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Sunday, 14 September 2025

हरचरण की शादी

हरचरण की शादी 

हर चरण का बचपन काफी नीरस सा बीता था क्योंकि उसके पिता साधन संपन्न नहीं थे। फिर जब उसकी अपनी नौकरी लग गई एक कॉलेज मेंऔर उसे हर महीने एक अच्छी तनख्वाह मिलने लगी तो उसके मन में शादी का विचार आ गया। पर शादी के लिए कहीं से कोई भी संदेश न उसके पास आया और न उसके पिता के पास। 

इस बीच उसका ट्रांसफर नैनीताल के एक कॉलेज में हो गया।

वह बड़ा कॉलेज था और उसमें बहुत विभिन्न विभागों के बहुत से शिक्षक भी काम करते थे। महिलाएं भी और पुरुष भी।

कॉलेज से एक टीचर महिला का नाम सुधा था । वह उसी की तरह लखनऊ की ही थी और हरचरण की जाति बिरादरी की भी।  इन दोनों मैं धीरे-धीरे एक दूसरे के प्रति थोड़ा लगाव सा हो गया । सुधा के मन में यह विचार कभी नहीं आया कि वह हरचरण से शादी करेगी। पर हरचरण के मन में उससे शादी करने के लिए विचार आ गया । सुधा उसकी अपनी बिरादरी की ही थी और लखनऊ की भी। साथ ही वह भी टीचर थी और इस तरह  खुद अच्छे पैसे भी कमाती थी। उसके लिए सुधा से अच्छी कोई लड़की नहीं हो सकती थीं। उसने कई बार शादी का प्रस्ताव रक्खा पर सुधा ने हर बार यही कहा की हम सिर्फ एक अच्छे दोस्त हैं। 

और फिर अचानक एक दिन सुधा का ट्रांसफर नैनीताल से लखनऊ हो गया। 

जब वह तल्लीताल से काठगोदाम जाने के लिए बस में बैठी थीं  तभी अचानक दौड़ता हांफता हरचरण वहां पहुंच गया और उसके हाथ में एक लिफाफा पकड़ा गया। वह कुछ कहने ही वाला था  
कि ड्राइवर अपनी सीट पर आकर बैठ गया और उसके ब्रेक हटाकर गाड़ी को चलाना शुरु कर दिया।

धीरे-धीरे पोस्ट ऑफिस के पास दाहिने मुड़ने के बाद तल्लिताल के नीचे वाली बाजार से होती हुई बस चीलचक्कर की तरफ बढ़ती गई। चीलचक्कर के पास बाईं  ओर दूर-दूर तक एक लाइन के पीछे दूसरी लाइन में अनेकों पहाड़ दिखाई देते थे और नीचे घाटी में तेज हवाएं चल रही थी । सुधा को  हरचरण का दिया हुआ लिफाफा याद आ गया। उसने लिफाफा खोला। उसके अंदर गुलाब के फूल की पंखुड़ियां थी और एक कागज में लाल इंक  से लिखा हुआ था," सुधा मैं तुमसे प्यार करता हूं और करता ही रहूंगा। तुम मुझे विवाह के लिए राजी हो जाओ।"

 झुझला कर सुधा ने उस कागज और लिफाफे को बस की खिड़की से जोर से बाहर फेंक दिया और कागज और गुलाब की पंखुड़ियां हवा में तैरती हुई नीचे घाटी में विलीन हो गई।

इधर सुधा के माता-पिता भी उससे शादी के लिए दबाव डाल रहे थे और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि किसी अजनबी से वह कैसे शादी कर सकती है जबकि उसे अपने करियर पर  बहुत रुचि थी। फिर बहुत सोच समझने के बाद उसे महसूस हुआ कि हर चरण जैसे सीधे-साधे इंसान के साथ शादी कर लेना ही सही होगा। 

जब हरचरण को यह पता चला तो उसने ईश्वर को   धन्यवाद दिया और शादी की तैयारी शुरू कर दी । उसके पिताजी, जो कचहरी के एक रिटायर्ड बाबू थे,  इस रिश्ते से बहुत प्रसन्न थे।

हरचरण के माता-पिता लखनऊ की लाल कुआं कॉलोनी के पास रहते थे। उनके मकान के आगे एक बहुत बड़ा मैदान था जिसके बीच में से एक सड़क उनके मकान को आती थी। लड़की के माता-पिता महानगर कॉलोनी में रहते थे।

क्योंकि मैं हरचरण को बहुत दिनों से जानता था तो स्वाभाविक था की हरचरण अपनी शादी में सम्मिलित होने का और शादी के टाइम पर मदद करने का निमंत्रण देता और वही हुआ। एक दिन हरचरन मेरे पास आया और शरमाते हुए बोला "भाई जी मैं शादी कर रहा हूं " मैंने कहा "किससे शादी कर रहे हो " तो बोला एक लड़की से । मुझे बड़ी हंसी आई मैंने कहा " भाई ,bकौन भाग्यवंबहै जो तुम्हारी पत्नी बनने वाली है।" तब उसके बताया कि उसकी शादी सुधा से होने वाली है जो महानगर के बद्री प्रसाद जी की पुत्री है।  

मैं बद्री प्रसाद जी को तो मैं अच्छी तरह जानता था। वह लखनऊ के सेक्रेटेरिएट के एक पुराने बाबू थे । वह मेरे पिताजी के परिचित भी थे और उनका हमारे यहां आना भी जाना रहता था।

जब हरचरण ने मुझसे कहा की आपको भी कुछ काम करना होगा शादी का इंतजाम मैं तो मैंने उसे बता दिया की कुछ दिन पहले ही बद्री प्रसाद जी ने शादी के दौरान  शादी का  कुछ इंतजाम संभालने को मुझसे कह दिया था।

खैर जो भी हो शादी की तैयारी शुरू हो गई। हरचरण ने महानगर कॉलोनी तक बारात में जाने के लिए एक चटक लाल रंग की छोटी सी और खुली मोटर कार किराए पर ले ली और बैंड बाजे वालों का भी इंतजार कर लिया था। 

और फिर लाल कुआं कॉलोनी से हरचरण की बारात बैंड बाजे के शोर के साथ चल पड़ी। आगे  एक बड़ी बस में बाराती भरे हुए थे , बैंड बाजे वाले भी लाल रंग की ड्रेस में साथ थे। पीछे लाल रंग की मोटर में हरचरन ।

इधर महानगर में बद्री प्रसाद जी के मकान में सभी लोगों के साथ मैं भी बारात  का इंतजार कर रहा था। 

शादी का मुहूर्त नजदीक आ रहा था पर बारात का कहीं अता-पता नहीं दिखाई दे रहा था । बैंड बाजे वालों की आवाज भी नही सुनाई दे रही थी। बद्री प्रसाद जी ने मुझसे कहा बेटा जरा जाकर देखो तो बारात कहां  है। 

फिर मैं अपने स्कूटर में रवाना हुआ लाल कुआं की तरफ।
निशातगंज के जरा आगे गोमती के पुल के पास बारातियों से भरी बस खडी थी। मैने जब पता किया तो मालूम हुआ कि हरचरण की लाल मोटर न जाने कहां पीछे रह गई है।

मैं स्कूटर से फिर आगे बदा, लापता दूल्हे की तलाश में।
नरही के पास ही इनकम टॅक्स ऑफिस बिल्डिंग के सामने सड़क पर हरचरण की लाल मोटो खड़ी थी। आगे का बोनेट खुला हुआ था और ड्राइवर उसके अंदर घुसा हुआ था।
मैने स्कूटर रोक कर पूछा कि क्या हुआ तो हरचरण बौखला कर बोला की इस ड्राइवर के बच्चे ने सारे प्रोग्राम का कबाड़ा कर दिया है। ड्राइवर बहुत परेशान लग रहा था और अपने काम में जुटा हुआ था। हरचरण गुस्से मैं था और ड्राइवर को जली कटी सुना रहा था।

खैर कोई पंद्रह बीस मिनट बाद हरचरण की लाल मोटर ठीक हो गईं और मोटर के पीछे मै भी वापस महानगर की ओर चल पड़ा। फिर आगे आगे मोटर और पीछे बस चल पड़ी। निशात गंज की बाजार पार करने के बाद बस में से बैंड बाजे और पेट्रोमैक्स रोशनी वाले नीचे उतरे बारातियों के साथ और फिर धूम धड़ाके के साथ बारात चल पड़ी।

मैने स्कूटर स्टार्ट किया और जाकर लड़की वालो को बारात की सूचना दे दी।

खैर, विवाह संपन्न हुआ । सब लोगों ने खाना खाया। लाल मोटर के ड्राइवर ने भी खाना खाया पर वह बहुत परेशान लग रहा था। 

फिर रात बीती और सुबह हुई। दुल्हन की विदाई का समय आ गया तो लाल मोटर और उसके ड्राइवर की याद आई।

पर लाल मोटर और ड्राइवर गायब थे। दूर दूर तक तलाश करने के बाद ड्राइवर की दुकान में फोन किया। दुकान के मुंशी ने बताया कि ड्राइवर का कोई पता नहीं है।

अब समस्या थी दुल्हन को वापस ले जाने की। कई टैक्सी वालों से पूछा पर कोई भी तैयार नहीं हुआ। हरचरण के रिटायर्ड पिता काफी समय बाद एक काले पीले पुराने जमाने के टेंपो को कहीं से ले आए जो पीछे से ढेर सारा काला धुआं छोड़ रहा था।

पहले तो हरचरण उस टेंपो में जाने के लिए राजी ही नहीं हुआ। पर सब लोगों के समझाने पर अपनी दुल्हन समेत टेंपो के अंदर जा बैठा। काला धुंआ छोड़ते हुए टेंपो चल पड़ा। 

मेरा स्कूटर भी उसके पीछे चल पड़ा।

क्योंकि टेंपो अपनी मस्तानी चाल चल रहा था धुंए के गुब्बार में इसलिए  मैं काफी पहले तेज स्पीड में लालकुआ के पास हरचरण के मकान में पहुंच गया। दुल्हन का स्वागत करने के लिए सभी बाहर आकर सामने मैदान से आती हुई सड़क की तरफ देखने लगे।

अचानक एक बड़े misfire धमाके के साथ वह काला भद्दा टेंपो मैदान के दूसरे छोर से दाखिल हुआ और थोड़ा आगे बढ़ते हुआ एक और misfire धमाका हुआ और फिर टेंपो के आगे का पहिया टूट गर गिर पड़ा और टेंपो के चारों तरफ काला धुंआ फैल गया।

पर उस धुंए के बादल को चीर कर हरचरण नई दुल्हन के साथ निकला।

स्वागत की रस्में पूरी हुईं । फिर जलपान का दौर चला। मैं भी एक कोने मैं खड़ा होकर छोले भटूरे खा रहा था कि अचानक हरचरण मेरे पास आ गया। उसकी आंखों में आंसू थे। भुर्राई हुईआवाज में बोला, " भाई जी, शादी मैं कुछ मजा नही आया।

मैने उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, " मेरे भाई दुखी मत हो। बड़ी बात यह है की तुम्हारी शादी हो गई है अपनी पसंद की लड़की के साथ। "

बगल मैं मेरे परिचित सरदार जसवंत सिंह जी भी छोले भटूरे चबा रहे थे। उन्होंने मेरी बात सुनी तो भटूरे भरे मुंह से बोल पड़े , " त्वाडी गल चंगी है। हरचरण दी शादी सुधा नाल हुई है, टेंपो नाल नही।" फिर अपने ही जोक पर हंसते हुए भटूरा चबाने लगे।

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रेलगाड़ी रेलगाड़ी छुक छुक छुक छुक छुक छुक छुक छुक

