खीमानंद की कहानी भाग2
जब खीमा 2 साल का था तो उसके पापा का तबादला बिजनौर से गोरखपुर हो गया। कहते है आते वक्त रेल के डिब्बे की खिड़की से चलती गाड़ी के बाहर खीमा ने अपना नया सिल्क का हाफ पैंट सूट बाहर फेंक दिया था।
गोरखपुर में उसके पापा के एक मित्र शंकर सिंह पोस्टेड थे जिनका तबादला उसके पिता की ही बिजनौर की पोस्ट में हो गया था। स्टेशन से उसके पिता शंकर सिंह जी के इसी खाली मकान पर आए। मकान के नजदीक ही गोलघर की छोटी सी साफ-सुथरी बाजार थी और स्टेशन भी बहुत ज्यादा दूर नहीं था । गोरखपुर का स्टेशन बहुत शानदार था।
उस जमाने में उस एरिया में जिसे सिविल लाइंस कहते थे बहुत बड़े-बड़े अहाते में मकान हुआ करते थे। इस इलाके में एक जमाने में अंग्रेज लोग रहा करते थे और उन्होंने अपने हिसाब से ही सिविल लाइंस इलाके की व्यवस्था की थी। पास में ही अंग्रेजों के जरूरत पूरी कराने के लिए छोटी सी बाजार जहां अंग्रेजी शराब की दुकान डबल रोटी मक्खन अंडा की दुकान द रेसर बैडमिंटन रैकेट वाली खेलकूद के सामान की दुकान एक घर के जरूरत के सामान रखने वाली दुकान जहां अंग्रेजी बिस्किट टोपी टॉफी खिलौने से लेकर साबुन तेल कंगी वगैरह सब मिलता था।
मकान का कंपाउंड तो बहुत ही बड़ा था पर मकान कुछ छोटा था हालांकि अच्छा बना हुआ था। पहले वह मकान किसी अंग्रेज औरत ने अपने लिए बनवाया था पर जब वह इंग्लैंड चली गई तो बाबूलाल जी नाम के एक लैंडलॉर्ड ने उसे खरीद लिया था। खीमा के पापा ने मकान मालिक से कहकर कुछ और कमरे बनवाए , सुंदर डिजाइन के बरामदे बनवाए और मकान के चारों तरफ मजबूत बाउंड्री वॉल भी बनवा दी जो पहले नहीं थी। खीमा के पापा को बागवानी का बहुत शौक था खासकर फूलों का और उन्होंने पूरे मकान में सुंदर फूल के बेल और पौधे लगाए
मकान से चौथाई किलोमीटर पर उसके पिताजी का दफ्तर था। उतनी ही दूरी पर नेपाल क्लब था जहां उसके पापा अंग्रेजों के जमाने में टेनिस खेलने जाया करते थे। अंग्रेजों के जाने के बाद क्लब वाला कल्चर खत्म ही हो गया था।
जब खीमानंद साडे तीन साल का था उसके बड़े मामा दामोदर जी की शादी हो गई नैनीताल से। बहू पुष्पा रामनगर की थी, मामा से 12 साल छोटी। शादी के प्रोग्राम की याद की एक ग्रुप फोटो खींची गई जो अभी भी खेमानंद के पास है जिस पर उसके नाना उसकी नानी उसकी मां उसकी मौसी उसकी मासी की लड़की और उसकी दीदी वगैरह सभी है।
चार साल की उम्र के करीब खीमानंद गोरखपुर में सेंट मेरिज कॉन्वेंट स्कूल में भर्ती हुआ था। साफ सुथरा अच्छा स्कूल था। वहां उसने ए बी सी डी और गणित वगैरा का पहला ज्ञान प्राप्त किया। वहां की सभी टीचर गोरी चिटटी अंग्रेज नन थी।
वहां शायद 2 साल तक उसने पढ़ाई की जिसके बाद उसे हूफिंग कफ की वजह से स्कूल से निकाल दिया गया। वैसे भी वह स्कूल लड़कियों का था पर छोटे लड़कों को रख लिया जाता था।
