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Saturday, 16 November 2024

पुराने जमाने का रुपया और आज का रुपया

1955 का रुपया और आज का रुपया 

समय के साथ काफी परिवर्तन सब जगह हो रहे हैं और सबसे ज्यादा परिवर्तन जो एक वरिष्ठ नागरिक देखता है वह है रुपए की परचेसिंग पावर यानी खरीदने की शक्ति। 

अब देखिए सन 1938 का ₹1 का सिक्का और आज का ₹1 का सिक्का तो आपके समझ में आ जाएगा कि रुपए की कीमत में कितने गिरावट हुई है। पहले वाला है बिल्कुल शुद्ध स्टर्लिंग चांदी का और दूसरा साधारण लोहे पर पालिश किया हुआ।


और ताज्जुब की बात तो यह है कि उसे जमाने में चार आने का और आठ आने का सिक्का विशुद्ध चांदी का होता था। 

55 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में सर सुंदरलाल हॉस्टल के बाहर सड़क पर केले वाला बैठता था और मैं यूनिवर्सिटी जाते वक्त वहां रुक कर तीन केले खरीदना था खाने के लिए उसी समय। मैं उसे दो आने दे देता था तीन केले के लिए यानी 50 पैसे का एक दर्जन केले । आज केले 80 रुपए दर्जन है।

 लखनऊ में महानगर से हुसैनगंज की तरफ लौटते हुए निशातगंज होकर रास्ता जाता है जहां बीच में सब्जी मंडी है। 1976 में महानगर से लौटते समय सब्जी मंडी से कुछ सब्जियों खरीदीं। टमाटर 25 पैसे किलो था। आज टमाटर के दाम ₹100 के ऊपर है एक किलो के।

1960 के दशक में हजरतगंज से शाम को लौटते वक्त डबल रोटी और मक्खन ले आते थे। एक बड़ी डबल रोटी 50 पैसे की आती थी और 100 ग्राम मक्खन 50 पैसे का था। आज के रेट तो आपको पता ही होंगे।

उसे जमाने में कहावत थी की गरीब आदमी को सिर्फ दाल रोटी में गुजारा करना पड़ता है। आज अरहर की दाल 275 रुपए किलो है और बाकी दालें भी 180 के आसपास। उसे जमाने में बासमती चावल सवा रुपए किलो था और दाल  50 पैसे के आसपास होती थी एक किलो।

72 में मैंने एक बजाज स्कूटर खरीदा था 3400 रुपए में। पहली बार पेट्रोल भरवाया तो ₹1 लीटर पेट्रोल के दाम थे। आजकल पेट्रोल के दाम ₹100 के आसपास है एक लीटर।

1950 के दशक में कागजी बादाम ₹5 किलो था और देसी घी भी इसी दाम का था।

1960 के आसपास लखनऊ में सिटी बस सर्विस काफी अच्छी थी तब मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में विद्यार्थी था और वहां से अक्सर हुसैन गंज की तरफ आना जाना होता था । यूनिवर्सिटी के बस स्टॉप से हुसैनगंज का एक तरफ का बस का किराया 6 पैसे था। 

हजरतगंज में 1960 के आसपास हनुमान मंदिर के बगल में एक रेस्टोरेंट हुआ करता था जिसका नाम बंटूस था। वहां थाली के हिसाब से खाना मिलता था। एक थाली भोजन 50 पैसे का था। 
और हॉस्टल में दो वक्त के भोजन का हमें ₹30 देना होता था ।

उस जमाने में लखनऊ के दर्जी एक कमीज की सिलाई का डेढ़ रुपया लेते थे और एक पेंट की सिलाई का ₹3.25 पैसा। गरम कोट की सिलाई 20 से ₹25 होती थी।

1950 के शुरू में भारत में कोका-कोला नाम की कोई चीज नहीं थी। कोका-कोला के रंग का ही एक कोल्ड ड्रिंक काफी पॉपुलर था इसको विम्टो कहते थे। 1960 के दशक में कोका-कोला भारत में काफी पकड़ बना चुका था । दाम 25 पैसे होते थे एक बोतल के। तब कांच की बोतल हुआ करती थी। 