रेल गाड़ी रेलगाड़ी छुक छुक छुक छुक छुक छुक छुक छुक 


हो सकता है कि यह गाना आपने सुना हो। इस गाने को 1968 की फिल्म आशीर्वाद में अशोक कुमार के ऊपर फिल्माया गया है। इस दृश्य में अशोक कुमार रेल के इंजन है और पीछे-पीछे छोटे-छोटे बच्चों की एक लंबी कतार रेल के डिब्बे हैं।

लंबी दूरी की यात्राओं के लिए रेलगाड़ी का बहुत महत्व है जिससे काफी तेजी से सफर करना संभव हो सका। पर एक समय ऐसा भी था जब रेलगाड़ी नहीं होती थी और उस समय लंबी दूरी की यात्रा करने में कितनी परेशानी होती थी यह आजकल के लोगों की कल्पना के बाहर है।

 19वी सदी में लिखी गई पुस्तकों से पता चलता है कि  साधन संपन्न अंग्रेज किस तरह से कोलकाता से दिल्ली या शिमला की यात्रा  करते थे। घोड़े पर बैलगाड़ी पर या फिर पालकी पर यात्रा होती थी। पालकी को चलाने वाले चार मजदूर या फिर घोड़े की यात्रा करने पर एक घोड़ा या फिर बैलगाड़ी की यात्रा करने पर दो बैलों को कुछ कुछ दूरी पर बदलाना जरूरी हो जाता था ताकि  थके हुए प्राणियों की जगह तरो ताज प्राणी आ जाएं और आगे का सफर संभव हो। इसके लिए बहुत इंतजाम करना पड़ता था । आम आदमी को कोई भी सुविधा उपलब्ध नहीं थी। एक शहर से नजदीकी दूसरे शहर जाने में कई दिन लग जाते थे और कोलकाता से दिल्ली की यात्रा में तो कई सप्ताह लगते थे।

फिर रेलगाड़ी आ गई ।

रेलवे इंजन का आविष्कार करने का श्रेय आम तौर पर जेम्स वाट को जाता है जिन्होंने लंबे समय तक चलने वाले भाप के इंजन का आविष्कार किया। पर इसका रेलगाड़ी में इस्तेमाल करने का श्रेय जाता है रिचर्ड थ्रेवेथिक को जब  21 फरवरी 1804 में  व्यवहारिक रेलवे इंजन से पहली रेलगाड़ी ब्रिटेन में  कुछ दूरी तक चली।

भारत में पहली रेलगाड़ी बॉम्बे (मुंबई) से थाणे तक 16 अप्रैल सन 1853 को चली और इसके साथ ही भारत में रेलवे का इतिहास शुरू होता है। 1857 की क्रांति के बाद 
ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से सत्ता का परिवर्तन ब्रिटिश सरकार को हो गया । इसके बाद तो पूरे देश पर रेलवे लाइन का जाल बिछने लगा और भारत की आजादी तक देश के काफी हिस्सों को रेलवे लाइन से जोड़ दिया गया। रेलगाड़ी के चलने के लिए तीन तरह के  ट्रैक यदि रेल की पटरी का इस्तेमाल किया गया जिनको नैरो गेज , मीटर गेज और ब्रॉड गेज कहा जाता है। सबसे चौड़ी रेलवे पटरी ब्रॉड गेज में होती है और सबसे कम चौड़ी नैरो गेज मेंआजकल आम तौर  पर ब्रॉड गेज पटरी ही होती हैं।

अभी भी भारत के कुछ  महत्वपूर्ण शहरों में रेलगाड़िया नहीं पहुंच पाई है खासकर पहाड़ी क्षेत्र में । पर रेलवे मंत्रालय इस बारे में बहुत प्रयास कर रहा है। कुछ ही समय पहले (सितंबर 2025 में) उत्तर पूर्व पहाड़ियों में मिजोरम की राजधानी आइजॉल के बिल्कुल नजदीक के शहर तक रेल की पटरिया पहुंच गई है। पहाड़ी क्षेत्र में रेल गाड़ी चलाना बड़ा मुश्किल होता है बड़े-बड़े पुल बनाने पड़ते हैं और सुरंग भी बनानी पड़ती है पहाड़ों के अंदर।

जहां तक छुक छुक छुक छुक का सवाल है अब समय बदल चुका है। अब भाप से चलने वाले वह बड़े-बड़े रेलवे इंजन जा चुके हैं जो छुक छुक छुक छुक वाली रेलगाड़ियां चलाते थे। अब रेलवे की प्रगति के साथ डीजल के इंजन और बिजली के इंजन प्रयोग में करीब करीब सभी जगह इस्तेमाल हो रहे हैं और रेलगाड़ी का पुराना छुक छुक वाला समय बीत चुका है। 

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Saturday, 13 September 2025

मनुष्य के अस्तित्व पर संकट

21वीं सदी के आते-आते बहुत कुछ ऐसा होने लगा है जिससे लगता है की विश्व का भविष्य खतरे में है। 

प्राचीन काल मैं उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के मध्य में, जहां आजकल ग्वाटेमाला और मेक्सिको इत्यादि है , एक समय में माया नाम की सभ्यता हुआ करती थी जिसे यूरोप के स्पेन के  आक्रमण  ने नष्ट कर दिया था।

 माया एक बहुत ही विकसित पुरानी सभ्यता थी जो 2000 ईसवी पूर्व के समय से ही चली आ रही थी।

स्पेन के आक्रमण के बाद माया सभ्यता लुप्त हो गई। 

इस माया सभ्यता ने यह बहुत सदियों पहले ही भविष्यवाणी की थी कि सन 2012 में पृथ्वी की मानव सभ्यता का अंत हो जाएगा । इस भविष्यवाणी से 2021 की सदी के प्रारंभ में  इस बात की घबराहट होने लगी कि कहीं यह बात सच तो नहीं हो जाएगी।

जब वर्ष 2012 आया और आकर चला गया तो लोगो ने चैन की सांस की ।

पर अब ऐसा लगने लगा है कि जिस तरह से पूरे विश्व में हालात बदल रहे हैं उसे देखते हुए मनुष्य का भविष्य निश्चित रूप से संकट में है। क्योंकि मनुष्य की वर्तमान सभ्यता पर 21वीं सदी में कई ओर से हमला हो रहा है।

पहला हमला है क्लाइमेट चेंज से होने वाली समस्याओं का। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में विशाल बर्फ की चट्टानें पिघल रही हैं और समुद्र का स्तर लगातार बढ़ता जा रहा है। इससे समुद्र तट पर स्थापित कई बड़े शहरों के समुद्र में डूबने का समय नजदीक आता जा रहा है। मिसाल के तौर पर इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता शहर का एक हिस्सा समुद्र में चला गया है और बाकी शहर भी कुछ ही वर्षों में समुद्र के अंदर चला जाएगा।

पढ़िए इस विषय में विकिपीडिया क्या कहता है :

"यह सच है कि इंडोनेशिया का जकार्ता शहर समुद्र में डूब रहा है क्योंकि यह तेजी से ज़मीन में धंस रहा है और बढ़ते समुद्री स्तर के कारण बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है। इस समस्या के कारण 2050 तक उत्तरी जकार्ता का बड़ा हिस्सा जलमग्न हो सकता है। "

 दूसरी तरफ ठंडी जलवायु वाले पृथ्वी के देशों में अचानक बहुत गर्मी पड़ने लगी है, खासकर यूरोप में। और इधर कुछ सालों से इस तरह की बारिश भी हो रही है जैसा पहले शायद ही कभी हुईं हो और इसके कारण बहुत तबाही हो रही है । बहुत से गांव बाढ़ में बहकर गायब हो जा रहे हैं और बहुत से बड़े-बड़े पहाड़ टूटकर विनाश के कारण साबित हो रहे हैं।

एक और परेशानी सामने आ रही है। यह तो पता है सबको कि पृथ्वी में जमीन की सतह से कुछ नीच पानी का विशाल भंडार है। जब पानी के हैंड पंप का आविष्कार हुआ तो एक पाइप जमीन के नीचे डालकर पंप से पानी खींचकर ऊपर निकलना शुरू हो गया। जब शहरों का विकास हुआ तब जो शहर नदी के किनारे नहीं थे वहां पर इसी तरह के हेड पंप लगाकर पानी निकाला जाता था रोज-रोज की आवश्यकताओं के लिए। 

फिर बिजली के बड़े-बड़े पंप आ गए विज्ञान की प्रगति के साथ। अब यह संभव हो गया की बहुत ही अधिक मात्रा में बहुत ही कम समय में पानी बाहर निकाला जा सकता था और मनुष्य ने यह काम शुरू कर दिया जोर-जोर से। फिर तो खेतों में भी पानी देने के लिए बड़ी मात्रा में जमीन के नीचे से पानी निकालने का कब शुरू हुआ। नतीजा यह हुआ की धीरे-धीरे जमीन के नीचे के इस पानी की सतह का नीचे जाना शुरू हो गया। पृथ्वी का ऊपरी जमीनी भाग क्योंकि इसी पानी पर टिका हुआ है तो इससे जमीन भी नीचे को धसते लगी जिसे अंग्रेजी में subsidence of land कहते हैं। इसे और ज्यादा गति इस बात से मिली कि बड़े-बड़े शहरों में जमीन के ऊपर बहुत ऊंची ऊंची इमारत का निर्माण होना शुरू हो गया जिससे पृथ्वी की सतह पर बहुत ही अधिक भार होने लगा। इससे पृथ्वी के नीचे को धसाने का काम तेजी से बढ़ने लगा। इसका असर न केवल जकार्ता शहर पर पड़ा बल्कि और  बड़े-बड़े शहरों पर भी पड़ा जो समुद्र के किनारे स्थित है जैसे कैलिफोर्निया का सैन फ्रांसिस्को शहर और भारत का मुंबई शहर। 

यह अकेली मुसीबत नहीं है। अब सभी देशों में चाहे वह देश की जनता हो, चाहे वह देश का नेतृत्व करने वाले नेता हो, मनःस्थिति खराब हो चली है। रूस के पुतिन हो या अमेरिका के ट्रंप हो या कोरिया और इजरायल के नेता हों या और कोई देशों के नेता हो , सभी संयम से काम लेने के बजाय इस तरह के काम कर रहे हैं जिससे विश्व युद्ध का खतरा  बढ़त जा रहा है। और जनता के  आक्रोश को देखें तो श्रीलंका में कुछ साल पहले हुई बर्बादी और विद्रोह के बाद यही बात बांग्लादेश में भी हुई पिछले साल और अभी-अभी कुछ दिन पहले नेपाल को जलाकर वहां की जनता ने अपना विद्रोह प्रकट किया है। 

बात यहीं खत्म नहीं हो जाती है। मनुष्य का शरीर  भी विज्ञान की प्रगति के  संकट में है । फूल पौधों के, अनाज के, जानवरों के और यहां तक की मनुष्यों के भी ऊपर भी जेनेटिक एक्सपेरिमेंट किये जा रहे हैं। उनके जींस बदले जा रहे हैं।  इससे कारण सब्जियों के प्राकृतिक गुण खत्म होते जा रहे हैं। दूध को ऑक्सीटोसिन से प्रदूषित किया जा रहा है, साग सब्जियों को, फलों को, कार्बाइड गैस और तरह-तरह के रसायन से पकाया और बड़ा किया जा रहा है। खाने की वस्तुओं को पैकेट बंद बेचने के लिए उनमें पेस्टिसाइड्स, प्रिजर्वेटिव्स ,रंग, खुशबू वगैरह मिलाए जा रहे हैं। इन सभी से नई-नई बीमारियां पैदा हो रही है और मनुष्य के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। 

और भी बहुत कुछ हो रहा है ।

धर्म के नाम पर आतंक फैलाया जा रहा है। मनुष्य की चमड़ी के रंग और जाति आधार पर भी   आतंक हो रहा है। देखा जाए तो मनुष्य का मस्तिष्क भ्रमित होता जा रहा है। उसके अंदर आक्रोश और क्रोध भरा हुआ है और वह अपने आक्रोश की वजह से अपना मानसिक संतुलंत होता जा रहा है जिसका अंत विनाश में ही होना है। 

भगवत गीता में भी यही कहा गया है . . . 

