीएस की परीक्षा में बैठना नहीं हो पाया । नौकरी मिलना बहुत मुश्किल था उसे जमाने में। टीचर बनने के लिए LT की एक साल पढ़ाई होती थी। 

फिर सरकारी नौकरी का प्रयास शुरू हुआ  और साथ ही एलटी की डिग्री प्राप्त की। (वही डिग्री LT की बाद में बी एड बन गई थी)। अपने ट्रेनिंग के दौरान वो क्रिश्चियन कॉलेज में जो बलरामपुर हॉस्पिटल के पास था फिजिक्स पढ़ाया करते थे थ्योरी और प्रैक्टिकल दोनों। इसी दौरान उनका सिलेक्शन डिप्टी कलेक्ट्री में हो गया और वह बिजनौर में पोस्ट हुए । वहीं पर खीमा का जन्म हुआ। 

 एमएससी की पढ़ाई के दौरान ही खीमा के पापा का विवाह भोला जी की लड़की से हो गया  । भोला जी उस समय नैनीताल में रहते थे और सरकारी दफ्तर में ऑफिस सुपरिटेंडेंट थे। 

बिजनौर में उसके पापा जिस मकान में रहते थे वह पुराने जमाने का काफी बड़ा मकान था जिसके दो हिस्से कर दिए गए थे और जिस पर दो किराएदार रहते थे। उसके पापा के अलावा दूसरे किराएदार एक बहुत ही सज्जन पुरुष थे जो कहीं पर पढ़ाते थे और उनको सब लोग मास्टर साहब कहते थे।

बिजनौर  मे 5 साल रहने के बाद खीमा के पिताजी का तबादला गोरखपुर हो गया। तब वह करीब 2 साल का था।

 गोरखपुर की बातें कहानी के पार्ट 2 में ।
(आगे की कहानी पार्ट 2 में)

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