पहले रेलवे के प्लेटफार्म में जाने के लिए कोई टिकट नहीं होता है पर 50 के दशक में पहले एक आने यानी 6 पैसे और बाद में दो आने आने 12 पैसे का प्लेटफार्म का टिकट होता था। 

1960 और 2024 के दाम की अगर तुलना करें तो करीब करीब सभी चीजों का दाम 100 से 150 गुना बढ़ गया है। और कुछ चीजों का दाम जैसे अरहर की दाल तीन सौ गुना से भी ज्यादाबढ़ गया है । दालें तब 50 पैसे के आस पास की 1 किलो आती थी।

पर सबसे मजेदार बात तो यह है कि हमारे बचपन हमारे दादाजी कहा करते थे कि क्या जमाना आ गया है‌।  कितनी महंगी हो गई है सब चीज़े !!

होता यह कि हर जमाने में सिर्फ खाने-पीने वगैरा की चीजों के दाम ही सस्ते नहीं होते बल्कि आपकी मासिक आय भी बहुत कम होती है।
मिसाल के तौर पर आजकल एक मजदूर 600 से ₹700 रोज कमाता है पर 1960 के शुरू में एक आई.ए.एस. अधिकारी के नौकरी शुरू करने पर पहली  सैलरी ₹400 महीने होती थी 
यानी ₹14 रोज से भी कम । पहले का मतलब है की रुपया की परचेसिंग पावर यानी खरीदने की शक्ति तो जरूर बहुत ही ज्यादा थी पर क्योंकि वार्षिक आय बहुत कम थी तो जो हाल आज है वही हाल पहले भी था जनसाधारण का। 

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Friday, 4 October 2024

लापता लेडीज

Lapata ladies


आमिर खान की लापता लेडीज
पता नहीं आपने लापताल लडीज
 फिल्म देखी है या नहीं अगर दही अच्छी है तो एक बार तो देखा अच्छा रहेगा क्योंकि फिल्म फर्क तरहक हैपि और सभी कलाकार दे है पर मंजे हुए खलाड़ीक

इस पिक्चर को सन 2001 के टाइम में दिखाया गया है। जिस तरह से गांव में मोबाइल फोन का इस्तेमाल दिखाया गया है उस हिसाब  से पिक्चर की घटनाओं का समय सन 2008 के बाद का होना चाहिए था जब मोबाइल फोन गांव तक पहुंचने लगे थे । सन 2001 में गांव की तो बात छोड़ दो, शहरों में भी मोबाइल फोन नहीं होते थे एक दो रईसों को छोड़कर। मोबाइल फोन आम लोगों की पहुंच के बाहर था क्योंकि एक तो उसे खरीदने के लिए हजारों रुपए चाहिए होते थे और दूसरा एक मिनट की बात करने का चार्ज बहुत ही ज्यादा होता था। उस जमाने में गांव की लड़की के पास मोबाइल फोन कैसे हो सकता  था। 

यह प्रेस कटिंग देखिये मोबाइल फोन के बारे में
अब आगे बढ़ते हैं। गांव में गलती से जो लड़की आ गई थी दीपक की असली दुल्हन की जगह उसका नाम था जया।जया ने दीपक के गांव पहुंचने पर मोबाइल फोन का सिम कार्ड जला दिया था ताकि कोई उसको फोन ना कर सके और फिर  गांव की मोबाइल की  दुकान से नया सिम कार्ड खरीद के मोबाइल में लगा लिया। अब सवाल यह उठता है कि 2001 में उस गांव में ऐसी कौन सी दुकान  थी जहां सिम कार्ड मिलते थे । सन 2001 में  इक्के दुक्के लोगों के पास ही मोबाइल फोन होते थे और  वह भी उन शहरों में जहां मोबाइल नेटवर्क होता था यानि बड़े-बड़े शहरों में। बिहार के इस  गांव में मोबाइल फोन के सिम कार्ड की दुकान होना आश्चर्य की बात है।

दूसरी बात यह है कि अगर जया के पास मोबाइल फोन था भी तो गांव में तो कनेक्टिविटी थी ही नहीं 2001 में। 

