Total Pageviews

Saturday 10 December 2022

पुरानी बातें रेलगाड़ी वाली

एक जमाने में रेलगाड़ी की यात्रा में अक्सर आंख में  रेल के इंजन से निकलने वाले धुंए के कोयले के  कण घुस जाते थे और परेशानी होती थी। इसीलिए  उस जमाने में फर्स्ट क्लास के डिब्बों में  खिड़कियों में कांच और लकड़ी shutters के अलावा एक लोहे की जाली का भी shutter  होता था  ताकि कोयले के कण अंदर नहीं आ पाए।

तब ट्रेनें बहुत कम थी और यात्री भी इतने नहीं होते थे।  जंक्शन वाले बड़े स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर वन में कम ही ट्रेन आती थी। पैसेंजर ट्रेन को जिसमे ज्यादातर गांव के गरीब आदमी ही सफर करते थे प्लेटफार्म नंबर तीन या चार पर डाल दिया जाता । 

 जंक्शन स्टेशन के चौड़े साफ सुथरे  लंबे प्लेटफार्म से अच्छी जगह सैर करने की शहर में और कोई नहीं होती थी। एक तो प्लेटफार्म बहुत साफ-सुथरे होते थे और लंबे होते थे फिर घूमते घूमते आप  कुल्लड़ वाली चाय पी सकते थे और प्लेटफार्म में मैगजीन और अखबार के स्टॉल में जाकर अपने पसंद का अखबार या मैगजीन खरीद सकते थे।
अक्सर वहां दोस्तों से भी मुलाकात हो जाती थी।

बचपन में हम कभी कभी प्लेटफार्म की सैर कर लेते थे अपने पापा के साथ या फिर अपनी दीदी या छोटी बहिन कान्ता के साथ और चंदा मामा जैसी मैगजींस खरीद कर लाते थे। वहां के टिकट चेकर त्रिपाठी जी हमारी जान पहचान के थे और प्लेटफार्म टिकट हम नही खरीदते थे। वैसे भी तब प्लेटफार्म टिकट के बिना भी लोग प्लेटफार्म पर जाते थे। उस जमाने में प्लेटफॉर्म टिकट एक आने का (छह पैसे का) होता था ।

रेल की बात आती है तो रेलवे कॉलोनी की बात भी आनी चाहिए।  उस जमाने में शहर की सबसे खूबसूरत कॉलोनी रेलवे कॉलोनी ही होती थी जहां साफ-सुथरे मकान होते थे , रेलवे में काम करने वालों के लिए खेल के मैदान होते थे, शहर की सबसे बढ़िया सड़कें होती थी और उन पर सबसे ज्यादा रोशनी देने वाली लाइट होती थी।

जी हां रेलवे कॉलोनी भी सैर करने के लिए अच्छी जगह थी पर वहां सन्नाटा होता था। प्लेटफार्म का मजा ही कुछ और था। चहल पहल थी ट्रेन आती-जाती दिखाई देती थी चाय की दुकानें थी किताबों की दुकानें थी

तब ज्यादातर लोगों के सामान में लोहे का एक ट्रक और एक होल्डॉल जरूर होता था और परिवार के लोग प्लेटफार्म पर अक्सर ट्रंक और होल्डॉल के ऊपर बैठ कर ट्रेन का इंतजार करते हुए नजर आते थे।

तब लोग घर से खाना बना कर लाते थे ट्रेन में खाने के लिए । प्लेटफार्म में मिलने वाली चीजें कभी खाते थे हां चाय तो सभी पीते थे और तब चाय मिट्टी के कुल्हड़ में होती थी प्लास्टिक के कप में नहीं और मिट्टी के कुल्हड़ की चाय की सोते-सोते खुशबू अपने आप में एक बहुत ही अच्छा एहसास था। 

रात की ट्रेन चलते के बाद परिवार के साथ जाने वालों के टिफिन केरियर खुलने लगते थे और पूरी की चटपटी सब्जी की और अचार की खुशबू पूरे डिब्बे में भर जाती थी तब जो लोग अगले स्टेशन पर प्लेटफार्म से खरीद कर खाना खाने का इंतजार कर रहे होते थे उनकी भूख और भी ज्यादा बढ़ जाते थे। 

कई ऐसे स्टेशन थे जो खाने-पीने के सामान की वजह से प्रसिद्ध हो गए थे जैसे संडीला स्टेशन के लड्डू (संडीला स्टेशन उत्तर प्रदेश में लखनऊ और हरदोई के बीच में पड़ता है)।  दक्षिण भारत की रेल यात्रा में इटारसी स्टेशन में एक जमाने में बहुत ही बढ़िया दूध मिलता था और ज्यादातर लोग वहां ट्रेन के रुकने पर जायकेदार दूध ही पीना पसंद करते थे। वैसे ही चेन्नई जाने में (जिसको तब मद्रास कहते थे) रास्ते में एक बहुत छोटा स्टेशन पड़ता है नेल्लौर का। वहां के प्याज वाले चटपटे दाल बड़े बहु ही स्वादिष्ट होते थे। लखनऊ से नैनीताल एक्सप्रेस काठगोदाम जाने पर सुबह हल्द्वानी से कुछ पहले लाल कुआं स्टेशन पहुंचा था जहां पर गाड़ी बेड डबल इंजन लगता था क्योंकि वहां से थोड़ी चढ़ाई शुरू हो जाती थी इसमें कुछ वक्त लग जाता था इसलिए ट्रेन काफी देर रुकती थी। वहां पर सुबह-सुबह बढ़िया जलेबी मिलती थी और दूध जलेबी का नाश्ता करने वाले काफी शौकीन होते थे ट्रेन में ऐसे और भी स्टेशन होंगे जिन्हें खाने पीने की चीजों की वजह से याद किया जाता है पर मुझे अब कुछ याद नहीं है। हां बड़ौदा स्टेशन पर एक बार खाने की थाल का आर्डर दिया था। जब खाना आया और मैंने एक चम्मच डाल मुंह में डाली तो नमक के साथ चीनी का भी स्वाद आया। फिर पता चला कि गुजरात में खाने में मीठा मिलाने का भी रिवाज है। 

बाकी फिर कभी। आज के लिए इतना ही।

***

No comments: