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Saturday, 3 April 2021

पिताजी की साइकिल

पिताजी की साइकिल

1928 में जब मेरे पिताजी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे तो मेरे दादाजी ने उनके लिए एक हरक्यूलिस साइकिल खरीदी । उस जमाने में साइकिल इंग्लैंड से इंपोर्ट होकर आती थी। कल बहुत काम की चीज मानी जाती थी हर कोई उसका इस्तेमाल करता था और साइकिल के काफी विज्ञापन होते थे।

वह साइकिल भी इंग्लैंड से ही आई।  कीमत थी ₹28/50 पैसे और उसमें आगे डायनेमो वाली लाइट , पीछे कैरियर , घंटी , साइकिल स्टैंड , चैन कवर इत्यादि सभी कुछ था।

 वह साइकिल मेरे पिताजी के बहुत काम आई -- इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में और उसके बाद लखनऊ यूनिवर्सिटी में क्योंकि उस जमाने में शहरों में कोई बस सर्विस नहीं होती थी नहीं कोई रिक्शा।  

फिर पिताजी की नौकरी लग गई और वह साइकिल दफ्तर जाने के काम आई , पहले बिजनौर में और बाद में गोरखपुर में।  उसी साइकिल पर शाम को पिताजी टेनिस खेलने  जाया करते थे। उन दिनों अंग्रेज साम्राज्य की आखिरी बेला की और अंग्रेजों के सभी अफसर टेनिस खेला करते थे और क्लब जाया करते थे। हिंदुस्तानियों का अलग क्लब  होता था और अंग्रेजों का अलग । बगल बगल में दोनों ही क्लब थे।

 फिर बाद में पिताजी के पास कार आ गई  पिताजी अब कार में दफ्तर जाने लगे  घर में कोई और उस साइकिल का इस्तेमाल करता नहीं जानता था  और वह साइकिल  एक तरह से  बेकारी हो गई और वह  दीवाल के किनारे चुपचाप पड़ी रहती थी ।उसे कोई पूछने वाला नहीं था। तब मैं कोई सात या आठ साल का था और एक दिन मेरे दिमाग में यह आया कि अब मुझे साइकिल चलाना सीखना चाहिए।

 तो मैंने उस साइकिल पर कब्जा कर लिया बहुत उठापटक के बाद घुटनों में बहुत चोट लगने के बाद एक दिन मुझे साइकिल का बैलेंस आ गया और मैंने कैची साइकिल चलानी शुरू कर दी। फिर बाद में जब लंबाई मेरी कुछ बढी और मैं इस लायक हो गया कि सीट पर बैठ कर पेडल तक पर पहुंच जाऊ तब मैंने सीट पर बैठकर साइकिल चलाना शुरु कर दिया ।

फिर मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी पढ़ने चला गया और साइकिल गोरखपुर में पड़ी रही उस दौरान हमारे घर में हमारे कई रिश्तेदार आए रहने के लिए और सभी ने उसी साइकिल पर साइकिल चलाना सीखा । काफी उठापटक के बाद भी  साइकिल का बाल भी बांका नहीं हुआ । फिर जब मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी पढ़ते के लिए आया तब साइकिल की जरूरत महसूस हुई क्योंकि मेरे लोकल गार्जियन का घर काफी दूर हुसैनगंज के पास था।

 तो मैं फिर वह साइकिल ले आया और मैं हॉस्टल में नीचे बरामदे में ताला लगा कर उसको रखने लगा। उस दौरान बहुत  वह साइकिल बहुत काम आई। मैंने उस पर पूरे लखनऊ की सैर की। सभी काम किए।

 उसके बाद में नौकरी में आ गया और दिल्ली चला गया फिर साइकिल की आवश्यकता नहीं हुई और बाद में मैंने स्कूटर भी खरीद लिया।  बहुत दिनों बाद उसे मेरे घर के लोगों ने गोपाल सिंह नाम के आदमी के हाथ बेच दिया जो हमारे घर में काम भी करता था और किसी दफ्तर में चपरासी था ।

इस तरह उस साइकिल का इतिहास जो 50 साल से ज्यादा हमारे घर में था समाप्त हो गया।

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