तब गोरखपुर एक छोटा शहर था। रिक्शा जैसी सवारिया उन दिनों होती नही थी । लोग पैदल ही जाते थे एक जगह से दूसरी जगह या फिर साइकिल या इक्का में । उसे और उसकी दीदी को एक चपरासी रोज स्कूल छोड़ने और लेने जाता था। पैदल ही जाते थे। स्कूल के बगल में दूसरी तरफ उसके पिताजी का ऑफिस का बड़ा सा अहाता था। वह और उसकी दीदी अक्सर पापा के दफ्तर चले जाते थे स्कूल के बाद।
जब उसे स्कूल से निकाला गया तब उसके दफ्तर के ही एक बाबू ने उसके घर में आकर उसको पढ़ाना शुरू कर दिया। पापा उस बाबू को अच्छी ट्यूशन फीस देते थे और वह सभी विषय पढ़ाता था। मास्टर का नाम था राम राज्य भट्ट और वह हिंदी में m.a. पास था। फिर उसने तीन साल तक घर पर ही मास्टर से पढ़ा करीब-करीब सभी विषय और फिर उसने छठी क्लास पर गवर्नमेंट जुबली स्कूल में एडमिशन लिया।
जुबली स्कूल की पहले दिन की उसे अच्छी तरह याद जीवन भर रही क्योंकि वहां पहले ही दिन एक खूंखार टीचर में बिना बात के उसकी पिटाई कर दी और वह स्कूल से भाग खड़ा हुआ । पुराने जमाने में स्कूल में लड़कों की बहुत पिटाई होती थी जो अब कानूनी तौर पर मना है।
फिर उसने उस स्कूल में जाने से इंकार कर दिया बावजूद इसके कि उसके पिता ने उसकी पिटाई भी की । हार कर उसके पिता ने उसे एक दूसरे स्कूल में भर्ती करा दिया जहां के हेड मास्टर पापा के परिचित थे। स्कूल का नाम था सेंट एंड्रयूज स्कूल।
वहां उसने हाई स्कूल तक की पढ़ाई की । सुबह नौ बजे से क्लासेज होते थे और तीन बजे स्कूल बंद हो जाता था। सुबह दाल चावल सब्जी वगैरह का खाना खाकर वह स्कूल जाता था और शाम को जब लौटता था तो बुरी तरह भूखा होता था हालांकि स्कूल में एक बजे भीगा हुआ चना अदरक के टुकड़ो और नमक के साथ खाने को मिलता था। वह चना अदरक नहीं खाता था और अपने हिस्से का चना अदरक एक गरीब लड़के को दे देना था।
स्कूल से आने के बाद उसे शाम के 3:30 बजे रोज और लोगों के साथ बैठकर पूड़ी और आलू मटर की सब्जी खाने को मिलती थी।
उसे स्कूल पहुंचाने के लिए साइकिल में बैठा कर एक चपरासी आता था और शाम को उसे घर ले जाता था क्योंकि स्कूल घर से थोड़ा दूर था। बाद में जब पापा के पास कार आ गई तब उसके ठाठ हो गए क्योंकि एक ड्राइवर उसे कभी कभी स्कूल छोड़ने और लेने जाता था।
नए स्कूल में खीमा का मन लग गया था क्योंकि लड़के अच्छे थे और मास्टर भी उसे परेशान नहीं करते थे। उसे सबसे अच्छे मास्टर शशिमॉल पंडित लगते थे जो हिंदी पढ़ाया करते थे। बंगाली टीचर बिस्वास अंग्रेजी पढाते थे। स्कूल ईसाइयों का था तो सुबह क्लासेस शुरु होने से पहले प्रार्थना होती थी बाइबल के पाठ जैसा कि अन्य क्रिश्चियन स्कूल में होता था1 हेड मास्टर साहब का नाम राय बहादुर अमर सिंह था जो ईसाई थे। वह गोरे चिट्टे थे और उनकी शादी एक एंग्लो इंडियन औरत से हुई थी। स्कूल के बगल में ही उनका बंगला था।