 "क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।
(भगवद् गीता के अध्याय 2, श्लोक 63)

अर्थात क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति भ्रमित होती है, स्मृति भ्रमित होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है, और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का पतन हो जाता है क्योंकि यह सही निर्णय लेने की क्षमता  को खत्म कर देता है, जिससे मनुष्य गलतियाँ करता है और अंततः अपना ही विनाश कर बैठता है। 

विश्व एक बहुत बड़ी त्रासदी की तरफ बढ़ता प्रतीत हो रहा है।


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Friday, 12 September 2025

क्या विज्ञान ही अंतिम सत्य है ?

क्या विज्ञान ही अंतिम सत्य है ?

आप एक किताब को पढ़ते हुए अपने कमरे में टहल रहे हैं। अचानक किताब आपके हाथ से छूट जाती है और नीचे जाकर जमीन पर गिर जाती है। किताब आपके हाथ से छूटकर ऊपर  नहीं गईं, दाहिने तरफ नहीं गई, बाय तरफ भी नहीं गई। वह नीचे चली गई । 

ऐसा क्यों होता है ? 

ऐसा होता है पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण। पृथ्वी हर चीज को अपनी तरफ खींचती है । इसी को गुरुत्वाकर्षण शक्ति कहते हैं। पेड़ से फल गिरकर नीचे जमीन पर आ जाते हैं । झरने  से पाली गिरता रहता है और नीचे आता रहता है। 

ऐसा कहा जाता है की एक दिन न्यूटन नाम का एक वैज्ञानिक एक सेब के पेड़ के नीचे बैठा हुआ था। अचानक पेड़ से एक पका हुआ सेब टूटता है और नीचे आकर उसके पास गिर जाता है। न्यूटन इसके बारे में काफी सोचता है और फिर गुरुत्वाकर्षण शक्ति नाम के एक सिद्धांत का जन्म होता है। 

इस तरह यूरोप की सभ्यता ने गुरुत्वाकर्षण शक्ति का पता लगाने का श्रेय न्यूटन को दे दिया 16वीं सदी में।

पर यह बात सही नहीं है क्योंकि इससे पहले भी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के बारे में काफी मालूम था विश्व की पुरानी सभ्यताओं को। इस गुरुत्वाकर्षण शक्ति का विस्तृत वर्णन सूर्य सिद्धार्थ नाम की एक प्राचीन भारतीय पुस्तक में  भी मिलता है जो सैंकड़ों  साल पहले लिखी गई थी ।

'सूर्य सिद्धांत' में गुरुत्वाकर्षण शक्ति का विस्तृत वर्णन है, विशेष रूप से भास्कराचार्य द्वारा लिखित संस्करण में, जो पृथ्वी और अन्य खगोलीय पिंडों के आकर्षण बल का उल्लेख करता है।  यह न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से कई शताब्दियों पहले ही इस बात की जानकारी देता है कि गुरुत्वाकर्षण के कारण ही सभी चीजों को पृथ्वी अपने गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण ही आकर्षित करती है और ब्रह्मांड में पृथ्वी तथा अन्य ग्रह इसी कारण से अपनी कक्षा में बने रहते हैं। 

पर आधुनिक विज्ञान को इसका कोई ज्ञान नहीं था। ऐसे ही विज्ञान को इस बात का भी ज्ञान नहीं था कि मनुष्य के तथा अन्य जीवों के शरीर में एक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक क्षेत्र होता है। जब इस बात का वर्णन हमारे पुराने ग्रंथों में आता था और खासकर पिछले दो सौ साल में लिखी हुई कुछ भारतीय पुस्तकों में तो वैज्ञानिक इस बात का मजाक उड़ाते थे। इसे बे सिर पैर की बात कहते थे। फिर 1954 में वैज्ञानिकों को इस बात का पता चला कि यह तो सच है कि वास्तव में ऐसा एक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड होता है। 

मतलब यह हुआ कि जब तक विज्ञान को पता नहीं चल जाएगा तब तक वह बात गलत है। और जब विज्ञान को उसका पता चल जाएगा तो उसके आविष्कारक को इतिहास में जगह मिल जाएगी इस बात के लिए कि इसी वैज्ञानिक ने इस बात का पता लगाया। दूसरे शब्दों में कहे तो यह दिखाई देता है कि विज्ञान को सब चीजों के बारे में ज्ञान नहीं होता । जैसे-जैसे विज्ञान की प्रगति होती है वैसे-वैसे नई चीजों के बारे में विज्ञान को पता चलता रहता है। एक वाक्य में कहें तो विज्ञान का ज्ञान आखिरी सत्य नहीं है। 

बहुत ही प्राचीन काल में मनुष्य ने कितनी प्रगति की थी इसके बारे में हमें कुछ भी पता नहीं है पर विज्ञान बड़े विश्वास के साथ कहता है कि आदमी के पूर्वज बंदर हुआ करते थे और बंदर से ही आदमी का जन्म हुआ है। सोचा जाए तो यह एक तरह का बकवास हो सकता है जो डार्विन नाम के एक आदमी  थ्योरी है और जिसे विज्ञान ने मान्यता दी है।

पृथ्वी कई अरब साल पुरानी है और हमें अपने इतिहास में सिर्फ पिछले पांच छह हजार सालों का वर्णन मिलता है। पर इससे पहले भी मनुष्य संसार में था और उसके बारे में हमें कुछ पता नहीं है। प्राचीन ग्रंथो से ऐसा आभास होता है कि हजारों साल पहले भी कई सभ्यताएं रह चुकी है जिनका नामोनिशान अब पूरी तरह से मिट चुका है। उस बीते हुऐ कल को जिसे हम  जानते ही  नहीं हैं और जिसे हमारा इतिहास जाने में असफल है विज्ञान पूरी तरह से नकार देता है।

 यह तो निश्चित है कि विज्ञान को सब चीजों के बारे में ज्ञान नहीं होता । जैसे-जैसे विज्ञान की प्रगति होती है वैसे-वैसे नई चीजों के बारे में विज्ञान को पता चलता रहता है। 

एक वाक्य में कहें तो विज्ञान का ज्ञान आखिरी सत्य नहीं है।

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अलाउद्दीन का चिराग

 अलाउद्दीन का चिराग 

बाजार जाकर सामान खरीदना युवा अवस्था में तो बहुत अच्छा लगता है पर जब उम्र बढ़ जाती है और शहर बहुत भीड़भाड़ वाला हो जाता है तब बाजार में सामान खरीदने जाने में आलस आता है।

अब लखनऊ की अमीनाबाद बाजार को ही ले लीजिए । कई दशक पहले अमीनाबाद बहुत साफ सुथरा था, भीड कम थी और सामान खरीदने में शरीर और दिमाग की थकावट नहीं होती थी। अब यह हाल है कि  घर से अमीनाबाद तक जाने में रास्ते में कई जगह जैम होते रहते हैं क्योंकी लखनऊ में चार दशक पहले जितनी साइकिल थी , अब उससे ज्यादा कार स्कूटर ऑटो रिक्शा हो गई है।
और बाजार के अंदर तो और भी बुरा हाल है। 

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में हमारे पास अलाउद्दीन का चिराग आ गया। इस अलाउद्दीन के चिराग को  मोबाइल फोन कहते है । स्मार्टफोन भी कहते हैं। अब आपको बाजार जाने की जरूरत नहीं है। सामान खरीदने के बहुत से ऐप है जैसे अमेजन, फ्लिपकार्ट, जियो, स्नैपचैट,1mg, ब्लिनकेट इत्यादि और आप किसी भी ऐप पर जाकर सभी तरह के सामान  के बारे में जानकारी हासिल कर सकते हैं कि कौन सा  कितने रुपए में मिलता है, किस तरह का सामान है , देखने में कैसा है इत्यादि इत्यादि। जो भी सामान खरीदना हो उसे  बास्केट में डालते जाइए और जब आप का काम खत्म हो जाए तो एक बटन दबाया और 15 मिनट के बाद आपके दरवाजे पर एक आदमी वह सामान लेकर आ जाएगा। 

पहले ऐसा सिर्फ अलाउद्दीन के चिराग में होता था। अगर आपने अपने बचपन में अलाउद्दीन के चिराग की कहानी नहीं पढ़ी है तो आपको बता देता हूं।

कहानी कुछ इस तरह है कि एक आदमी को एक चिराग मिल जाता है जो रास्ते में कहीं पड़ा हुआ था। वह उसे अपने घर ले आता है क्योंकि उसे अपने घर में रोशनी के लिए एक चिराग की जरूरत थी। क्योंकि चिरागvथोड़ा गंदा था तो वह चिराग को साफ करने लगता है। जब वह आदमी उस चिराग को रगड़ रगड़ कर साफ कर रहा है तब एक  धमाका होता है और धुएं में से एक जिन्न प्रकट हो जाता है ।  जिन्न उससे कहता है "आका, हुकूमत दीजिए क्या लाना है"। फिर वह आदमी हुक्म देता है और थोड़ी ही देर में उसे 
सामान लाकर जिन्न दे देता है।

यही काम हमारा स्मार्टफोन करता है। बस फर्क यह है कि सामान मुफ्त में नहीं मिलता।

ज्यादातर ऑनलाइन खरीदारी के संस्थान उसी दिन डिलीवर हो जाता है पर कुछ सामान ऐसे होते हैं जो बाहर से मांगने  होते हैं। ऐसे सामान दो-तीन दिन के अंदर आ जाता है। ज्यादातर कपड़े ,फर्नीचर का सामान ,रसोई के बड़े बर्तन इत्यादि बाहर से  आते हैं जिसके लिए एक-दो दिन का समय लगता है।आप अपने स्मार्टफोन में देख सकते हैं कि सामान कब वहां से चला, कहां-कहां होकर आया और कब आपके घर पर पहुंचा देने के लिए ऑनलाइन स्टोर से चल पड़ा है।

स्मार्टफोन का एक और उपयोग है। आप अपने घर पर ही कोई टैक्सी या ऑटो रिक्शा बुला सकते हैं मोबाइल फोन पर बुक करके और वह भी 10 मिनट के अंदर आ जाता है। आपको फोन पर अपना पता, जहां जाना है वह जगह टाइप करनी होती है और आपको यह सूचना मिल जाती है किस नंबर की गाड़ी आएगी , ड्राइवर का नाम क्या होगा और आपके कितने पैसे देने होंगे। अब वह पुराना झंझट 
खत्म है जब आप बाहर सड़क पर खड़े होकर देखते थे कि इस रास्ते कोई टैक्सी या ऑटो रिक्शा निकल जाए तो  हाथ रोक कर उससे पता करें कि वह उस जगह जाएगा या नहीं। कभी-कभी टैक्सी ड्राइवर मना भी कर देते थे। 

