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Sunday 1 September 2024

हमारे बचपन के जमाने में (1)

75 साल से ऊपर के महिलाओं और पुरुषों के जीवन में जो अनुभव आए हैं वह शायद ना पहले कभी आए थे ना आगे आने की संभावना  है 

हमने लकड़ी की तख्ती के ऊपर खड़िया मिट्टी से लिखकर गणित के सवाल हल किए हैं। पहले किसी चीज से इस तख्ती को साफ और काला किया जाता था ताकि खड़िया मिट्टी या चौक से लिखा हुआ साफ दिखाई दे। बाजार में उन दिनों लिखने के लिए खड़िया में पेंसिल के डिजाइन की छड़ी मिलती थी।

उसे जमाने में पत्थर की स्लेट में भी खड़िया मिट्टी वाली चौक की डंडी से लिखा जाता था और गणित के सवाल हल किए जाते थे। 
हां एक बात और बता दें कि उस जमाने में लड़कों को मास्टर साहब की जितनी मार स्कूल में पड़ती थी उसकी कल्पना भी आजकल के बच्चे नहीं कर सकते हैं।

वह जमाना  था जब सब जगह बिजली नहीं थी । लालटेन का  काफी इस्तेमाल होता था लालटेन के नीचे ढक्कन खोलकर मिट्टी का तेल भरा जाता था ऊपर से ढक्कन उठाकर कांच वाले हिस्से को साइड में झुका कर निकाला जाता था और फिर साफ किया जाता था क्योंकि रात भर लालटेन जलने  से कांच काला का जाता था।

 हां यह बताना जरूरी है की जमाने में मिट्टी तेल खूब मिलता था और बहुत सस्ता था। गरीब लोग जो लालटेन नहीं खरीद सकते थे मिट्टी तेल की छोटी सी डिबरी का इस्तेमाल करते थे । इसके ऊपर भी कांच की एक छोटी सी शैड होती थी हवा को रोकने के लिए।

उस जमाने में आजकल की तरह लाल सिलेंडर में गैस नहीं होती थी रसोई घर में। ईंटें लगाकर चिकनी मिट्टी से रसोई घर में चूल्हे बनाए जाते थे ‌। आगे खुला चूल्हा और उसके पीछे एक बंद चूल्हा होता था आगे के चूल्हे में तेज आंच होती थी और रोटी बनाई जाती थी या दाल बनाई जाती थी पीछे के चूल्हे में कोई एक पतीला रख दिया जाता था ताकि  ठंडा ना हो जाए। कभी-कभी बगल बगल में दो चूल्हे का डिजाइन भी होता था ।

बाजार से लकड़ी खरीद कर लाई जाती थी और कुल्हाड़ी से फाड़ कर छोटे-छोटे डांडिया रसोई घर में रखी जाती थी जलाने के लिए। 

रसोई घर पर अक्सर धुंआ भर जाता था तो धुएं के बाहर निकालने के लिए रसोई घर की छत पर एक चिमनी होती थी जिससे धुआं बाहर निकलता था। 

हमारे बचपन के जमाने में डाइनिंग रूम नहीं होता था खाना खाने के लिए। साधन संपन्न लोग भी खाना खाने के लिए रसोई घर में जाते थे और जमीन पर चौकिया में बैठकर थाली में खाना खाते थे।

 तब प्लेट का रिवाज नहीं था ‌। खाना बनाने के बर्तन अक्सर पीतल के होते थे और उन्हें बाहर कलाई चढ़ी होती थी । खाना बनाने के भगोंनों के बाहर चिकनी मिट्टी का लेप लगा दिया जाता था चूल्हे में चढ़ाने से पहले ताकि पकाते वक्त जो कालिख लगे वह बाहर लगी हुई मिट्टी में ही लगे और बर्तन आसानी से साफ हो जाए। थाली और गिलास भी पीतल के या कांसे के होते थे और खट्टी चीजों के लिए पत्थर की बनी हुई कटोरिया होती थी जितेंद्र पथरी कहते थे जिस पर चटनी अचार वगैरा रखा जाता था।

हमने वह जमाना देखा है जब शहर में पानी की सप्लाई की पाइप नहीं होती थी रसोई घर के बाहर आंगन में एक हैंड पंप होता था जिसके हैंडल को ऊपर नीचे  घुमाकर बाल्टी में पानी निकाला जाता था रसोई के काम के लिए और नहाने  धोने के लिए। 

उस जमाने में प्लास्टिक होता ही नहीं था । हर चीज बिना प्लास्टिक के होती थी । रस्सी सूत की होती थी, सामान ले जाने वाले बैग कपड़े के होते थे,  बाल्टी  जिंक मिले हुए लोहे की होती थी जिस पर जंग नहीं लगता था। 

उसे जमाने में कम साधन संपन्न लोगों के मकान भी बड़े होते थे जिनमे आंगन भी होता था। गर्मियों के दिनों में आंगन में पानी का छिड़काव करके खाटें बिछा दी जाती थी और उसके ऊपर  मच्छरदानी तान दी जाती थी। अक्सर जब अचानक गर्मियों में आंधी आ जाती थी या बिना मौसम का पानी बरसने लगता था तो हम लोग अपना बिस्तर लपेटकर अंदर भागते थे।  

आज के लिए इतना काफी है बाकी बातें अगले एपिसोड में। 

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