इंटरमीडिएट की पढ़ाई करने के लिए वह सेंट एंड्रयूज कॉलेज पर आ गया जो उस जमाने का अच्छे कॉलेज था।
वहां के प्रिंसिपल पीटी चांडी थे जो आगे चलकर कई विश्वविद्यालयों में वाइस चांसलर भी रहे।
केमिस्ट्री की लैब में प्रैक्टिकल करते वक्त एक बार उसकी अच्छी खासी नई पेंट में कई जगह छेद हो एसिड गिरने से। उसे अभी तक केमिस्ट्री लैब के बाहर h2s गैस की बदबू याद है।
इंटरमीडिएट तक उसका विषय विज्ञान (साइंस) सब्जेक्ट का था पर इंटरमीडिएट के बाद उस आर्ट्स मैं बीए करने का फैसला किया और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी चला गया ।
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी मै वह एक हॉस्टल में रहने लगा। हॉस्टल का नाम अमरनाथ झा हॉस्टल था जिसे म्योर हॉस्टल भी कहते थे। शुरू शुरू में सभी नए लड़कों की रैगिंग होती है और उसकी भी काफी खिंचाई हुई पर बाद में आपस में काफी भाईचारा हो गया था सीनियर्स के साथ।
हॉस्टल की पुराने जमाने की शानदार बिल्डिंग थी।
उस हॉस्टल में दो प्राइवेट मेस यानी भोजनालय थे। उसने झुल्लर महाराज का मेस ज्वाइन कर लिया। ज्यादातर लड़के झुल्लार महाराज का मेस ही पसंद करते थे।
सुबह सात बजे रजा बेकरी का एक आदमी डबलरोटी मक्खन पेस्ट्री इत्यादि लेकर आता था। खीमा उससे आधी ब्रेड स्लाइस करवाकर और एक टिकिया मक्खन ले लेता था और फिर हीटर मैं चाय बना कर नाश्ता कर लेता था। अधिकतर लड़के ऐसा ही करते थे। शाम चार बजे एक आदमी सामने यूनिवर्सिटी रोड की भट्ट जी की बेकरी से आता था। वह बहुत ताजे मुलायम बन में मक्खन लगा कर देता था। यूनिवर्सिटी रोड पर ही जगाती का पुराना पॉपुलर रेस्त्रां था जहां स्टूडेंट्स अक्सर खाना खाते थे।किताबों की भी बहुत सी दुकान थी।
पहले साल हॉस्टल के एनुअल फंक्शन में उसने अंग्रेजी ड्रामे में पार्ट लिया था। इसके अलावा उसने वहां टेबल टेनिस और स्क्वैश रैकेट खेलना शुरू किया। उसे बाद में स्क्वैश रैकेट डबल्स टूर्नामेंट में दो बार यूनिवर्सिटी चैंपियनशिप मिली।
उस जमाने में इलाहाबाद एक बहुत अच्छा, खुला हुआ साफ सुथरा शहर था। किसी जमाने में इलाहाबाद यू पी सरकार की राजधानी रही थी और वहां की ब्रिटिश समय की इमारतें बहुत भव्य थीं।
यूनिवर्सिटी की इमारतें भी लाजवाब थीं।
आर्ट्स फैकल्टी के सीनेट हाल के ऊपर हूबहू लंदन के बिग बेन जैसा एक क्लॉक टावर था
जिसके म्यूजिकल घंटे की आवाज कई मील दूर तक सुनाई देती थी। साइंस ब्लॉक मैं प्रसिद्ध म्योर टावर था।
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बी.ए. करने के बाद वह लखनऊ यूनिवर्सिटी आ गया एम.ए. करने ।
बाकी की कहानी तीसरे भाग मैं।
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