इस स्मार्टफोन से आपको और भी कई चीज मिल जाती है। 
आप इस स्मार्टफोन से दुनिया के किसी भी हिस्से में रहने वाले किसी व्यक्ति से बातचीत कर सकते हैं उसे फोटो या वीडियो भी भेज सकते हैं। आप इसे कैलकुलेटर के रूप में भी इस्तेमाल कर सकते हैं। इसमें आप मौसम का हाल पता कर सकते हैं। इसमें विकिपीडिया AI या अन्य किसी स्थान से आप दुनिया की कोई भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं जिसके लिए आपको लाइब्रेरी जाने की अब कोई जरूरत नहीं है। इसमें आप अपने मनपसंद की कोई भी पुस्तक फॉरेन पढ़ सकते हैं कभी पैसा देकर कभी  मुफ्त में। संसार के किसी भी देश के अखबार भी आप किसी भी भाषा में अपने स्मार्टफोन पर पढ़ सकते हैं। 

बचपन मैं तिलस्म की कहानियां पढ़ कर बहुत रोमांच हो जाता था और सोचते थे कि काश ऐसा होता, हमें भी अलाउद्दीन का चिराग मिल जाता तो कितना अच्छा होता। कभी सोचा न था की एक समय ऐसा आएगा जब वह चिराग हमारे हाथ में होगा। 

कोई भी चीज असंभव नहीं है।



Wednesday, 10 September 2025

जिम कॉर्बेट की कहानी

जब मैं दसवी क्लास में पढ़ता था तो एक दिन मेरे पिताजी के एक दोस्त के यहां मैने हार्ड कवर में खूबसूरत पेपर जैकेट में एक किताब देखी जिसमे एक शेर (टाइगर) जंगल में घूम रहा था।  किताब को देखना शुरू किया तो मन किया की पूरी कहानी पढ़ी जाए। मेरे पिताजी के दोस्त ने वह किताब मुझे पढ़ने के लिए दे दी और अगले दिन पूरे दिन उस किताब को ही पढ़ता रहा और किताब पूरी पढ़ लेने के बाद मैं उस किताब के लेखक जिम कॉर्बेट का फैन बन गया। 

जिम कॉर्बेट ने साठ साल की उम्र के बाद ही अपने अनुभव लिखने शुरू किये । उनके लिखने का स्टाइल इस तरह का था कि लगता था कि मैं खुद जंगल में पेड़ के ऊपर बैठा हूं और नीचे खड़े शेर को देख रहा हूं।  बहुत आकर्षक और रोमांचकारी। जंगल के बारे में पढ़ कर  लगता था मैं खुद जिम कॉर्बेट के साथ हूं और अभी शेर मेरे ऊपर उछलने वाला है ।  फिर गोली चलती है। सुबह  वह शेर आसपास की गांव के सभी लोगों के घेरे के अंदर जमीन में पड़ा होता है और उस शेर को मारने वाले हीरो की जय जयकार होती है। जिम कॉर्बेट वाकई जय जयकार के हकदार थे क्योंकि उन्होंने ऐसे शेर मारे थे जो गांव से बच्चों को और बड़ों को उठा ले जाते थे और अगले दिन उनकी लाश जंगल से गांव के लोगों की एक टोली लेकर आती थी।

जिम कॉर्बेट के दादा जी और दादी जी सन 1815 पर आयरलैंड से भारत आ कर यहीं बस गए। इनके पिताजी  क्या जन्म में भारत में ही हुआ था और वह भारतीय सेना में थे और  रिटायरमेंट के बाद  नैनीताल में बस गए थे जहां वह पोस्ट मास्टर के रूप में कुछ समय तक काम करते रहे। उनके नौ बच्चे थे एक ने जिम कॉर्बेट आठवीं संतान थी। इनकी माता जी ने  काफी समय तक नैनीताल में एक रियल स्टेट एजेंट के रूप में भी काम किया। 


सन 1880 में नैनीताल में एक विशाल लैंड स्लाइड हुआ स्नो व्यू वाली पहाड़ी की तरफ और इसमें जिम कॉर्बेट के परिवार की कई प्रॉपर्टी नष्ट हो गई । इसके बाद इनकी माता जी ने उस पहाड़ की दूसरी तरफ वाले पहाड़ पर एक  मकान बताया जिसका नाम गुरने हाउस रक्खा। जिम कॉर्बेट ने अपने जीवन का अधिकार भाग इसी मकान मे गुजारा।

गुरने हाउस घने जंगलों के बीच में था क्योंकि उस समय नैनीताल में  बहुत कम मकान थे और मकान के चारों तरफ घने जंगल थे। बचपन से ही जिम कॉर्बेट को जंगलों में घूमने की आदत थी और वह अपनी गुलेल से अक्सर छोटे-छोटे जीवो का शिकार किया करता था। 8 साल की छोटी उम्र में ही जिम कॉर्बेट को एक छोटी सी शॉटगन बंदूक मिल गई और वह धीरे-धीरे बहुत बढ़िया निशानेबाज बन गये। कुछ समय बाद जिम कॉर्बेट की निशानेबाजी से प्रभावित होकर फौज के एक बड़े ऑफिसर ने उन्हें एक बहुत बढ़िया राइफल भेंट की। इसी राइफल से जिम कॉर्बेट ने अपना पहला आदमखोर तेंदुआ मारा।

जिम कॉर्बेट (जिनका पूरा नाम एडवर्ड जेम्स कॉर्बेट था,) का जन्म नैनीताल में  25 जुलाई सन 1875 को हुआ था । नैनीताल उसे समय ब्रिटिश राज के एक मशहूर हिल स्टेशन के रूप में  विकसित हो रहा था। 

जिम कॉर्बेट ने काफी समय तक  बिहार में  मोकामा घाट में नौकरी की । उसके बाद कुछ समय तक वह भारतीय सेवा में भी रहे  और प्रथम विश्व युद्ध में भी योगदान दिया। 

बाद में जिम कॉर्बेट नैनीताल वापस आ गए और वहां कुछ समय तक नैनीताल के पोस्ट मास्टर के रूप में काम भी काम किया। सन 1915 में जिम कॉर्बेट ने हल्द्वानी के पास छोटी हल्द्वानी नाम का एक उजड़ा हुआ गांव खरीद लिया कालाढूंगी के पास और उसे एक अच्छे गांव की तरह विकसित किया। उन्होंने गांव के चारों तरफ एक ऊंची दीवाल भी  बनवाई गांव की सुरक्षा के लिए और धीरे-धीरे गांव आबाद हो गया। उन्होंने खुद भी अपने और अपनी पत्नी के लिए एक अच्छा सा मकान बनाया और खेती करनी भी शुरू कर दी। आज वह मकान कालाढूंगी में उनके स्मारक के रूप में जाना जाता है जिसके आहाते में उनकी एक मूर्ति भी है।

1944 में उनकी पहली पुस्तक "मैन ईटर्सआफ कुमाऊँ" प्रकाशित हुई और उसने उनको जगत प्रसिद्ध कर दिया क्योंकि उस किताब की कॉपियां पूरे अंग्रेजी पढ़ने वाले विश्व में काफी संख्या में खरीदी गई। इसके बाद तो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस  ने उनसे और किताबें लिखने का अनुरोध किया और उन्होंने "मैन ईटिंग लेपर्ड ऑफ रुद्रप्रयाग" और "टेंपल टाइगर" नाम की किताब लिखी जो बहुत ही लोकप्रिय हुई ।  उन्होंने दो तीन किताब और भी लिखी।

भारत की आजादी के बाद हुए दंगों से प्रभावित होकर उन्होंने भारत से  जाने का निर्णय लिया। भारत की आजादी के तीन-चार महीने बाद ही वह अफ्रीका में केन्या चले गए जहां पर उन्होंने कुछ समय पहले एक फार्म  खरीदा था।

19 अप्रैल 1955 में  जिम कॉर्बेट सदा के लिए इस दुनिया से विदा हो गए। उन्हें सेंट पीटर्स एंग्लिकन चर्च मैं दफनाया गया जहां आज भी उनका स्मारक पत्थर लगा हुआ है। 

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Tuesday, 9 September 2025

डॉक्टरों की बदलती दुनिया।

एक वरिष्ठ नागरिक जब पीछे मुड़ कर बीते हुए समय को देखता है तो उसे आज की दुनिया बिल्कुल बदली हुई नजर आती है। जीवन के हर क्षेत्र में समय के साथ काफी कुछ बदल गया है और अब पहले जैसा शायद ही कुछ है।

अब आप डॉक्टर को ही देख लीजिए। एक जमाना था जब डॉक्टर अपनी साइकिल पर मरीज को देखने के लिए उनके घर पर आते थे। मरीज को देखते वक्त जीभ देखते थे हाजमे का हाल जानने के लिए , उसके बाद आंखों की निचली पलक  को खोलकर देखते थे कि शरीर में खून की कमी तो नहीं है। छाती पर हथेली रखकर दूसरे हाथ की दो उंगलियों से खटखटाते थे और फेफड़े का हाल मालूम करते थे । फिर  घुटने के ठीक नीचे एक खास तरह की डंडी से हल्के हल्के मारते थे जिससे घुटने के नीचे का पैर का हिस्सा ऊपर नीचे उछलता था। जीभ को बाहर निकाल के और चम्मच से दबाकर अंदर गले को देखते थे। नब्ज भी देखते थे। दाहिने फेफड़ों के ठीक  नीचे अपने हाथ की उंगलियों से दबा दबा कर लीवर को चेक करते थे।

आजकल ऐसा कुछ नहीं होता है। आप डॉक्टर के पास जाते हैं अपनी परेशानी बताते हैं और वह फौरन कई टेस्ट लिख देते हैं जिन्हे कराने में कभी-कभी काफी पैसा खर्च होता है। फिर आप वापस डॉक्टर साहब के पास जाते हैं टेस्ट की रिपोर्ट लेकर और डॉक्टर पर्ची लिख देते हैं जिसमें केमिस्ट की दुकान से मिलने वाली दवाइयां होती है। पुराने जमाने में ज्यादातर दवाइयां डॉक्टर खुद अपनी ही क्लिनिक से देते थे, अपने कंपाउंडर से बनवाकर। अब कंपाउडर नाम का जीव कहीं नहीं दिखाई देता है।

आजकल एक फर्क यह भी हो गया है कि ज्यादातर डॉक्टर स्पेशलिस्ट है यानी हार्ट का अलग डॉक्टर, लीवर का अलग डॉक्टर , नाक और गले का अलग डॉक्टर, किडनी का अलग डॉक्टर, चमड़ी (skin) का अलग डाक्टर , पाचन संस्थान का अलग डॉक्टर इत्यादि। कुछ नाम इस प्रकार है स्पेशलिस्ट के  - Gastroenterologists, cardiologist, urologist, nephrologist, Hematologists, Neurologists, Gynecologists, 
Oncologists, Ophthalmologists, Otolaryngologists (they check ear, nose,throat etc), Immunologists and quite a few more . 

