पुरानी बातें
एक जमाना था जब पॉलिस्टर के कपड़े नहीं होते थे । कपड़े सूती होते थे - कॉटन के । अच्छे कपड़े पहन कर थोड़ी देर चारपाई पर लेटने से कपड़ों में सिलवट आ जाती थी और इस्त्री खराब हो जाती थी। आजकल तो आप घंटो की नींद भी निकाल लीजिए कपड़े वैसे के वैसे ही रहते हैं।
तब कपड़े धोबी धोता था । घर में कपड़े बहुत कम धुलते थे क्योंकि वाशिंग पाउडर नहीं होता था । साबुन की बट्टी से कपड़े घिसने पड़ते थे जो मेहनत का काम होता था ।
हमारे घर में कल्लू धोबी एक बार हफ्ते में आता था ढेर सारे धुले कपड़े लेकर। साथ में उसका गधा भी आता था जिस पर सभी घरों के कपड़े लदे होते थे।
उस जमाने में गधे का बहुत महत्व था ।.यह मान्यता थी कि जब बच्चे इम्तिहान की तैयारी कर रहे हो उस वक्त जो पढ़ रहे हो वह इम्तहान में जरूर आता था अगर उस समय गधा रेकने लगे यानि ढेंचू ढेंचू करने लगे।
धोबी गधे की पीठ से धुले कपड़े निकालता और माता जी धोबी की कॉपी ले कर आ जाती थीं। वह कपड़े निकालता जाता था _ 6 शर्ट 5 पेंट चार साड़ी 5 चादर 8 तकिया गिलाफ इत्यादि । कमीज के बटन गायब होते थे, पैंट के कहीं कोने में जंग का दाग होता था। छोटे कपड़ों की धुलाई एक आने होती थी और बड़े कपड़ों की दो आने। धोबी के जाने के बाद कपड़ों को किसी चारपाई पर फैला के धूप में रख देते थे ताकि उसमें से रेह मिट्टी की अजीब सी महक निकल जाए ।
धोबी तब कपड़े भट्टी में रेह मिट्टी के साथ उबाल कर धोते थे । और फिर नदी या तालाब के किनारे पत्थर के स्लैब पर पटक पटक कर साफ करते थे।
फिर साठ के दशक में टेरीलीन (पोलीस्टर) के कपड़े आने लगे। डिटरजेन्ट पाउडर भी आ गया। ललिता जी भी आ गईं। लोग घर में कपड़े धोने लगे।फिर धोबी गायब हो गए , गधे भी।
उस जमाने में 1:00 बजे लंच खाने का फैशन नहीं था । ज्यादातर लोग खाना सुबह 10:00 बजे खा लेते थे। खाना हम लोग रसोई घर में ही खाते थे। तब घरों में अलग से डाईनिंग रूम नही होते थे और रसोईघर काफी बड़ा होता था। गरम गरम रोटी चूल्हे पर चढ़े तवे से निकाल कर लकड़ियो की आग मै फुलाई जाती और हम सभी को दी जाती थी बारी बारी से। तब गैस का चूल्हा नहीं था।
हमारे बचपन में न तो मैगी था न चाऊ मिन। नाश्ते में शुद्ध घी की पूरी और आलू के गुटके होते थे। नाश्ता शाम चार बजे मिलता था जब हम स्कूल से लौटते थे। बे टाइम की भूख के लिये घर की बनी मठरी, सकरपाले, च्यूड़ा-मुंगफली वगैरह होते थे। फेरी वाले भी कमलगट्टा , गन्ने की गडेरी (कैरम की गोटियों जैसे टुकड़े) कभी कभार ले आते थे।
शहर तब छोटे होते थे। लोग पैदल काफी चलते थे। उस जमाने में सबसे सस्ते और टिकाऊ जूते कानपुर के फ्लैक्स के होते थे। बाटा के कैनवस के जूते भी सस्ते और मजबूत होते थे। नैनीताल और लखनऊ में कई दुकाने चाइनीस जूते वालों की भी थी जो बहुत ही मजबूत जूते बनाते थे । मोजे सूती होते थे (कॉटन के) जो बहुत जल्दी फट जाए करते थे। 1958 में जब पहली बार polyester का मोजा आया तो उसके दाम साढ़े तीन रुपए थे जो आजकल के ₹400 के बराबर है । पहली पोलिस्टर की कमीज harvest tone brand की आई थी मार्केट में सन् 1958 में और वह उस जमाने के तीस रूपये की थी जो आजकल के ₹4000 से ज्यादा ही है।
आजादी के बाद नेताओं ने सोशलिज्म पर ज्यादा जोर दिया और "सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ सोसाइटी" नाम से उद्योगों का विकास किया जिसमें आमतौर पर घरेलू काम की छोटी मोटी वस्तुओं पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया । नतीजा यह हुआ कि बाहर से आने वाले बढ़िया शेविंग ब्लेड पर बहुत ही ज्यादा ड्यूटी लगने से वह आम आदमी की पहुंच के बाहर हो गए और ब्लैड्स का अकाल पड़ गया। दाढ़ी मूछ बनाना यानी शेविंग करना बहुत महंगा पड़ने लगा।
तब एक नया ब्लेड मार्केट पर आया जिसका नाम था भारत ब्लेड । उससे दाढ़ी बनाने में जगह-जगह गाल कट जाता था और फिटकरी का बहुत इस्तेमाल करना पड़ता था।
यादों का सिलसिला तो लम्बा है पर बाकी फिर कभी।
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