जया गांव में एक दुकान में जाकर देहरादून के कृषि विद्यालय का फॉर्म ऑनलाइन डाउनलोड करवाती है और उसको ऑनलाइन भर के भेज देती है। इस तरह की स्मार्टफोन वाली ऑनलाइन डाउनलोड फैसिलिटी 2001 में नहीं थी। और गांव में 2001 में ऐसा होने का तो सवाल ही नहीं उठाता।

फिलहाल दीपक के घर में  रह रही थी जया। दीपक के घर के लोगों ने उससे उसके घर का फोन नंबर पूछा ताकि घरवालों को खबर कर दें पर सवाल यह उठता है की सन 2001 में बिहार के गांवों में क्या घरों में रेजिडेंशियल टेलीफोन होते थे । 

खैर जो भी हो मोबाइल फोन इस पिक्चर का अहम हिस्सा है और उसे हटाया नहीं जा सकता क्योंकि उसके बिना कुछ जरूरी घटनाएं हो ही नहीं  सकती है इसलिए कहानीकार की इस छोटी सी oversight को  नजरअंदाज करना जरूरी है।

पर पिक्चर में एक बात जरूर खटकती है। जया की शादी एक क्रिमिनल टाइप बहुत घटिया आदमी के साथ हो गई थी जिसके ऊपर संदेह है कि उसने अपनी पहली बीवी को जलाकर मार दिया था । इसके बारे में शायद पुलिस में कंप्लेंट भी थी। इस आदमी ने पुलिस थाने में
पुलिस इंस्पेक्टर के सामने जया को देखते ही एक जोरदार थप्पड़ मारा और धमकी दी कि घर जाकर चर्बी उतार लेंगे। उसने इंस्पेक्टर के सामने जया के मायके वालों को भी धमकी दी । इतना ही नहीं उसने पुलिस इंस्पेक्टर को भी धमकी दी कि मैं तुमको देख लूंगा।

कहानी सही तब होती जब पुलिस इंस्पेक्टर उसको जया के साथ मारपीट करने  और जान से मारने की धमकी देने के जुर्म में फौरन गिरफ्तार कर लेता और उसके साथ आए गुंडोंको भी जेल में डाल देता। लेकर आश्चर्य की बात है  की पुलिस इंस्पेक्टर ने ऐसा नहीं किया जबकि वह काफी कड़क आदमी था।  सिर्फ उससे यह कहा कि अगर जया को परेशान करने की कोशिश की तो मैं दुनिया के किसी कोने में भी हूं वहां से चलकर आऊंगा और तुमको हथकड़ी पहना दूंगा‌। यह बातें कमजोर तरह का तरीका था एक अपराधी तत्व के व्यक्ति से डील करने का।  ऐसे व्यक्ति से जया को और उसके परिवार वालों को जान का खतरा था।

जो भी हो लापता लेडीज एक  बढ़िया पिक्चर है और इसमें कलाकारों ने जिस तरह से काम किया है वह बहुत ही सराहनीय है। थाने के दरोगा जी का भी अभिनय बहुत अच्छा है । इस किरदार को फिल्म में रवि किशन ने निभाया है जो भोजपुरी फिल्मों के एक मंजे हुए अभिनेता हैं।


ऑस्कर के लिए विश्व की सबसे बढ़िया कुछ पिक्चरों मे इस पिक्चर का नाम भी शामिल कर लिया गया है  यह अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है।

पिक्चर अवश्य देखिए और इसका आनंद उठाइए।

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Sunday, 15 September 2024

हमारे बचपन के जमाने में (4)

हमारे बचपन के जमाने में (4)

समय बुरी तरह बदल गया है आजकल के  वरिष्ठ लोग जो 75 साल पार कर चुके हैं उन्होंने अपने बचपन में आजकल से बिल्कुल ही फर्क एक जमाना देखा था जिसकी आजकल के युवा लोग कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। 

अब देखिए आजकल क्या होता है। आप सुबह उठते हैं और घर के अंदर ही बने हुए बाथरूम में जाते हैं, नित्य कर्म करते हैं उसके बाद चेन खींच देते हैं तो टॉयलेट फिर साफ सुथरा हो जाता है। 