ऐसा भी देखा गया है कि एक डॉक्टर जब अपने  स्पेशलाइजेशन की दवाई देता है तो कभी कभी शरीर के दूसरे ऑर्गन जैसे किडनी या लीवर खराब हो जाते हैं। फिर उनका इलाज करने के लिए दूसरे स्पेशलिस्ट के पास जाना पड़ता है। सबसे ज्यादा परेशानी उन लोगों को होती है जिनके पास इतना पैसा नहीं होता है कि वह एक स्पेशलिस्ट से दूसरे स्पेशलिस्ट के चक्कर काटते रहें , टेस्ट करवाते रहे और महंगी  दवाइयां खाते रहें । स्पेशलिस्ट डॉक्टर की फीस भी काफी अधिक होती है और वह टेस्ट भी बहुत महंगे कराते हैं। कभी-कभी डॉक्टर खास नाम की  ऐसी दवाइयां लिख देते हैं जो उनके बगल की क्लीनिक पर ही मिल सकती है और कहीं नहीं और वह दवाइयां आमतौर पर इसी तरह की और दवाइयां से कई गुना ज्यादा दाम की होती है और कभी-कभी तो ऐसी कंपनी होती है जिनका नाम भी गूगल सर्च करने पर मुश्किल से मिलता है।

खर्च बचाने के लिए गरीब आदमी कभी कभी  होम्योपैथी डॉक्टर की तरफ भागता है पर अब होम्योपैथी डॉक्टर भी बदल गए हैं। पुराने जमाने में होम्योपैथिक डॉक्टर काफी अच्छी तरह हाल पूछने के बाद  अपने ही क्लिनिक से दवाइयों की पुड़िया दे देते थे बहुत कम दाम में। आजकल होम्योपैथी डॉक्टर भी मोटी फीस लेने लगे हैं और अपनी ही क्लिनिक से कई दवाइयों की पूरी बोतलें दे देते हैं (जब की पांच प्रति ही दवा उस बीमारी के लिए काफी होती है)। इन बोतलों का दाम काफी होता है और इलाज होने के बाद वह बेकार पड़ी रहती हैं।

यह सब होने के बावजूद कभी कभी ऐसे भी डॉक्टर मिल जाते हैं जो मरीज को काफी समय देते हैं मर्ज समझने के लिए, जो जहां तक  बहुत जरूरी न हो तो टेस्ट भी नहीं करवाते, जो अच्छी क्वालिटी की सस्ती दवाइयां ही देते है।
अगर आपका वास्ता ऐसे ही डॉक्टरों से पड़ता है तो आप कहते है की डॉक्टर तो भगवान है।

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TWAM TAT ASI - THOU ART THAT

The science of yoga. some random thoughts


It is a fashion to imitate the west. 

West was once sceptical of yoga and mocked it. People in India also, the pseudo intellectual class, started mocking yoga. Then in the second half of 20th century yoga became acceptable to the west and at this point in time it became acceptable to this class in India' also.

Yoga is not just , as is believed by common man, a few physical postures of body. This physical exercise , known as AASAN , is only a part of yoga and it is known as Hath yoga. Other parts of yoga are Gyan yog , Bhakti yog and Karm yog. 

The greatest exponent of yoga in modern era , has been Swami Vivekananda who  made invaluable contribution to this ancient science of body and mind. He presented to the world the intellectual side of Hinduism (or Sanatan dharm  as it was originally called).

The ultimate purpose of yoga is Moksha, which means the soul getting rid of the trap of countless cycles of births and deaths.


If we go back in time we find that around two thousand years back there was a great metaphysical philosopher by the name of Patanjali who is credited for having authored a great book of yoga called "Yoga Sutra". At a subsequent date a commentary on these Yoga Sutras was also written and most  scholars are of the opinion that this commentary was written by Patanjali himself though there is some controversy in this matter. 

For hundreds  of years Patanjali's Yog Sutra remained in obscurity until it was resurrected by Swami Vivekananda in his book Rajyoga  which contained the yoga Sutra of Patanjali and a beautiful  detailed commentry on these yoga sutras.

Yoga as understood and popularised in the west is generally the physical part of yoga which is essentially called Hath yoga. Even the meditation part of it, as practiced in the west,  is essentially some kind of executive meditation which does not follow the strict principles of Patanjali. 

The real purpose of yoga is, as the word YOGA denotes, the union of Shakti the mysterious energy hidden in the mooladhar chakra of the body (the bottom energy point) , to Shiva in the Shahasra chakra (the top most energy point) at the top of the crown. It is believed that when this happens, the soul is resurrected from the bond of the cycles of births and deaths and joins the great primordial energy called Brahma.

It is maintained that the prime energy in every living being, known as soul, is a part of the fountainhead of all energy, the DIVINE. 

 One of  the four MAHAVAKYAS (the four great sayings of Upnishad) is TAT TWAM ASI - you are that.

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Monday, 8 September 2025

ये आप क्या दवा खा रहे हैं ?

मैं अपने एक दोस्त के घर गया था। थोड़ी देर में उनकी पत्नी चाय दे गईं। जैसे ही चाय आई उन्होंने झट एक गोली मुंह में रख दी और उसे चाय के साथ निगल लिया।

"ये कौन सी दवाई खा रहे हैं आप" मैने पूछा।

"डिस्प्रिन" ,उन्होंने जवाब दिया, "सिर में दर्द हो रहा है"

आपके पेट में कब्ज़ तो नहीं है ? मैने पूछा।

पता चला कि कब्ज़ तो है ही , साथ में ब्लड प्रेशर के भी गिरफ्त में है। और खाना जरूरत से ज्यादा खाते हैं खासकर बाजार के तले हुए नमकीन स्नैक्स। और वह खानपान को ठीक करने के बजाय गोलियां खाते रहते हैं।

काफी लोग बेमतलब ही केमिस्ट से खरीद कर दवा ले लेते हैं। कोई यह नहीं सोचता है कि वो समस्या क्यों हो गई जिसके लिए दवा लेने की जरूरत पड़ गई। सिर का दर्द एक बीमारी नहीं है। वह सिर्फ एक सिम्पटम है जिसके कई कारण होते है। लक्षणों (symptoms) को दबाने से बीमारी नहीं जाती है।  पैरासिटामोल , ब्रूफेन आदि दवाइयां लोग खा रहे है बिना यह पता किए कि तकलीफ क्यों हो रही है।

यह आप अच्छी तरह समझ लें कि हर दवा का साइड इफेक्ट भी होता है। नियमित रूप से दर्द  की दवा लेते रहने से किडनी और लीवर खराब होने लगते हैं और फैटी लीवर जैसी बीमारियां शरीर को पकड़ लेती है। 

आपका  स्वास्थ्य सिर्फ दवाइयां की मदद से ही ठीक नहीं हो सकता है । इसके लिए यह भी जरूरी है  कि आपका खाना पीना ठीक हो और उचित नींद भी आती हो। यह भी जरूरी है कि आप कितना शारीरिक परिश्रम करते हैं।

अधिकतर  बीमारियों की जड़ पेट है और पेट की समस्या आपके खानपान से शुरू होती है। इसलिए यह जरूरी है आप जहां तक हो सके घर का बना हुआ स्वस्थ खाना ही खाइए। बाजार में बिकने वाली, दिखने में आकर्षक और खाने में स्वादिष्ट चीजों से बचकर रहे , खासकर उन चीजों से जिन्हें हम जंक फूड कहते है जैसे नूडल्स,पिज्जा , बर्गर , हलवाई की दुकान का तला हुआ सामान वगैरह। 

रेस्टोरेंट के स्वादिष्ट खाने में भी केमिकल्स मिलाए जाते है जैसे सोडियम मोनो ग्लुकोनेट जिससे खाना बहुत स्वादिष्ट पर हानिकारक हो जाता है। इस तरह के खाने में नमक भी बहुत होता है जो आपके स्वास्थ के लिए हानिकारक है। अक्सर बड़े रेस्तरां का खाना बासी भी होता है जो कई दिनों तक डीप फ्रिज में रक्खा हुआ होता है। 

एक और बात कहना आवश्यक है और वह यह है कि अक्सर दिन भर में कई दवाइया खानी होती  है जिन से कुछ दवाइयां एक दूसरे पर बुरा प्रभाव डाल सकती है । इसलिए यह जरूरी है इस बात को पूरी तरह से सुनिश्चित कर लिया जाए की कौन सी दवा कब खानी है और कौन-कौन सी दवाइयां के बीच में कितना अंतर रखना है  नहीं तो आपका स्वास्थ ठीक होने का बजाय बिगाड़ सकता है। इसी तरह कुछ खाद्य पदार्थ भी दवाइयां पर असर डालते हैं और  दवाइयां का सेवन करने के दिनों में इनका कितना इस्तेमाल कर सकते हैं यह पता करना जरूरी है  ताकि  उनसे स्वास्थ्य पर बुरा असर ना पड़े।

एक बात और। छोटी छोटी स्वास्थ्य समस्याओं के लिए एलोपैथी दवा की गोली निग़लना सही बात नहीं है। अगर गले में खराश आ गई, हल्की सर्दी लग गई तो पहले नमक के गरारे कीजिए , तुलसी काली मिर्च की चाय पीजिए। 
अगर इससे समस्या हल नहीं होती है तभी दवाई लीजिए। अगर सिरदर्द रहता है तो पहले हाजमे को चेक करें क्योंकि अक्सर पेट की खराबी और कब्ज़ की वजह से ही सिर दर्द रहता है।

अगली बार छोटी मोटी शारीरिक परेशानी होने पर पेटेंट दवा की तरफ हाथ बढ़ाने से पहले अपने आप से पूछिए कि ये मैं क्या खा रहा हूं।

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कुछ बातें टेलीफोन के बारे में

एक जमाने में मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे। और देखा जाए तो डेढ़ सौ साल पहले पुराने वाले टेलीफोन भी नहीं हुआ करते थे। 


टेलीफोन का आविष्कार 19वीं के उत्तरार्ध में हुआ और इसका व्यवसायिकरण बीसवीं  सदी केआते-आते होने लगा। सबसे पहले टेलीफोन शायद न्यूयॉर्क शहर में आए और 20वीं सदी के पहले कुछ दशकों में यह पूरे विश्व में फैलने लगे 

पहले टेलीफोन कुछ दूसरी तरह के होते थे । और आपको अगर किसी को फोन करना होता था तो यह एक टेलीफोन एक्सचेंज के माध्यम से होता था जहां पर आपको उसका नंबर बताना पड़ता था और टेलीफोन एक्सचेंज में आपके नंबर का तार उसे नंबर के तार से जोड़ दिया जाता था और बातें शुरू हो जाती थी। उसे जमाने में ही हमारे घर में पहली बात टेलीफोन आया।

फिर टेलीफोन के डिजाइन  बदलने लगे और ऑटोमेटिक प्रणाली भी शुरू हो गई जिससे आप खुद ही दूसरे का नंबर मिल सकते थे। यह टेलीफोन शुरू शुरू में काले रंग के होते थे पर बाद में कई सुंदर रंगीन डिजाइन में भी आने लगे।

20 सी साड़ी के बजट तक कुछ भविष्यवक्ताओं ने यह कहना शुरू कर दिया था की एक समय ऐसा आएगा जब लोग कहीं पर से भी  अपनी एक छोटा से यंत्र से बिना किसी तार के  किसी  से संपर्क कर सकेंगे। निकोला टेस्ला ने तो1926 में ही यह कह दिया था कि भविष्य में ऐसे फोन आएंगे जिन्हें जेब से निकाल कर संसार के किसी भी कोने से संपर्क किया जा सकेगा।

भारत में 20वीं सदी के अंत तक तार वाले पुराने टेलीफोन ही लोकप्रिय रहे पर 1990 के दशक में धीरे-धीरे नए जमाने के शुरुआती बेतार मोबाइल फोन का आना शुरू हो गया। इस समय के मोबाइल फोन की लोकप्रिय कंपनियां थी एरिकसन और नोकिया जिन्हेंने मोबाइल फोन मार्केट पर अपना डंका बजा रखा था। 

यह फोन आजकल के मोबाइल फोन से बहुत फर्क थे। एक छोटे से मोबाइल फोन में ऊपर एक स्क्रीन होता था और उसके नीचे जीरो से  नौ तक नंबर होते थे। आपको किसी दूसरे को टेलीफोन करने के लिए उसके नंबर को टाइप करना पड़ता था और फिर एक बटन दबाना पड़ता था जिससे टेलीफोन कनेक्ट हो जाता था और बातें शुरू हो जाती थी। 

यह फोन बहुत महंगे थे और इसमें बातें करने के बहुत ज्यादा पैसा पड़ते  थे। मैंने एक बार  2001 में ऐसे ही एक फोन का इस्तेमाल किया था और उसके लिए मुझे हर मिनट के लिए ₹8 देने पड़े थे जबकि टेलीफोन में 3 मिनट के लिए तब शायद 15 पैसे होते थे। 

