हमारे जमाने में
जब हम बच्चे थे तब अक्सर हमारे बुजुर्ग कहा करते थे कि हमारे जमाने में ऐसा होता था, हमारे जमाने में वैसा होता था। तब हम सोच भी नहीं सकते थे एक जमाने में हमारे पास भी ऐसा कहने के लिए मसाला होगा। पर अब हालात कुछ ऐसे हैं की बताना जरूरी हो गया है कि हमारे जमाने में कैसा होता था।
हमारे जमाने में टाइम देखने के लिए घड़ी का इस्तेमाल होता था मोबाइल का नहीं। आजकल तो लोगों ने घड़ी पहनना ही बंद कर दिया है क्यीकि हर समय मोबाइल हाथ में होता है और उसमें टाइम लिखा रहता है।
हमारे जमाने में हाथ की घड़ी बहुत महंगी होती थी और बहुत कम लोग पहनते थे इसलिए अगर आपने घड़ी पहनी हो तो अक्सर सुनने को मिलता था " भाई साहब टाइम बताइएगा" ।
अब तो कोई पूछता ही नहीं है
अगर आपने यह डायलॉग सुना "धत्त तेरे की, रात चाबी देना तो भूल ही गया था" तो क्या मतलब होगा । इसका मतलब आप नहीं समझेगे अगर आप 1990 के बाद पैदा हुए हैं। हमारे जमाने में घड़ी में चाबी दी जाती थी यानी घड़ी के दाहिने तरफ का जो screw होता है उसको घुमा घुमा के टाइट किया जाता था ताकि घड़ी अगले 24 घंटे तक चलती रहे। उस जमाने में ज्यादातर घरों में मेज़ में रखने वाली घड़ी होती थी यानी टेबल क्लॉक।
हमारे जमाने में क्लॉक टावर यानी बड़ी ऊंची बिल्डिंग के ऊपर लगी हुई घड़ी हर शहर में होती थी , चलती हुई हालत में।
हमारे जमाने में ए एम और एफ एम बैंड का रेडियो नहीं होता था । तीन बैंड का रेडियो होता था। शार्टवेव और मीडियम वेव के 13 मीटर बैंड से लेकर 120 तक मीटर बैंड होते थे। मीडियम वेव में हम ज्यादातर आकाशवाणी के प्रोग्राम सुना करते थे और दिन में कई बार होने वाले समाचार भी।
सन 2000 के बाद पैदा हुए लोगों ने शायद अंतर्देशीय पत्र नहीं देखा होगा। एक हल्के नीले रंग का चिट्ठी लिखने का कागज होता था जिस पर एक तरफ खाली पेज होता था चिट्ठी देखने के लिए और दूसरी तरफ भेजने और पाने वाले का पता और पहले से ही छपा हुआ 10 पैसे का टिकट। हमारे जमाने में न तो s.m.s. होते थे और नहीं व्हाट्सएप। हम लोग एक दूसरे को चिट्ठी लिखा करते थे। पहले पोस्ट ऑफिस जाकर अंतर्देशीय पत्र खरीदना पड़ता था फिर घर आकर उसमें चिट्ठी लिखी जाती थी बाहर पता लिखा जाता था फिर उसको चिपका कर घर से बाहर निकल कर किसी लेटर बॉक्स में डाला जाता था जहां से कुछ समय बाद एक खाकी वर्दी वाला पोस्ट ऑफिस का कर्मचारी अपने खाकी रंग के बड़े झोले में निकाल लेता था और अपनी साइकिल में उसे बड़े पोस्ट ऑफिस में ले जाता था जहां पर कई कर्मचारी मिलकर चिट्ठियों को उनके पते के हिसाब से अलग-अलग थैलियों में डालकर रेलवे मेल सर्विस के द्वारा लिखे हुए पते पर भेज देते थे। जहां फिर एक साइकिल सवार पोस्टमैन आपकी चिट्ठी आपके घर पर दे जाता था।
हमारे जमाने में टेलीफोन सबके पास नहीं होते थे क्योंकि इसमें काफी खर्च आता था। एक शहर से दूसरे शहर में फोन से बात करने को ट्रंक कॉल कहा जाता था और इसके दिए काफी पैसे खर्च करने पड़ते थे। एक ही शहर में एक दूसरे से बात करने के लिए हर 3 मिनट के 15 पैसे पढ़ते थे उस जमाने के जो आजकल के ₹15 के बराबर है।
