Total Pageviews

Wednesday, 27 March 2024

नाम में क्या रखा है

नाम में क्या रखा है

बच्चे बहुत शरारती होते हैं बचपन में हम लोग बड़े लोगों के स्वभाव और पर्सनालिटी के आधार पर अक्सर उनके लिए कोईबनाम रख देते हैं। कभी-कभी उन दिनों के रखे हुए नाम की याद आती है तो बहुत हंसी आती है।

मेरे क्लास में एक लड़का पढ़ता था वह इतना काला और चमकीला था कि स्कूल में अलग दिखाई देता था। हमारी क्लास के लड़कों ने उसका नाम cobra boot polish dark tan रख दिया था। एक मास्टर जी थे गणित के, जो बहुत छोटे साइज के और गोल मटोल से थे और लुढ़कते हुए चलते थे,  तो उनका नाम डनलप मास्टर रख दिया था। 

हमारे घर के बाहर की तरफ का एक बड़ा कमरा मेहमानों का कमरा होता था। होता यह था कि हमारे दादाजी गांव से किसी को भी हमारे शहर में भेज देते थे नौकरी की तलाश में और जब तक उसकी नौकरी नहीं लग जाती थी और रहने के लिए जगह नहीं मिल जाती थी तब तक हमारे ही गैस्ट रूम में रहता था। तरह-तरह के लोग वहां जाकर रहे जिनमें से कुछ लोगों का नाम हम लोगों ने रख दिया था। एक बहुत लंबा दुबला पतला मेहमान था जिसका नाम लमपूछया पांडे पड़ गया था। एक दूसरा पांडे था जिसका मिजाज थोड़ा गर्म था तो उसका नाम गुर्री पांडे रख दिया गया था। इसी तरह एक और सज्जन थे जो इतने पतले लंबे और छड़ी की तरह सीधे थे कि उनका नाम खंबा रख दिया गया था। एक सज्जन साल भर तक रहे और बहुत रहस्यमई तरीके से इधर से उधर जाते दिखाई देते थे तो उनका नाम नेवला पड़ गया।

बात सिर्फ हमारे बचपन की या घर की नहीं है थोड़े बड़े होकर जब यूनिवर्सिटी में गए तो हॉस्टल में भी देखा कि लड़कों के नाम पड़ रहे हैं। मुझे पता नहीं है पर मेरा भी जरूर कोई नाम पड़ा होगा। एक लड़का था जिसके नाक के नथुने बहुत ही चौड़े थे और नाक भी बहुत बड़ी थी। उसका नाम रखा गया था भैंस। उसके बगल के कमरे में एक छोटे से कद और छोटी-छोटी आंखों वाला लड़का था जिसकी आंखें बहुत चंचल थी इधर से उधर घूमती रहती थी उसका नाम रखा गया था कबूतर। एक और सीनियर स्टूडेंट था जो ऊपर की मंजिल के कोने के कमरे में रहता था। उसकी शक्ल कुछ इस तरह की थी कि उसका नाम बुलडॉग पड़ गया। हॉस्टल में 2 साल रहने के बाद एक नया लड़का हॉस्टल में आया जिनका कद 6 फुट 4 इंच था दुबला पतला था। उसका नाम भाई लोगों ने ICBM रख दिया था।

ऐसे भी कई नाम है जो उनकी अपनी भाषा में तो सही है पर हिंदी में ऐसे नाम देखकर अगर आपको हंसी आ जाती है तो गलत नहीं है। आपकी भाषा में उसका कुछ और मतलब होता है। लोगों का नाम अपनी भाषा में अच्छा होता होगा पर उत्तरी भारत में इन डॉक्टर साहिब का बोर्ड बड़ा अटपटा लगता है।



***

बाजार का बदलता स्वरूप

बाजार का बदलता स्वरूप


होली के एक दिन पहले दूध और दही की इतनी ज्यादी मांग थी की 12:00 बजे तक पूरी मार्केट में दूध दही खत्म हो गया। मुझे दही की जरूरत थी। अब टाइम पर खरीद नहीं पाया तो सोच रहा था क्या किया जाए तो इसी बीच किसी ने सुझाव दिया की क्यों ना ऑनलाइन ऑर्डर कर दो । ट्राई करके देखो। तो मैंने अपना मोबाइल फोन उठाया,  एक ऑनलाइन मार्केटिंग साइट पर गया और दही दूध वगैरा का ऑर्डर दे दिया । 

ठीक 10 मिनट के बाद मेरा सामान मेरे यहां पहुंच गया ।

समय कितना बदल गया है यह सोचकर आश्चर्य होता है। आज से अनेक दशक पहले भारत की आजादी के आसपास के समय में खरीदारी करना आजकल के अनुभव से बिल्कुल फर्क था। 