धीरे-धीरे इन छोटे से मोबाइल फोन में कई अच्छे फीचर्स आने लगे जैसे की कई तरह के गेम्स, कैमरा, दूसरे को लिखित संदेश भेजने की सुविधा जिसे SMS कहा जाता है। इसके अलावा कई ऐसी सुविधा आ गई जिन्हें एप्स कहते हैं जैसे फेसबुक गूगल प्लस, reddit , linked in , quora इत्यादि। यहीं से स्मार्टफोन की शुरुआत होती है।

 बिना टाइप करने वाले touch सिस्टम के स्मार्टफोंस का आना जब शुरू हुआ तो पहले यह छोटे साइज में आए और फिर बड़े साइज में आने लगे।

21 सी सदी के दूसरे दशक में चीन भी मोबाइल फोन के उत्पादन में जोर-शोर से आगे आया और उसके फोन सस्ते होने की वजह से पूरे विश्व में लोकप्रिय हो गए । इस तरह नोकीया और इरेक्शन कंपनियों की mobile market में  पकड़ कब होती चली गई। 

आज क्या हाल है कि भारत जैसे कब समृद्ध और ज्यादा गरीबी वाले देश में भी बहुत ही कम आमदनी वाले मजदूर इत्यादि के पास भी स्मार्टफोन आ गए जिस पर वह अपने ग्राहकों से संपर्क करके अपना कामकाज आसान करने लगे। इसके अलावा क्या लाभ है मुकेश अंबानी के जियो के आगमन से मोबाइल फोन डाटा पहले से काफी सस्ता हो गया जिससे कमजोर वर्ग के लोग भी स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने में सक्षम हो गए।

स्मार्टफोन आने की वजह से सस्ते कमरे सस्ती घड़ियां सस्ते कैलकुलेटर टॉर्च इत्यादि की मार्केट में भी काफी भूचाल आया और उनके लोकप्रियता यात्रा कब हो गई या पूरी तरह से लुप्त हो गई। 

आगे क्या होने वाला है यह तो पता नहीं पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आने पर अब बहुत तेजी से टेक्नोलॉजी का विकास हो रहा है और कुछ भी संभव हो सकता है। कुछ संभव नहीं है। 

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कुछ बातें बॉलीवुड फिल्मों की

सिनेमा की बातें 

बचपन मे सिनेमा देखना बड़ा मुश्किल होता था हालांकि मन बहुत करता था। अगर हम कोई फिल्म देखने की जिद करते थे तो पहले बड़े लोग जाकर वह फिल्म देखते थे और अगर वह हमारे देखने लायक हुई तभी हम जा सकते थे । साल में मुश्किल से एक या दो फिल्म देखते थे ।

फिर यूनिवर्सिटी आने के बाद फिल्म देखने का बिना रुकावट के सिलसिला शुरू हुआ। 

बचपन में मुझे दिलीप कुमार बिल्कुल पसंद नहीं था क्योंकि करीब-करीब हर फिल्म में वह आखिर में मर जाता था और  ऐसी मनहूस एक्टिंग करता था की मूड खराब हो जाता था। राज कपूर अच्छा लगता था क्योंकि वह हमेशा बच्चों के पसंद की एक्टिंग करता था। 

यूनिवर्सिटी पर आने के बाद जब सिलसिला शुरू हुआ फिल्म देखने का तो देवानंद की कई फिल्म देखी। देवाराम अब अच्छा लगने लगा। लटके झटके वाला एक्टर था जिसके पुराने फिल्म देखकर खासकर 1950 के दशक के बहुत हंसी आती है हालांकि कुछ फिल्मों में उसने बहुत ही शानदार एक्टिंग की थी।

उस जमाने में छोटे शहर में रहता था तो वहां सिनेमा हॉल भी छोटे हुआ करते थे और  सुविधाओं की कम थी।  इलाहाबाद यूनिवर्सिटी आया तो  काफी बड़ा शहर होने की वजह से वहां पर सिविल लाइंस में दो बहुत अच्छे सिनेमा हॉल मिल गए पैलेस और प्लाजा । उसके अलावा निरंजन भी बहुत अच्छा  सिनेमा हॉल था। उस जमाने में हमें स्टूडेंट कंसेशन मिलता था और  ₹1 में फिल्म देखी जा सकती थी। 

फिर लखनऊ आ गया और यहां पर कई बहुत अच्छे सिनेमा हॉल थे खासकर अंग्रेजी फिल्मो वाला मैफेयर सिनेमा हॉल।

फिर नौकरी करने दिल्ली चला गया और वहां तो बहुत ही शानदार सिनेमा हॉल हुआ करते थे जैसे गोलचा शीला रीगल ओडियन वगैरह। बहुत फिल्में देखी दिल्ली में, अंग्रेजी फिल्में भी और हिंदी फिल्में भी। कनॉट प्लेस के सिनेमा हॉल में टिकट मिलने बड़ा मुश्किल होता था खासकर छुट्टी के दिनों में। कई बार भीड़ में खड़ा रहता था और देखता था कि किसी के पास फालतू टिकट हो तो उससे ले लिया जाए । अक्सर ऐसे टिकट मिल जाया करते थे और अगर नही मिलते थे सो कनॉट प्लेस के चक्कर लगाने , कॉफी पीने और डोसा खाने का आनंद लेते थे।


उसे जमाने में और आजकल में फिल्मी दुनिया में काफी अंतर है । उसे जमाने में न टीवी था न लैपटॉप था और न हीं स्मार्टफोन थे। मनोरंजन का केवल एक ही साधन था और वह था फिल्में। 
एक्टर्स की लोकप्रियता बहुत थी और कहीं भी किसी एक्टर को देखकर हजारों की भीड़ जमा हो जाती थी क्योंकि एक्टर्स को हम सिर्फ एक बार कभी कभी पर्दे पर ही देख पाते थे। फिल्मी मैगजींस की भी बहुत लोकप्रियता थी। उस जमाने की सबसे ज्यादा लोकप्रिय मैगजीन थी फिल्म फेयर। बाद में तो बहुत सारी फिल्म मैगजीन प्रकाशित होने लगी 70 के दशक के आसपास। इनमें स्टारडस्ट और  स्टार  ऐंड स्टाइल काफी लोकप्रिय थी ।उसके अलावा भी कई और मैगजीन थी। 

हमारे बचपन में सुपरस्टार नही होते थे । तीन बड़े एक्टर थे देवानंद राज कपूर और दिलीप कुमार। इसके अलावा कई और एक्टर थे पर उन एक्टर्स की लोकप्रियता काफी ज्यादा नहीं थी। 

फिर 1969 में एक बहुत बड़ा धमाका हुआ और फिल्म जगत में राजेश खन्ना का प्रवेश हुआ। पहले कुछ सालों में उसने पूरे भारत को हिला कर रख दिया । 5 साल के बच्चे से 70 साल के बुड्ढे तक सभी राजेश खन्ना पर दीवाने थे । ऐसा ना कभी पहले हुआ था ना कभी उसके बाद हुआ। अमिताभ बच्चन भी एक बहुत ही सफल कलाकार था पर उसने राजेश खन्ना जैसा धमाका नहीं किया। पर जहां अमिताभ बच्चन एक बहुत बड़े सुपर  स्टार के रूप में फिल्मी दुनिया में कई दशकों तक जमा रहा  वहीं राजेश खन्ना एक टूटते तारे की तरह चार-पांच साल के बाद अपने लोकप्रियता खो बैठा और उसकी फिल्में धड़ले से फ्लॉप होने लगी। 

अब फिल्मी दुनिया में वह बात नहीं रही जो फिल्मी दुनिया के स्वर्णिम काल में हुआ करती थी। अब बड़े सिनेमा हॉल जिसमें 70 मिलीमीटर के परदे पर फिल्म देखने का मजा ही कुछ और था बंद हो चुके हैं और अब एक बीमारी की तरह मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल सभी शहरों में पैदा होते जा रहे हैं । फिल्म देखने का  कोई मज़ा नहीं है अब। पहले फिल्म स्टार के पीछे कैमरा लिए फोटोग्राफर दौड़ते रहते थे और बड़ी मुश्किल से उनकी फोटो खींच पाती थी । आजकल के अभिनेता और अभिनेत्री किराए के फटॉग्रफर्स को लेकर अपनी फोटो खिंचवाते हैं ताकि वह लोकप्रिय रह सके। 

जिस तरह से इंटरनेट का विकास हो रहा है और स्मार्टफोन एक से एक बढ़िया बनते चले जा रहे हैं वह समय दूर नहीं है जब बॉलीवुड का सितारा अस्त हो जाएगा और छोटे-मोटे फिल्म स्टार अपने वीडियो फिल्म बनाकर यूट्यूब या अन्य साधन से भारतवासियों को दिखाएंगे। एक कहावत है हर कुत्ते के दिन होते हैं। यह कहावत फिल्म स्टार्स पर भी चरितार्थ होती दिखाई दे रही है। 

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मुंबई की कहानी

मुंबई भी कभी बंबई था ।

आज से कई सौ साल पहले बंबई या मुंबई नाम का कोई शहर नहीं था।  जिस जगह आजकल एक बात विशाल शहर है वहां पर सात छोटे-छोटे द्वीप हुआ करते थे जिनके बीच में समुद्र का पानी था। तब यहां कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था की  समुद्र की जगह जमीन आ जाएगी और एक मेट्रोपॉलिटन शहर बन जाएगा। 

कहते हैं कि इन द्वीपों पर कोली नाम के आदिवासी रहते थे अनादि काल से। आज से सैकड़ो साल पहले यहां पर अजंता की एलिफेंटा की गुफाएं की कलाकृतियां बनी और करीब एक  हजार साल पहले वालकेश्वर का प्रसिद्ध मंदिर  की स्थापना हुई। हाजी अली की दरगाह जो वर्ली में है उसका निर्माण आज से करीब 600 साल पहले हुआ था। उसे जमाने में छोटे-मोटे राजाओं के कंट्रोल से हट कर यह दीप समूह गुजरात सुल्तानत में समा गया था।

इसी समय काल में ब्रिटेन के, पुर्तगाल के, डच साम्राज्य के 
और फ्रांसीसी साम्राज्य के जहाजी बड़े पूरी दुनिया में अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए घूम रहे थे । आज से 500 साल पहले इन द्वीपों पर पुर्तगाल का कब्जा हो गया। उन्होंने इन द्वीपों का नाम बॉम्बेन रख दिया। पुर्तगालियों ने यहां पर कई चर्च बताएं और मजबूत किले बताएं। 

यह द्वीप समूह एक प्राकृतिक बंदरगाह के रूप में बहुत ही अमूल्य थे और इन पर बहुत से पाश्चात्य देशों की नजरें थी जिसमें ब्रिटेन भी एक था। शब्द 1661 में ब्रिटेन के राजकुमार की शादी पुर्तगाल की राजकुमारी के साथ हो गई और दहेज में यह दीप समूह ब्रिटेन को भेंट कर दिए गए और तब यह ब्रिटिश साम्राज्य के कब्जे में आ गया। ब्रिटेन के नरेश ने इन्हे ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया। 

ईस्ट इंडिया कंपनी ने द्वीपों को जोड़ने का काम शुरू किया और यह 18वीं शताब्दी के अंत तक पूरा हो गया और इस तरह यह द्वीप समूह एक बड़े शहर में परिवर्तित हो गया। फिर इसका विकास बहुत तेजी से हुआ और जिसे आज दक्षिण मुंबई कहते हैं वह  भव्य शहर की तरफ परिवर्तित होने लगा।

धीरे-धीरे मुंबई का विकास एक बहुत बड़े समुद्री बंदरगाह के रूप में हो गया और बहुत तेजी से विकास के कारण यह एक बहुत बड़ा व्यावसायिक केंद्र भी बन गया । यहीं से अंग्रेजों ने भारतीय रेलवे की पहली ट्रेन चलाई जो मुंबई से पूना के लिए रवाना हुई ऐसा कहते हैं। 

आजादी के बाद और भाषाओं के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन होने पर मुंबई महाराष्ट्र राज्य की राजधानी बन गया। फिर तो इसकी आबादी तेजी से बढ़ने लगी और यह आवश्यक हो गया कि इसके नजदीक एक दूसरे शहर की स्थापना की जाए जिससे मुंबई शहर पर जनसंख्या का बुरा दबाव ना पड़े। इस तरह नवी मुंबई का निर्माण शुरू हुआ और आज वह एक बड़े शहर के रूप में उभर कर सामने आया है। 

यह तो है मुंबई की कहानी। मुंबई शहर में खासकर दक्षिण मुंबई में अंग्रेजों का और पारसी समुदाय का कितना बड़ा योगदान है यह मैं फिर कभी बताऊंगा। आज के लिए इतना ही काफी। 

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Sunday, 7 September 2025

YOU ARE WHAT YOU EAT

YOU ARE WHAT YOU EAT


In my childhood we used live (as was very common at that time for middle class families) in a big house with a big compound. Separated from the main house was the location of the kitchen and pantry. 