तब ऐसा नहीं होता था। तब आजकल की तरह फ्लश सिस्टम नहीं था। मकान के मुख्य हिस्से से हल्का हट के संडास होता था जहां नीचे एक बड़ा सा डिब्बा रखा रहता था और  ऊपर बैठकर उस डिब्बे मे़ घर के सभी परिवार जन बारी-बारी से  करते थे । फिर दोपहर के आसपास एक भैंसा गाड़ी आती थी काले रंग की जिसके पीछे एक बहुत बड़ा डिब्बा होता था । गाड़ी चलाने वाला आपके घर आता था पीछे जाता था और नीचे से डिब्बे को उठा कर ले जाता था और अपनी गाड़ी के बड़े डिब्बे में उलट देता था और फिर डिब्बे को साफ कर देता था और वापस रख देता था और फिर भैंसा गाड़ी चली जाती थी। 

नहाने के लिए बाथरूम तो होते थे पर बाथरूम में नल नही होते थे। हैंड पंप से पानी लाना पड़ता था बाथरूम में एक बाल्टी में । और बाल्टी प्लास्टिक के नहीं होती थी।  भारी भरकम टिन की होती थी। कभी-कभी नहाते नहाते पानी खत्म हो जाता है बाल्टी का और मुंह में साबुन लगा ही रह जाता था।

सबसे मुश्किल काम होता था सुबह उठकर अंगीठी जलाना चाय बनाने के लिए। आजकल तो आप किचन में जाते हैं स्टोव के ऊपर पानी रखते हैं और गैस  जला लेते हैं। तब ऐसा नहीं था। 

चाय आमतौर पर अंगीठी में बनती थी। अंगीठी में रात की राख भरी होती थी।  उसे निकाल कर फिर से कोयले लगाना होता। फिर उनके बीच में अखबार के टुकड़े रखना और कुछ छोटी-छोटी सूखी लकड़ी रखना फिर एक माचिस से कागज जलाना और फिर एक पाइप से फूंक फूंक के कोयले  को सुलगाते। जब तक अंगीठी जल न जाए तब तक धुएं को बर्दाश्त करना पड़ता था।  तब जाकर अंगीठी तैयार होती थी चाय बनाने के लिए।

उसे जमाने में कोई नंगे सिर बाहर नहीं निकलता था चाहे गरमी भी हो चाहे जाड़े हों। उस जमाने की पुरानी फोटो देखिये।  सब लोग सिर पर कुछ ना कुछ पहने हुए हैं, टोपी या हैट या पगड़ी। दफ्तर जाने वाले बाबू से लेकर बड़े अफसर तक सब लोग  हैट का उपयोग करते थे । उसे जमाने में सोला हैट पापुलर थी धूप में जाने के लिए । कोई भी फोटो देख लीजिए बच्चों के अलावा कोई नहीं दिखाई देगा नंगे सिर। और मैं बात सिर्फ भारत की भारत नहीं कर रहा हूं।  विदेशों की भी कोई  75 साल पुरानी फोटो देखिये तो आपको दिखाई देगा कि सब लोग सिर को ढक कर रखते थे।

दफ्तर में पुराने जमाने में हर समय टाइपराइटर की चतर-पटर की आवाज आती रहती थी।  तब फोटो स्टेट मशीन नहीं होती थी और अगर आपको किसी डॉक्यूमेंट की कॉपी बनानी हो तो उस कॉपी को टाइपराइटर में टाइप किया जाता था और फिर एक गजेटेड अधिकारी उसको प्रमाणित करता था अपने दस्तखत और मुहर लगा कर , तब जाकर वह किसी काम की होती थी। ज्यादा कॉपी बनाने के लिए कार्बन पेपर का इस्तेमाल होता था।

