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Monday, 7 March 2022

यूनिवर्सिटी की बातें

 यूनिवर्सिटी की बातें

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और लखनऊ यूनिवर्सिटी इन दोनों जगह का हॉस्टल में रहने का अनुभव है मुझे पुराने जमाने में, जब विश्वविद्यालय में पॉलिटिक्स कम और पढ़ाई ज्यादा होती थी , जब हॉस्टल में असामाजिक तत्व नहीं रहते थे ।

लखनऊ यूनिवर्सिटी और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हॉस्टलों में रहने का सबसे बड़ा फर्क यह है की इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के सभी हॉस्टल जिस एरिया में थे वहां पर बहुत बड़ी बाजार हुआ करती थी कटरा की तो वहां रहना बड़ा सुविधाजनक होता था । बाहर खाने का मन हुआ तो भट्ट जी की दुकान पर चले गए और चाय बंद मक्खन का नाश्ता हो गया। दिन में बाहर खाने का मन किया तो चार कदम पर जगाती का रेस्तरां। सामान खरीदना हो तो चौराहे पर दुकान वहीं पास में । किताबें खरीदनी हो तो यूनिवर्सिटी रोड पर किताबों की बहुत सी दुकान थी । रात में सेकंड शो सिनेमा देखने का मन हुआ जो रात के 12:30 बजे तक चलता है तो यूनिवर्सिटी के पास ही लक्ष्मी टॉकीज सिनेमा हॉल । मतलब यह हुआ कि रहना बड़ा सुविधाजनक था । वही बगल में पान सिगरेट की दुकान भी और कटरा में बिल्कुल हॉस्टल के नजदीक एचडी पंत की टेलरिंग शॉप । कटरा चौराहे पर नेतराम हलवाई की प्रसिद्ध दुकान जहां संडे के दिन शाम का भोजन का प्रबंध हो जाता था पूरी और सब्जी का खाना ( हर संडे को शाम का खाना बाहर खाना होता था क्योंकि mess की छुट्टी होती थी) । सिविल लाइंस या चौक जाने का मन हो तो बाहर निकलते ही हॉस्टल के गेट पर रिक्शा मिल जाता था और  चार आने में सिविल लाइंस और 6 आने में चौक । प्रयाग स्टेशन भी नजदीक ही था । कहने का मतलब यह है कि सुविधाएं बहुत थी। हॉस्टल में भी एक से ज्यादा खाने के mess होते थे  और उनमें कंपटीशन की वजह से खाना ठीक ही मिल जाता था । और तो और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हॉस्टल की एरिया में ही यूनिवर्सिटी का अस्पताल था जिसे डिस्पेंसरी कहा जाता था । एक बार जब बीमार पड़ा तो वही एडमिट हुआ और बहुत सुविधाजनक तरीके से इलाज हो गया । इलाहाबाद की तरह लखनऊ यूनिवर्सिटी में ऐसा अस्पताल नहीं था। अगर बीमार पढ़ो तो केजीएमसी मेडिकल कॉलेज जो वहां से मीलो दूर था वहां एडमिट होने के लिए जाओ।

अब आइए लखनऊ यूनिवर्सिटी की बात करते हैं। लखनऊ यूनिवर्सिटी के करीब करीब सभी हॉस्टल मेन रोड से बहुत ही दूर थे और मेन रोड पर भी कोई बाजार नहीं थी, न कोई सिनेमा हॉल था,  ना कोई टेलरिंग शॉप थी, ना ही कोई किताबों की दुकान थी।  किताब खरीदना हो तो कई किलोमीटर दूर भीड़ भड़ से भरी अमीनाबाद  मार्केट जाइए। सिनेमा देखना हो तो वो भी बहुत दूर कई किलोमीटर का रास्ता है । रोजमर्रा का सामान खरीदने का काम भी मुश्किल था । मैं आजकल की बात नहीं कर रहा हूं। मैं बात कर रहा हूं  60 साल पहले की। अगर लखनऊ यूनिवर्सिटी में मैं हॉस्टल में रह पाया तो सिर्फ इस वजह से कि मैं घर से साइकिल ले आया था। इसकी जरूरत  इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में नहीं पड़ी थी। उसी साइकिल में हजरतगंज अमीनाबाद हुसैनगंज नजीराबाद रोड सभी जगह जाता था।

आखिर में बात करते हैं हॉस्टल के वातावरण की - भाईचारे की,  सोशल एक्टिविटीज की । तो इस मामले में भी लखनऊ यूनिवर्सिटी के हॉस्टल इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हॉस्टल से बहुत पीछे थे। इलाहाबाद में मैं जिस हॉस्टल में रहता था वहां हर साल जाड़ों में बहुत बड़ा सोशल फंक्शन होता था जिसमें शहर के बड़े बड़े लोग उपस्थित होते थे । लखनऊ यूनिवर्सिटी में ऐसा कुछ नहीं था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में नए लड़कों की बड़ी तगड़ी होती थी रैगिंग। लेकिन इसका फायदा यह था कि इस के बाद हॉस्टल के सभी लोग एक दूसरे को अच्छी तरह जान जाते थे और एक परिवार की तरह रहते थे । लखनऊ यूनिवर्सिटी में ऐसा कुछ नहीं था ।हॉस्टल में बगल वाले कमरे में कौन है उससे हमें कोई मतलब नहीं रहता था सिर्फ अपने दोस्तों तक रहते थे।

यह सब पुरानी बातें हैं  । आजकल इलाहाबाद और लखनऊ यूनिवर्सिटी का क्या हाल है इसके बारे में वहां इस समय रहने वाले लड़के ही बता सकते हैं।

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