Kitchen was quite a big room with shelves for keeping utensils , an area for cooking and an area for eating food.

There was no dining table, no chairs. There were half a dozen low stools for Thali (large mixed alloy plates) and katori (metal bowls) were placed on these stools as we sat on a cushion on the floor for eating food comprising of cooked vegetables
boiled rice, roti (flatbread), Dal (lentils) and a couple of vegetables.
There was also a bowl of Dahi (Indian yogurt) and some pickles and a chutney.

The food was freshly  prepared on wood fire in a brick-and- mud choolha (stove) and served hot. 

Our fast food was always prepared at home. Fried crisp chyura (rolled rice) mixed with roasted or stir fried peanuts ; rice puffs (murmura), roasted chana, simple roti with Achar (pickles) etc.

There is a sea change in how and what we eat today. There is a craze for Maggi,  pizza, burgers, a variety of biscuits and other ready to  eat snacks  full of  chemicals for preventing fungus and humidity, enhancers for flavour, taste and appearance, lots of artificial sweetners, cheap oils and possibly some amout of pesticides. And instead of nutritious drink of lemon water, lassi, aam panna, or fresh fruit juices there is a craze for variety of colas loaded with a huge about of sweetners and preservatives and packed months back in plastic bottles. 

Another problem now is how we get our food. In  the westen countries and particularly in USA people generally don't cook food at home particularly the bachelors or small families. They get their food online and this food is prepared in large commercial kitchen where God only knows what are the ingredients used for cooking these eatables. Generally these food items are prepared weeks back and kept in deep freeze to be heated and  delivered by delivery boys. 

The milk that we drink is full of oxytocin injected to cows and buffaloes before milking them. Herbivorous animals like cows are given meat as feed in some of the western countries. There are lots of chemicals, pesticides and herbicides in the crops we grow and the fruit we eat right from the time the land is prepared for sowing , up to the time of the ready standing crops. There are chemicals like carbide to enhance the looks of fruits and vegetables even at the point of sale. The table salt that we eat also contains chemicals like ferro cyanide as an anti humidity agent. The loaf of bread that we eat at breakfast is full of variety of chemicals. It is no longer the bread that our grandfathers ate in their youth. There are taste enhancers and color additives and so called preservatives in almost every packet of food item sold it the market.

Unfortunately this  malady has caught up in the so called developing countries also, particularly in the  cities where there are modern market complexes and where super fast home delivery is available.

It has been said that YOU ARE WHAT YOU EAT. When you habitually eat junk food your body goes into a silent and deep protest. The result is a variety of  troublesome diseases. The western countries are for a long time suffering from obesity because of a heavy and persistent dose of junk food. People in South East Asia consider the western countries as role models and try to imitate them. the result is a prolification of obesity in the rich and middle class population of these countries.

There was a time when the home- visiting family doctor was sufficient to cure you of most of the diseases without any expensive tests or expensive specialist doctors . But now there is such a heavy dose of harmful food items that each city is full of not only general practitioners but specialist for each part of your body. These doctors prescribe expensive tests and medicines, the cost of some of which runs into thousands of rupees. And while there were very few hospitals apart from the civil hospital or dispensary a few decades back, we have good number of super speciality hospitals in most cities. In India cancer was disease which rarely afflicted people some decades back and a person who got this had to go all the way to Mumbai (then known as Bombay) for treatment. Now in all big cities there are  half a dozen or more hospitals catering to specialised treatment for cancer, so rampant has this disease become because of unhealthy living and a life of junk food. One in three Australians are at present suffering from skin cancer according to several reports. Colon cancer has the highest percentage of patients in USA. Breast cancer has become very common among women

It is time people all over the world woke up and understood the relationship of food and health. otherwise with unethical commercialisation of our basic food mankind as a bleek future.

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Wednesday, 18 June 2025

an old timer's nostalgia.

The Allahabad of mid 1950s


Britishers came to India as traders but eventually became the rulers of India. They gradually moved North West from Bengal  and gradually captured power in whole of  India. 

what is now Uttar Pradesh was known as United provinces and its  capital at  first was Allahabad where the Britishers planned an entirely modern extension of Allahabad City with a   University,v several grand administrative buildings and markets. The market for the Britishers in Allahabad was called civil lines market.

In  1950s civil lines market used to be a very posh very clean,  single storied, uncrowded  and open market place. There were two cinema hall also and one of the was plaza and the other was called palace .

PALACE cinema at civil lines had a high status. It mostly screened Hollywood movies. 

In those days Balcony and first class in cinema halls cost rupees 2.25 and rupees 1.25 respectively and there was a student concession also. 

Several eating places were there in civil lines. There was a coffee House. Close by that was the high status Guzdhars restaurant. There was also a low budget but high quality famous Indian restaurant by the name of Lucky sweet mart . LUCKY SWEET MART was a low budget popular  tea and snacks restaurant in civil lines.. 

 KOHLI PHOTO shop was a high status photography shop . There was another photography shop a little distance from the market by the name of GLAMOUR  studio.

Jukebox was a craze at the BN Rama'sv big department store which used to charge 25 paise for one song. 

MASTONS was an elite tailoring shop next to Kohli photo . At rupees thirtyfive for stitching a woolen coat they were known to have one of the  highest rates in Northern India.  

Rickshaw hiring charges from civil lines to Muir hostel was just 25 paise. BULAKI 's hair cutting salon adjacent to Palace cinema was patronised by affluent University students. 

The clock tower above the senate hall of the university had a clock identical to the big Ben of London and  its gongs were  powerful and  similar to the big Ben of London.. JAGATI was a very old restaurent  of University Road.

There were no transister radios in India until late 1950s . There always used to be a huge radio set in the common hall of the hostels and students used to gather there in big number to listen tova cricket commentary and BINACA GEET MALA. Vizzy and Pearson sureta were the most well known cricket commentators. And for binaca Geet mala we had the famous Amin Sayani, a man with a golden voice.

As I look back, it was at all together different time as compared to today with the very laid back life 

Saturday, 1 March 2025

of astrologers and people in trouble

All over the world astrology is a popular subject . Lot of people read their Sunsigns forecasts in newspapers everyday. Books are sold based on sun signs. lot of astrologers are seen sitting in  footpaths at tourist popular spots advising people on the past and future. 

what is the truth about astrology ? 

well, astrology is an  ancient science  dealing with the past and future of  person according to the precise position of planets at the time of birth at particular location. A chart is drawn and then according to the principles of astrology the astrologer uses his knowledge to tell us about our past and future and also tell remedies.

There are fraudulent people in every walk of life and astrology is no exception.

There are things that are beyond the understanding of science.

Science is always in a denial mode for anything that cannot be translated into a formula.

The ancient Hindus believed that human body has an electromagnetic field but science kept denying it and mocking it until 1954 . You must realise that science is at a primitive stage in the scheme of things of the universe. Science is not in a position to explain why certain things happen.

It is common knowledge in India that's a good tantrik can read your thoughts. How do scientists explain this ? 

The test to which these tantriks are put under controlled condition is not conducive to the working of psychic power.

Go to any well known AGASTYA  NADI reader and you will be surprised to see how he can tell things about your past with amazing ease and correctness.

According to my experience astrology is a complicated but authentic science but most people who call themselves astrologer have limited knowledge about  the subject. It has  become a good means of income for the so called astrologers. but astrology is a very efficient and authentic scientific instrument to know about a person's past and future

The problem with the world is that it has  a closed mind to things that it cannot understand. All along the history of the world many people suffered on account of this - such as Nicolaus Copernicus.

It is generally accepted that since the future is in a  fluid state these thought readers cannot have a proper grip over the events that have not happened. That's why their reading for the future is open to error. 

The bottom line is that you already know your past so these thought readers are not of much use to you unless you are curious to test their power to read your past. And at the hands of a good astrologer, astrology is a useful instrument to be guided about the future.

Wednesday, 22 January 2025

बच्चों के पढ़ाई के विषय

शिक्षा नीति क्या  होनी चाहिए

हमारी शिक्षा नीति ऐसी होनी चाहिए की बारहवां दर्जा पास करके हम इस लायक हो जाए की अपने पैरों पर खड़े हो सके और अगर हमें नौकरी ना मिले तो हम जीवन निर्वाह के लिए अपने आप कुछ काम कर सके।

जब मैं स्कूल में पढ़ता था तो एक विषय था हिस्ट्री। अब बालक या बालिका के लिए है यह क्या जरूरी है कि वह याद रखें कि  क्या मोहम्मद तुगलक पागल था।।
 यह भी आवश्यक नहीं है कि उसे पता होना चाहिए की मुगल साम्राज्य के पतन के क्या कारण थे। इसी तरह दुनिया का इतिहास पढ़ाने  पर भी सवाल उठता है। क्या हमारे लिये बचपन में यह  जानना जरूरी कि फ्रांस और रूस के युद्ध में क्या हुआ था और नैपोलियन ने अपने  युद्ध में क्या गलतियां की थी जिससे वह हार गया।

पर यह सब हमें पढ़ाया जाता है और इम्तिहान पास करने के लिए जरूरी है कि हमें पता होना चाहिए की  तुगलक पागल था या नहीं।

 इससे बड़ी बकवास क्या हो सकती है। 

हमें यहां नहीं पढ़ाया जाता कि हमें किस तरह स्वस्थ रहना है या बाजार में बिकने वाली चीजों में क्या चीजें हैं स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और कौन से खाद्य पदार्थ नहीं खाने चाहिए।  यानी कि जीवन निर्वाह के लिए जो  याद होना चाहिए स्वास्थ्य संबंधी उसके बारे में एक भी शब्द नहीं पढ़ा जाता। 

अब एक दूसरा विषय ले लीजिए । वह लिटरेचर है ।चाहे वह अंग्रेजी लिटरेचर हो चाहे वह हिंदी लिटरेचर हो ।

अब इसका एक बच्चे के भविष्य से क्या ताल्लुक है ? क्या निराला की कविताओं कोई बच्चों के लिए समझना जरूरी है ? या क्या यह जरूरी समझता है कि शेली या कीट्स ने अपनी कविताओं में क्या लिखा था और क्यों लिखा । यह तो पूरा पागलपन है और एक बच्चे के साथ अन्याय है।