बैंक का काम भी अब पहले से बहुत फर्क हो गया है पहले पासबुक में हाथ से एंट्री की जाती थी जो बात साफ सुथरी नहीं होती थी और जिस पर सभी डिटेल नहीं लिखे रहते थे एंट्री करने के लिए भी समय ढूंढना पड़ता था जब बाबू कुछ फुर्सत में हो अगर पैसा लेने वालों की लाइन लगी हो उसे समय वह एंट्री नहीं कर सकता था आजकल पासबुक को मशीन में डालकर आप खुद ही एंट्री कर लेते हैं और ऐसी एंट्री जिसमें हर डिटेल बहुत साफ सुथरा प्रिंट हो जाता है। यही हाल कैशियर के काउंटर का भी था। आजकल तो आपका चेक देखकर कैशियर दराज में से नोटों की गाड़ी निकलता है और गिनने वाली मशीन में 5 सेकंड में गिनकर आपको दे देता है। पहले कैसे हाथ से गिनता था नोटों को और कब से कब दो बार गिनता था और उसमें काफी समय लग जाता था। 

उसे जमाने में एटीएम मशीन नहीं होती थी जहां जाकर आप आजकल अपने पैसे निकाल लेते हैं। उसे जमाने में ऑनलाइन पेमेंट भी नहीं होता था तो चेक से पैसे देने पड़ते थे। इसलिए हर आदमी बैंक जाता था और बैंक में बहुत भीड़ होती थी। आज कल बहुत ही कम लोग बैंक जाकर चेक काट कर पैसा निकालते हैं। 

उस जमाने में कार गिने चुने लोगों के पास ही होती थी । बाकी सभी लोग, दफ्तर के बड़े अधिकारी सहित , साइकिल में दफ्तर जाया करते थे। कोई भी पुरानी फोटो देखिये तो सड़क पर आपको बहुत सारी साइकिल है दिखाई देगी


उसे जमाने की बहुत सी चीज है अब गायब हो चुकी है । आप लोगों में से जो युवा पीढ़ी है उसने शायद हमाम जिश्ता, सिल बट्टा, मिट्टी के चूल्हे, कैंडलेस्टिक टेलीफोन, ग्रामोफोन, कभी नहीं देखे होंगे। आप में से बहुत से युवा लोगों ने अंतर्देशीय पत्रक नहीं देखा होगा इस्तेमाल करना तो दूर की बात है। दशहरा दिवाली होली नव वर्ष ग्रीटिंग कार्ड हुआ करते थे दुकानों में ढेर सारे और त्योहार पर लोग वहां जाकर ग्रीटिंग कार्ड खर्राटे थे उसका संदेश लिखते थे अपना नाम लिखते थे लिफाफे में डालकर बाहर पता लिखते थे और फिर पोस्ट ऑफिस जाकर या सड़क के लाल डिब्बे में लेटर बॉक्स में उसे छोड़ देते थे। आजकल तो व्हाट्सएप का जमाना है। 

आज से 50 साल बाद क्या होना है कहना मुश्किल है । परित तोता है पर इतना तो तय है क्या आपके हाथ में जो मोबाइल फोन है वह तब ग्रामोफोन की तरह गायब हो चुका होगा। 

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Sunday, 1 September 2024

हमारे बचपन के जमाने में (2)

हमारे बचपन के जमाने में (2)

आजकल सभी देशों की सरकार हाथ धोकर तंबाकू के पीछे पड़ी हुई है क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं कि इससे कैंसर होता है। तो तंबाकू के ऊपर इतना ज्यादा टैक्स है की आम आदमी की तंबाकू का इस्तेमाल करने में कमर टूट जाती है। आजकल शायद ही कोई सड़क पर सिगरेट पीते हुए जाता  दिखाई देगा आपको।

हमारे बचपन में यानि1950 के आसपास सिगरेट पीना शान की बात समझा जाता था।
कुछ लड़के तो हाई स्कूल आने तक सिगरेट पीने लगते थे। 

उस जमाने में सिगरेट पर टैक्स कम लगता था और काफी लोग सिगरेट पीते थे। सिनेमा हॉल में भी सिगरेट पीना मना नहीं था। मुझे याद है की बचपन में जब हम लोग सिनेमा देखने जाते थे तो हाल में सिगरेट का धुआं भरा रहता था। 
बहुत बाद में सिगरेट पीना मना हो गया था सिनेमा हॉल में।

