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Monday 1 April 2024

सब कुछ बदल गया है

हॉलीवुड की तर्ज पर मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री का नाम कब से बॉलीवुड पड़ा यह तो मुझे पता नहीं पर मैं बचपन से ही फिल्मों में दिलचस्पी रखने लगा था। बचपन में फिल्म देखने की आदत काम ही मिलती थी और साल में मुश्किल से एक दो फिल्में देख पाते थे वह भी जब बड़े लोग जाकर फिल्म देखा जाए और फिल्म बच्चों के देखने लायक मानी जाए। पर सिनेमा के पोस्टर देखने में बड़ा मजा आता था।

जब मैं स्कूल में पढ़ता था तब हमारे घर के सामने जो बड़ी चौड़ी सड़क है थी उसके ऊपर से अक्सर सिनेमा हॉल मैं आने वाली नई फिल्मों के बारे में जानकारी देने के लिए एक छोटा सा कारवां निकलता था। जोकर की पोशाक में फिल्म के विज्ञापन के बड़े-बड़े पोस्टर हाथ पर लिए हुए लड़के एक के पीछे एक कतार में चलते थे और धारा लगते थे "आज रात को यूनाइटेड टॉकीज के सुनहरे पर्दे पर हंटर वाली के हैरतंगेज कारनामे " और हवा में आने वाली फिल्म के पैम्फ्लेट उछालते रहते थे । उनके पीछे-पीछे चलने वाले तमाशा बिन लड़के इन पर्चियां को लूटते रहते थे।

 बचपन में शायद सबसे पहले जिस फिल्म का इस तरह का विज्ञापन देखा था वह "हंटर वाली की बेटी" था । यह 1940 के दशक के आखिर की बात है।

उसे जमाने में सुरैया और देवानंद की बड़ी धूम थी। दिलीप कुमार तो हमेशा फिल्में के आखिर में मर जाता था और मुझे उसकी फिल्में बिल्कुल पसंद नहीं थी।

फिल्म की पहली मैगजीन जो मैंने देखी थी वह फिल्मlफेयर थी। 1952 में शायद पहली बार प्रकाशित हुई थी । उसे जमाने में 8 आने की एक मैगजीन आती थी ।  इंटरनेट तो था नहीं तो मैगजीन खूब बिकती थी और बड़े-बड़े साइज की बहुत सी मैगजीन थी जैसे इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया, धर्म योग साप्ताहिक हिंदुस्तान शंकर्स वीकली। सभी छह आने से 8 आने के बीच में होती थी। 50 के दशक में blitz नाम की मैगजीन‌ एक बहुत बिकने वाली अखबार नुमा साप्ताहिक मैगजीन थी चार आने की।

 बच्चों की जो सबसे पहले मैगजीन मैंने पढ़ी थी वह शिशु थी। चार आने की आती थी, छे सात साल के बच्चों के लिए पढ़ने वाली ।  चंदा मामा और मनमोहन भी काफी लोकप्रिय मैगजीन थी । 

50 का दशक बॉलीवुड सिनेमा का संगीत का  सफल समय की शुरुआत था। सिनेमा के गाने उसे जमाने में ऑल इंडिया रेडियो यानी दूरदर्शन पर नहीं सुनाए जाते थे क्योंकि सरकार की आदर्शवादी नीति के कारण सिर्फ क्लासिकल संगीत ही ऑल इंडिया रेडियो में सुनाया जाता था। इसका फायदा उठाया श्रीलंका की रेडियो एडवरटाइजिंग सर्विसेज ने ।  श्रीलंका को तब सिलोन नाम से जाना जाता था ।और रेडियो सिलोन भारत में बहुत लोकप्रिय हो गया सिनेमा संगीत की वजह से। 

रेडियो सिलोन का सबसे सफल संगीत का प्रोग्राम बिनाका गीत माला था जो कि शायद 1952 में शुरू हुआ और उसकौ सफल करने का श्रेय पूरी तरह से अमीन सयानी को जाता है।

1960 के दशक के अंतिम वर्ष में बॉलीवुड कुछ फीका फीका सा पढ़ रहा था क्योंकि बहुत से काफी ज्यादा उम्र के कलाकार हीरो बनकर रोमांटिक फिल्मों में काम कर रहे थे जो दर्शकों को भा नहीं रहा था। तब अचानक फिल्म जगत में राजेश खन्ना की एंट्री हुई है फिल्म आरधना  के रोमांटिक हीरो के रूप में।
धो अचानक पूरी बॉलीवुड इंडस्ट्री को उन्होंने झिझोड़ के रख दिया। पहले आई आराधना फिर आई आनंद और फिर एक के बाद एक बहुत सी सुपरहिट फिल्म आई चली गई।

 इससे पहले कभी पूरा देश किसी एक कलाकार के पीछे इतना दीवाना नहीं हुआ था। और उसके साथ ही फिल्म आराधना के गानों से एक नए किशोर कुमार का फिल्म जगत में प्रवेश हुआ और वह था राजेश खन्ना के पार्श्व गायक के रूप में।रूप तेरा मस्ताना, रहने दो छोड़ो जाने दो यार,  कहीं दूर जब दिन ढल जाए जैसे आज गलत गार्डन ने देश को संगीत मय कर दिया।

आज के दौर में न तो कोई सुपरस्टार है ना तो कोई चमत्कारी सिंगर है ना तो कोई चमत्कारी सिनेमा हॉल है और नहीं कोई चमत्कारी फिल्म है।

 सब कुछ बदल गया है

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