अब भूगोल को भी एक पूरे विषय के रूप में सेकेंडरी एजुकेशन में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि ऑस्ट्रेलिया की जलवायु क्या है या विश्व में कहां-कहां तेल के कुएं हैं यह जानना है एक बच्चे के लिए जरूरी नहीं है। 

इस तरह के और भी विषय है जैसे मनोविज्ञान। पैवलौव ने अपने कुत्ते के ऊपर क्या एक्सपेरिमेंट किया था 
और उसका क्या मतलब निकलता था इसका एक बच्चे से क्या लेना देना है ? मनोविज्ञान विषय भी हायर एजुकेशन का ही सब्जेक्ट होना चाहिए।

शिक्षा नीति जो अंग्रेजों की बनाई हुई है (और उस समय यह बहुत काम की थी) को सिर्फ ग्रेजुएशन लेवल पर ही पढ़ाया चाहिए जिन लोगों को इसमें दिलचस्पी हो और इस विषय में आगे अपना कैरियर बनाना चाहते हैं।

प्रजातंत्र का सबसे बड़ा हिस्सा होता है देश का और प्रदेश का चुनाव और जिस तरह से वातावरण बनता जा रहा है ज्यादातर नेता अपने चुनाव के बारे में ही सोचते रहते हैं कि किस तरह पब्लिक को लगाकर वोट लिया जाए और उनके पास कम समय होता है देश की समस्याओं को सुलझाने का खासकर देश की शिक्षा नीति को जो बहुत जरूरी है ।

देखना यह है कि इस तरह के सुधार कब आते हैं जिस देश का कल्याण हो।

Saturday, 16 November 2024

पुराने जमाने का रुपया और आज का रुपया

1955 का रुपया और आज का रुपया 

समय के साथ काफी परिवर्तन सब जगह हो रहे हैं और सबसे ज्यादा परिवर्तन जो एक वरिष्ठ नागरिक देखा है वह रुपए की परचेसिंग पावर यानी खरीदने की शक्ति। 

अब देखिए सन 1938 का ₹1 का सिक्का और आज का ₹1 का सिक्का तो आपके समझ में आ जाएगा कि रुपए की कीमत में कितने गिरावट हुई है। पहले वाला है बिल्कुल शुद्ध स्टर्लिंग चांदी का और दूसरा साधारण लोहे पर पालिश किया हुआ।


और ताज्जुब की बात तो यह है कि उसे जमाने में चार आने का और आठ आने का सिक्का विशुद्ध चांदी का होता था। 

55 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में सर सुंदरलाल हॉस्टल के बाहर सड़क पर केले वाला बैठता था और मैं यूनिवर्सिटी जाते वक्त वहां रुक कर तीन केले खरीदना था खाने के लिए उसी समय। मैं उसे दो आने दे देता था तीन केले के लिए यानी 50 पैसे का एक दर्जन केले । आज केले 80 रुपए दर्जन है।

 लखनऊ में महानगर से हुसैनगंज की तरफ लौटते हुए निशातगंज होकर रास्ता जाता है जहां बीच में सब्जी मंडी है। 1976 में महानगर से लौटते समय सब्जी मंडी से कुछ सब्जियों खरीदीं। टमाटर 25 पैसे किलो था। आज टमाटर के दाम₹100 के ऊपर है एक किलो के।

1960 के दशक में हजरतगंज से शाम को लौटते वक्त डबल रोटी और मक्खन ले आते थे। एक बड़ी डबल रोटी 50 पैसे की आती थी और 100 ग्राम मक्खन 50 पैसे का था। 

उसे जमाने में कहावत थी की गरीब आदमी को सिर्फ दाल रोटी में गुजारा करना पड़ता है। आज अरहर की दाल 275 रुपए किलो है और बाकी दालें भी 180 के आसपास।

1972 में मैंने एक बजाज स्कूटर खरीदा था 3400 रुपए में। पहली बार पेट्रोल भरवाया तो ₹1 लीटर पेट्रोल के दाम थे। 

1950 के दशक में कागजी बादाम ₹5 किलो था और देसी घी भी इसी दाम का था।

1960 के आसपास लखनऊ में सिटी बस सर्विस काफी अच्छी थी तब मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में विद्यार्थी था और वहां से अक्सर हुसैन गंज की तरफ आना जाना होता था । यूनिवर्सिटी के बस स्टॉप से हुसैनगंज का एक तरफ का बस का किराया 6 पैसे था। 

हजरतगंज में 1960 के आसपास हनुमान मंदिर के बगल में एक रेस्टोरेंट हुआ करता था जिसका नाम बंटूस था।
वहां थाली के हिसाब से खाना मिलता था। एक थाली भोजन 50 पैसे का था। 

उस जमाने में लखनऊ के दर्जी एक कमीज की सिलाई का डेढ़ रुपया लेते थे और एक पेंट की सिलाई का ₹3.25 पैसा। गरम कोट की सिलाई 20 से ₹25 होती थी।

1950 के शुरू में भारत में कोका-कोला नाम की कोई चीज नहीं थी। कोका-कोला के रंग का ही एक कोल्ड ड्रिंक काफी पॉपुलर था इसको विम्टो कहते थे। 1960 के दशक में कोका-कोला भारत में काफी पकड़ बना चुका था । दाम सिर्फ 25 पैसे थे एक बोतल के। तब कांच की बोतल हुआ करती थी। 

पहले रेलवे के प्लेटफार्म में जाने के लिए कोई टिकट नहीं होता है पर 50 के दशक में पहले एक आने यानी 6 पैसे और बाद में दो आने आने 12 पैसे का प्लेटफार्म का टिकट होता था। 

1960 और 2024 के दाम की अगर तुलना करें तो करीब करीब सभी चीजों का दाम 100 से 150 गुना बढ़ गया है। और कुछ चीजों का दाम जैसे अरहर की दाल तीन सौ गुना से भी ज्यादाबढ़ गया है । दाल तब 40 या 50 पैसे की 1 किलो आती थी।

पर सबसे मजेदार बात तो यह है कि हमारे बचपन हमारे दादाजी कहा करते थे कि क्या जमाना आ गया है‌।  कितनी महंगी हो गई है सब चीज़े !!

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Friday, 4 October 2024

लापता लेडीज

Lapata ladies


आमिर खान की लापता लेडीज  पिक्चर को सन 2001 के टाइम में दिखाया गया है। जिस तरह से गांव में मोबाइल फोन का इस्तेमाल दिखाया गया है उस हिसाब  से पिक्चर की घटनाओं का समय सन 2008 के बाद का होना चाहिए था जब मोबाइल फोन गांव तक पहुंचने लगे थे । सन 2001 में गांव की तो बात छोड़ दो, शहरों में भी मोबाइल फोन नहीं होते थे एक दो रईसों को छोड़कर। मोबाइल फोन आम लोगों की पहुंच के बाहर था क्योंकि एक तो उसे खरीदने के लिए हजारों रुपए चाहिए होते थे और दूसरा एक मिनट की बात करने का चार्ज बहुत ही ज्यादा होता था। उस जमाने में गांव की लड़की के पास मोबाइल फोन कैसे हो सकता  था। 

यह प्रेस कटिंग देखिये मोबाइल फोन के बारे में

अब आगे बढ़ते हैं। गांव में गलती से जो लड़की आ गई थी दीपक की असली दुल्हन की जगह उसका नाम था जया।जया ने दीपक के गांव पहुंचने पर मोबाइल फोन का सिम कार्ड जला दिया था ताकि कोई उसको फोन ना कर सके और फिर  गांव की मोबाइल की  दुकान से नया सिम कार्ड खरीद के मोबाइल में लगा लिया। अब सवाल यह उठता है कि 2001 में उस गांव में ऐसी कौन सी दुकान  थी जहां सिम कार्ड मिलते थे । सन 2001 में  इक्के दुक्के लोगों के पास ही मोबाइल फोन होते थे और  वह भी उन शहरों में जहां मोबाइल नेटवर्क होता था यानि बड़े-बड़े शहरों में। बिहार के इस  गांव में मोबाइल फोन के सिम कार्ड की दुकान होना आश्चर्य की बात है।

दूसरी बात यह है कि अगर जया के पास मोबाइल फोन था भी तो गांव में तो कनेक्टिविटी थी ही नहीं 2001 में। 

जया गांव में एक दुकान में जाकर देहरादून के कृषि विद्यालय का फॉर्म ऑनलाइन डाउनलोड करवाती है और उसको ऑनलाइन भर के भेज देती है। इस तरह की स्मार्टफोन वाली ऑनलाइन डाउनलोड फैसिलिटी 2001 में नहीं थी। और गांव में 2001 में ऐसा होने का तो सवाल ही नहीं उठाता।

फिलहाल दीपक के घर में  रह रही थी जया। दीपक के घर के लोगों ने उससे उसके घर का फोन नंबर पूछा ताकि घरवालों को खबर कर दें पर सवाल यह उठता है की सन 2001 में बिहार के गांवों में क्या घरों में रेजिडेंशियल टेलीफोन होते थे । 

खैर जो भी हो मोबाइल फोन इस पिक्चर का अहम हिस्सा है और उसे हटाया नहीं जा सकता क्योंकि उसके बिना कुछ जरूरी घटनाएं हो ही नहीं  सकती है इसलिए कहानीकार की इस छोटी सी oversight को  नजरअंदाज करना जरूरी है।

पर पिक्चर में एक बात जरूर खटकती है। जया की शादी एक क्रिमिनल टाइप बहुत घटिया आदमी के साथ हो गई थी जिसके ऊपर संदेह है कि उसने अपनी पहली बीवी को जलाकर मार दिया था । इसके बारे में शायद पुलिस में कंप्लेंट भी थी। इस आदमी ने पुलिस थाने में
पुलिस इंस्पेक्टर के सामने जया को देखते ही एक जोरदार थप्पड़ मारा और धमकी दी कि घर जाकर चर्बी उतार लेंगे। उसने इंस्पेक्टर के सामने जया के मायके वालों को भी धमकी दी । इतना ही नहीं उसने पुलिस इंस्पेक्टर को भी धमकी दी कि मैं तुमको देख लूंगा।
कहानी सही तब होती जब पुलिस इंस्पेक्टर उसको जया के साथ मारपीट करने  और जान से मारने की धमकी देने के जुर्म में फौरन गिरफ्तार कर लेता और उसके साथ आए गुंडोंको भी जेल में डाल देता। लेकर आश्चर्य की बात है
 की पुलिस इंस्पेक्टर ने ऐसा नहीं किया जबकि वह काफी कड़क आदमी था।  सिर्फ उससे यह कहा कि अगर जया को परेशान करने की कोशिश की तो मैं दुनिया के किसी कोने में भी हूं वहां से चलकर आऊंगा और तुमको हथकड़ी पहना दूंगा‌। यह बातें कमजोर तरह का तरीका था एक अपराधी तत्व के व्यक्ति से डील करने का। 
ऐसे व्यक्ति से जया को और उसके परिवार वालों को जान का खतरा था।

जो भी हो लापता लेडीज एक  बढ़िया पिक्चर है और इसमें कलाकारों ने जिस तरह से काम किया है वह बहुत ही सराहनीय है। थाने के दरोगा जी का भी अभिनय बहुत अच्छा है । इस किरदार को फिल्म में रवि किशन ने निभाया है जो भोजपुरी फिल्मों के एक मंजे हुए अभिनेता हैं।


ऑस्कर के लिए विश्व की सबसे बढ़िया कुछ पिक्चरों मे इस पिक्चर का नाम भी शामिल कर लिया गया है  यह अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है।

पिक्चर अवश्य देखिए और इसका आनंद उठाइए।

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