वह भी एक जमाना था
कपड़े सूती होते थे उस जमाने में । सिंथेटिक कपड़ों का नामोनिशान तक नहीं था । सूती कपड़ों में इस्त्री करना जरूरी होता था क्योंकि कपड़े मे बहुत जल्दी सिलवटें पड़ जाती थी । कपड़े में कलफ होता था ताकि सिलवटें ना पड़े । उन दिनों कपड़े घर में कम ही धुलते थे। तब सर्फ या रेन साबुन पाउडर नहीं होता था ललिता जी बाद में आईं काफी । तब धोबी ही सभी लोगों के कपड़े धोता था । गधा लेकर आता था कपड़े लादकर और फिर नदी तालाब के किनारे उन्हें पीट-पीटकर धोता था । बटन टूटते थे काफी उन दिनों और जंग के भी दाग पड़ जाते थे सफेद कपड़ों में कभी-कभी , खासकर पैंट में जहां लोहे के बकसू यानी बक्कल होते थे कमर के दोनों तरफ -- पेंट को कसने के लिए।
कभी आपने गौर किया है कि उस जमाने में कमीज सामने की तरफ से पूरी खुली नहीं होती थी। सिर्फ आधी खुली होती थी ऊपर। ऊपर तीन बटन होते थे। पेंट में बेल्ट की जगह गैलिस यानी सस्पैंडर्स का काफी इस्तेमाल होता था बच्चा में भी और वयस्क लोगों में भी। उन दिनों पैंट की मोहरी म नीचे से मुड़ी होती थी जिसमें अक्सर धूल इकट्ठा होती रहती थी । रेडीमेड कपड़े बहुत लोकप्रिय नहीं थे तब। दरजी ही कपड़े सिलता था सबके। और एक मजे की बात यह है कि तब सिर्फ बच्चे ही न हीं बल्कि बड़े लोग भी हाफ पेंट पहनते थे।
उस जमाने में जूते लोकल बने हुए होते थे । ज्यादातर अच्छे कीमती जूते चाइनीस ही बनाते थे । बाटा के रबर और कपड़े के सस्ते जूते भी मार्केट में आ गए थे । उस जमाने में पीवीसी का सोल तो होता नहीं था जूतों में। सोल चमड़े का ही होता था या क्रेप सोल। जूते आगे की नोक पर और पीछे एड़ी पर समय के साथ बहुत घिस जाता था इसके लिए लोग अक्सर पीछे और आगे जूते में लोहे के टुकड़े लगाते थे । आगे छोटा सा ऑरेंज और एड़ी पर लोहे की नाल।
उस जमाने में बाइसिकिल का इस्तेमाल बहुत होता था। आजकल तो साइकिल सिर्फ गरीब तबके के लोगों के पास दिखाई देती है पर तब सरकारी अफसर भी साइकिल में ही दफ्तर जाया करते थे। अक्सर सभी साइकिल इंग्लैंड से आती थी जिसमें हरकुलिस और रैले सबसे ज्यादा मशहूर थे। उस जमाने में साइकिल का भी लाइसेंस बनवाना पड़ता था जो ₹1 का होता था।
उस जमाने में पैक की हुई खाने की चीजें नहीं के बराबर थी। ना तो नूडल्स है ना हल्दीराम था, ना अंकल चिप्स थे। पिज़्ज़ा का तो नाम भी नहीं सुना था उन दिनों किसी ने। उन दिनों कुल्फी बहुत पॉपुलर थी । इसके अलावा दालमोट बहुत चलती थी। घर में ही लोग चूड़ा मूंगफली मसालेदार बना लेते थे तल के। या फिर मठरी और शकरपारे नमक मिर्च अजवाइन डालकर। केक पेस्ट्री तो थे ही। एक डबल रोटी जो आजकल ₹30 की आती है तब 25 पैसे यानी चार आने की होती थी। वैसे उस दिनों डबल रोटी खाने का इतना ज्यादा रिवाज नहीं था जितना आजकल है । मक्खन सबसे बढ़िया पोलसन का आता था जिसकी बिजनेस अमुल ने आकर खत्म कर दी। उन्हीं दिनों अलीगढ़ का सीडीएफ मक्खन भी बहुत ही बढ़िया होता था ।
सिगरेट पीने का बहुत रिवाज था उन दिनों। हर लड़का इस बात का इंतजार करता था कि वह कब 15 16 साल का हो जाए और सिगरेट पीना शुरू कर दें वयस्क लोगों की तरह। सिगरेट पीना अच्छा समझा जाता था और अमीर लोगों की सिगरेट थी 555। जो सिगरेट नहीं खरीद सकते थे वह बीड़ी पीते थे। उसे जमाने की सबसे मशहूर बीड़ी थी पहलवान छाप। पान खाने का भी बहुत रिवाज था । अक्सर घर पर ही लोग पान के डिब्बे, जिसे पान दान भी कहते थे, घर पर रखते थे जिसमे सुपारी चूना कत्था तंबाकू वगैरह रहता था । उस जमाने मे गुटका नाम की कोई चीज नहीं होती थी जो आजकल हर पान की दुकान में और हर जनरल स्टोर में धड़ल्ले से बिकता है।
तब टेंपो ऑटो और ई रिक्शा तो थे नहीं घोड़े वाले टांगे और एक्के बहुत थे। तांगा महंगा था और एक्का बहुत सस्ता। रईस लोग अपने पास टमटम रखते थे। मोटर कार बहुत कम लोगों के पास होती थी और बस सर्विस तो कुछ बड़े शहरों को छोड़कर कहीं नहीं थी। कुछ बड़े शहरों में ट्राम भी चलती थी दिल्ली में, पटना में, कानपुर में, मुंबई में तब ट्राम चला करती थी । कोलकाता में तो अभी भी ट्राम है।
तब सीवर लाइन नहीं हुआ करते थे खुले हुए बड़े नाले होते थे इसलिए शहरों में कॉकरोच कहीं नहीं होते थे जो कि लंदन और न्यूयॉर्क में भरे हुए थे। छोटे शहरों में जल निगम नहीं थे घरों में पाइप लाइन नहीं थी । लोगों ने घर पर हैंडपंप लगा रखे थे । तब पानी की सतह काफी ऊपर थी तो बहुत कम गहराई में सभी शहरों में पानी मिल जाता था इसके अलावा कुछ लोग घर में कुएं बना लेते थे पानी के लिए। तब फ्लश सिस्टम नहीं था लैट्रिन में। खुली लैट्रिन होती थी और भैंसा गाड़ी आती थी लोगों के घर से लैटरीन इकट्ठा करने के लिए। तब कुकिंग गैस भी नहीं होती थी इसलिए लोग या तो कोयले पर या लकड़ियों पर खाना बनाते थे । रसोई घर में अक्सर धुआ भरा रहता था जिसके निकलने के लिए रसोई घर के ऊपर चिमनी होती थी।
बातें तो और भी हैं पर आज के लिए इतना ही काफी।
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