हम एक छोटे शहर में रहते थे। घर से थोड़ी दूर पर एक छोटा सा बाजार था जहां पर खेलकूद का सामान मिलता था डबल रोटी मक्खन की दुकान थी और दारू की दो-तीन दुकान थी। वह सिविल लाइंस का इलाका था जहां एक जमाने में अंग्रेज रहते थे तो दारू की दुकान होना तो जरूरी था। बाकी कोई दुकान नहीं थी ना कपड़ों की, न गेहूं चावल वगैरह की ।सब्जी मंडी की भी कोई दुकान दूर-दूर तक नहीं थी और न ही कोई दुकान जनरल मर्चेंट की।

उसे जमाने में सर पर टोकरी रखकर सब्जी बेचने वाले कभी-कभी घर पर आते थे।  एक खूब चौड़ी टोकरी सर पर रखकर सब्जी वाली आवाज लगाती हुई अतिथिऔर उस से सब्जी खरीदने थे हम लोग। बाकी सब्जियां हमारा रसोईया बताने कहां से लाता था और किस भाव में। 

छोटे-छोटे कई फेरी वाले सामान बेचने के लिए ज्ञापन आते थे जैसे candyfloss जिसे बुढ़िया के बाल कहते थे, चना जोर गरम कटे हुए गन्ने के टुकड़े और मेवे बेचने वाला पठान। कभी कबार कपड़े बेचने वाले भी आ जाते थे।

उसे जमाने में घर से काफी दूर पर बाजार होता था  जहां सभी सामान मिलता था सब्जियां जूते कपड़े राशन का सामान इत्यादि। पर वहां जाने के कोई आसान साधन नहीं थे। न टेंपो था न ऑटो था और नहीं पैडिल वाली रिक्शा थी। तांगे एक्के के चलते थे थोड़े बहुत। ज्यादातर लोग अपनी साइकिल का इस्तेमाल करते थे।

खाने का मतलब है कि सामान की खरीद फरोख्त के लिए अलग से काफी टाइम निकालना पड़ता था और आने जाने के साधन ढूंढने पड़ते थे फिर उत्तर भाई सामान उठाकर लाने में काफी समय लगता था मेहनत लगती थी और पैसे लगते थे।

1950 के दशक में सभी शहरों में आजादी के बाद पाकिस्तान से काफी शरणार्थी आ गए थे खासकर पंजाब से और वह सभी बहुत अच्छे किस्म के बिजनेसमैन थे । तो धड़ाधड़ कई तरह की दुकान खुलने लगी। कपड़ों की दुकाने, राशन की दुकाने, मेवे और मिठाइयों की दुकाने और जनरल समान की भी दुकाने। शहर के पुराने दुकानदारों में ग्राहकों से अच्छी तरह बात करने की आदत नहीं थी पर पंजाब से आए खासकर सिख समुदाय के लोग बहुत अच्छी तरह ग्राहकों से बात करते और धीरे-धीरे उन्होंने पूरी मार्केट पर कब्जा कर दिया।

धीरे-धीरे यातायात के साधन अच्छे हो गए ऑटो रिक्शा चलाते हैं लगे दूर  दूर से सामान लाना आसान हो गया लोगों के पास अपने स्कूटर होने लगे। और कुछ दुकानदारों ने तो घर पर खुद ही सबर पहुंचना शुरू कर दिया।

इसके बाद एक समय आया जब  शहरों में mall खोलने लगे एक ही बहुत बड़ी जगह पर एक परिवार की जरूरत का सभी सामान मिल जाता था वहीं पर सब्जी लिए वहीं पर राशन लिया वहीं पर प्रधान के सामान दिए वहीं पर जरूर की अन्य चीजों का सामान भी लिया और फिर काउंटर पर आकर बिल बनवाकर पैसा दिया और घर को चल दिए। mall के आ जाने के बाद छोटी दुकानों की आमदनी कुछ घट गई क्योंकि बोल में समान थोड़ा सस्ता मिलता था।

लेकिन सबसे बड़ा चमत्कार इंटरनेट के आने के बाद हुआ जब कुछ बड़ी-बड़ी कंपनियों ने सीधे सस्ते दामों पर घर पर सामान पहुचाना शुरू कर दिया। अब तो आपके घर से बाहर निकाल दे की भी आवश्यकता नहीं थी मोबाइल उठाया अमेजॉन फ्लिपकार्ट ब्लैंकेट जिओ मार्ट बिगबास्केट वगैरह बहुत से मार्केटिंग साइट्स है जहां पर आप जाकर हर तरह का समान चाट सकते हैं और आर्डर कर सकते हैं और बहुत जल्दी ही आपके घर के अंदर वह सामान पहुंचा दिया जाता है दुकानों से थोड़े कम दाम में।

विज्ञान की प्रगति के साथ इतनी तेजी से विकास हो रहा है कि ईश्वर ही जानता है कि आज से 10 साल बाद हम सामान किस तरह खरीदेंगे।

***