उस जमाने में जो सिगरेट के ब्रैंड थी़ उनमें प्रमुख थे कैंची , कैप्सटन, गोल्ड फ्लैक पासिंग शो और चारमीनार। चारमीनार सबसे सस्ती थी पर उसका स्वाद कुछ बेढंगा था तो कम ही लोग पीते थे, उत्तर भारत में। 

उत्तर भारत में कैची सिगरेट बहुत प्रचलित है जो सस्ती थी और लोअर मिडल क्लास के लिए सही सिगरेट थी।
 जिनके पास पैसा ज्यादा था वह कैप्सटन या गोल्ड फ्लैक पीते थे। रईस लोगों की सिगरेट 555 होती थी। 

बाद में  1960 के आसपास पनामा सिगरेट आई जो काफी सस्ती थी और 25 पैसे की 20 सिगरेट मिलती थी एक पैकेट में। इस सिगरेट की खासियत यह थी कि अच्छे खासे पैसे वाले लोग की इसे पसंद करते थे। हां एक बात बताना तो भूल ही गया। 1950 के आसपास सिगरेट पैकेट आम तौर पर तो आती थी 10 सिगरेट के पैकेट में । 50 सिगरेट का एक टिन  आता था।

50 के दशक के दशक से पहले हुक्का भी बहुत लोकप्रिय था। तरह-तरह के हुक्के आते थे रंग बिरंगे।  नीचे पानी रखने की एक फर्शी होती थी। उसमें से ऊपर एक डंडी जाती थी कोयले वाले  कुप्पी टाइप के अटैचमेंट की तरफ। उसमें कोयला सुलगता था एक खास तरह के तंबाकू के साथ। नीचे पानी की फर्शी होती थी जिससे ऊपर को एक डंडी जाती थी जिसको मुंह में लेकर सांस खींचने पर पानी में छनकर तंबाकू का धुआं मुंह में आता था। 

जब मैं बहुत छोटा था तो हमारे घर में भी एक हुक्का हुआ करता था और उस में से एक दो बार मैंने की कश खींचने की कोशिश की पर बुरा हाल हो गया खांसते-खांसते।

 दो और तरीके से तंबाकू पिया जाता था उन लोगों द्वारा जिनके पास हुक्का खरीदने के लिए साधन नहीं थे। एक में नारियल का इस्तेमाल होता था । बड़े साइज के सूखे नारियल के एक साइड है कश खींचने के लिए टोटी होती थी और ऊपर एक चिलम होती थी अंगारों के ऊपर तंबाकू रखने के लिए । जो हुक्का नहीं खरीद सकते थे वह इसी से तंबाकू पीते थे। बिल्कुल ही गरीब आदमी सिर्फ एक छोटी सी मिट्टी की चिलम से तम्बाखू पीता था।

उसे जमाने में हर संपन्न परिवार वालों के घर में एक पान का डिब्बा होता था जिसमें कत्था चूना व सुपारी रक्खी  होती थी अलग-अलग छोटे-छोटे पीतल के कटोरियों में। और पान के करारे पत्ते होते थे गीले कपड़े में लपेटे हुए। साथ में इलायची सुपरहिट तंबाकू इत्यादि होते थे। ज्यादातर संपन्न लोग घर में ही पानी बनाते थे। उत्तर भारत में सबसे ज्यादा पुराना देसी देसावरी पान बिकता था। कुछ लोग सफेद मगही पान खाना पसंद करते थे।

किसी भी व्यस्त सड़क पर चले जाइए तो उन दिनों थोड़ी-थोड़ी दूर पर छोटी-छोटी पान की गुमटियां दिखाई देती थी इसके अंदर बैठा हुआ पनवाड़ी हर समय व्यस्त रहता था पान लगाने में या सिगरेट देने में।

यह तो थी उस जमाने की तंबाकू के शौक की कहानी। बाकी अगले एपिसोड में। 

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हमारे बचपन के जमाने में (1)

75 साल से ऊपर के महिलाओं और पुरुषों के जीवन में जो अनुभव आए हैं वह शायद ना पहले कभी आए थे ना आगे आने की संभावना  है 