सन 1990 के बाद पैदा हुए लोगों को शायद यह भी पता नहीं होगा कि टेलीग्राम क्या चीज होती है क्योंकि अब टेलीग्राम व्यवस्था समाप्त हो चुकी है। क्योंकि चिट्टियां कई दिनों बाद पहुंचती थी लिखे हुए पते पर इसलिए यदि कोई आवश्यक सूचना फौरन देनी होती थी तो उसके लिए टेलीग्राम का इस्तेमाल होता था और इसके लिए हर शब्द के पैसे होते थे । जमाने में एक शब्द के 12 पैसे पढ़ते थे जो आजकल के ₹15के करीब । टेलीग्राम के मैसेज इस प्रकार होते थे जैसे "कल सुबह पहुंच रहा हूं स्टेशन पहुंचो" , "बधाई हो आपका लड़का फर्स्ट डिवीजन आया है" , "नव वर्ष की शुभकामनाएं" इत्यादि। जहां उस जमाने में इतना मैसेज भेजने के लिए ₹100 खर्च करने पड़ते थे वही आजकल सब काम कुछ ही पैसों में व्हाट्सएप में हो जाता है और वह भी तत्काल क्योंकि साधारण टेलीग्राम अगले दिन मिलते थे और जो अर्जेंट होते थे वह कुछ घंटा बाद जेड ज्यादा पैसे खर्च करके।
हमारे जमाने में इक्के और टांगे बहुत होते थे क्योंकि तब ऑटो रिक्शा नहीं आई थी। 1950 के शुरू तक साइकिल रिक्शा भी नहीं आई थी। 1960 के दशक में टेंपो आने शुरू हो गए और 1970 के दशक में काफी ऑटो रिक्शा चलने लगी।
आजकल मोबाइल फोन में सभी कुछ होता है कैलकुलेटर भी होता है। 1970 के आसपास तक जोड़ घटाना गुणा भाग यानी गणित के सभी काम कॉपी पेंसिल पर लिखकर किए जाते थे और इसमें काफी समय और दिमाग लगता था फिर केलकुलेटर आने शुरू हो गए। तो बचपन में हम लोगों के गणित के क्लास में मल्टीप्लिकेशन टेबल यानी पहाड़े रटाए जाते थे क्योंकि हिसाब किताब मैं इनकी काफी जरूरत पड़ती थी
हमारे बचपन में कपड़े धोने के लिए डिटर्जेंट पाउडर नहीं होता था। साबुन की बट्टी या होती थी । ज्यादातर कपड़े धोने के लिए धोबी होता था जो हर घर में हर हफ्ते एक बार आता था और हफ्ते भर के गंदे कपड़े ले जाता था और धुले हुए कपड़े दे जाता था। धोबी के पास कई गधे होते कपड़े लाद कर लाने ले जाने के लिए।
हमारे बचपन में रेडीमेड कपड़े पहनने का रिवाज नहीं था । मार्केट में रेडीमेड कपड़े होते ही नहीं थे। हर गली हर सड़क पर दर्जी की दुकान थी और सब दर्जी से ही कपड़े सिलवाया करते थे।
हमारे जमाने में साइकिल चलाने का भी लाइसेंस लेना पड़ता था और लाइसेंस वाली पट्टी हर साल ₹1 मैं बनाई जाती थी। इसी तरह रेडियो सुनने के लिए भी हर साल ₹5 फीस देनी पड़ती थी बाद में जब टेलीविजन आया तो टेलीविजन के लिए भी ₹50 की फीस थी सालाना।
जब मैं बहुत छोटा था तो सिनेमा हॉल में सिगरेट पीना मना नहीं था और काफी लोग पिक्चर देखते वक्त सिगरेट का धुआं उड़ाते रहते थे और पूरे हॉल में ऊपर की तरफ सिगरेट का धुआं भरा रहता था।
और तो कुछ याद नहीं आ रहा है। काफी समय पहले की बात है तो फिलहाल इस समय इतना ही।
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