हमने लकड़ी की तख्ती के ऊपर खड़िया मिट्टी से लिखकर गणित के सवाल हल किए हैं। पहले किसी चीज से इस तख्ती को साफ और काला किया जाता था ताकि खड़िया मिट्टी या चौक से लिखा हुआ साफ दिखाई दे। बाजार में उन दिनों लिखने के लिए खड़िया में पेंसिल के डिजाइन की छड़ी मिलती थी।

उसे जमाने में पत्थर की स्लेट में भी खड़िया मिट्टी वाली चौक की डंडी से लिखा जाता था और गणित के सवाल हल किए जाते थे। 
हां एक बात और बता दें कि उस जमाने में लड़कों को मास्टर साहब की जितनी मार स्कूल में पड़ती थी उसकी कल्पना भी आजकल के बच्चे नहीं कर सकते हैं।

वह जमाना  था जब सब जगह बिजली नहीं थी । लालटेन का  काफी इस्तेमाल होता था लालटेन के नीचे ढक्कन खोलकर मिट्टी का तेल भरा जाता था ऊपर से ढक्कन उठाकर कांच वाले हिस्से को साइड में झुका कर निकाला जाता था और फिर साफ किया जाता था क्योंकि रात भर लालटेन जलने  से कांच काला का जाता था।

 हां यह बताना जरूरी है की जमाने में मिट्टी तेल खूब मिलता था और बहुत सस्ता था। गरीब लोग जो लालटेन नहीं खरीद सकते थे मिट्टी तेल की छोटी सी डिबरी का इस्तेमाल करते थे । इसके ऊपर भी कांच की एक छोटी सी शैड होती थी हवा को रोकने के लिए।

उस जमाने में आजकल की तरह लाल सिलेंडर में गैस नहीं होती थी रसोई घर में। ईंटें लगाकर चिकनी मिट्टी से रसोई घर में चूल्हे बनाए जाते थे ‌। आगे खुला चूल्हा और उसके पीछे एक बंद चूल्हा होता था आगे के चूल्हे में तेज आंच होती थी और रोटी बनाई जाती थी या दाल बनाई जाती थी पीछे के चूल्हे में कोई एक पतीला रख दिया जाता था ताकि  ठंडा ना हो जाए। कभी-कभी बगल बगल में दो चूल्हे का डिजाइन भी होता था ।

बाजार से लकड़ी खरीद कर लाई जाती थी और कुल्हाड़ी से फाड़ कर छोटे-छोटे डांडिया रसोई घर में रखी जाती थी जलाने के लिए। 

रसोई घर पर अक्सर धुंआ भर जाता था तो धुएं के बाहर निकालने के लिए रसोई घर की छत पर एक चिमनी होती थी जिससे धुआं बाहर निकलता था। 

हमारे बचपन के जमाने में डाइनिंग रूम नहीं होता था खाना खाने के लिए। साधन संपन्न लोग भी खाना खाने के लिए रसोई घर में जाते थे और जमीन पर चौकिया में बैठकर थाली में खाना खाते थे।

 तब प्लेट का रिवाज नहीं था ‌। खाना बनाने के बर्तन अक्सर पीतल के होते थे और उन्हें बाहर कलाई चढ़ी होती थी । खाना बनाने के भगोंनों के बाहर चिकनी मिट्टी का लेप लगा दिया जाता था चूल्हे में चढ़ाने से पहले ताकि पकाते वक्त जो कालिख लगे वह बाहर लगी हुई मिट्टी में ही लगे और बर्तन आसानी से साफ हो जाए। थाली और गिलास भी पीतल के या कांसे के होते थे और खट्टी चीजों के लिए पत्थर की बनी हुई कटोरिया होती थी जितेंद्र पथरी कहते थे जिस पर चटनी अचार वगैरा रखा जाता था।

हमने वह जमाना देखा है जब शहर में पानी की सप्लाई की पाइप नहीं होती थी रसोई घर के बाहर आंगन में एक हैंड पंप होता था जिसके हैंडल को ऊपर नीचे  घुमाकर बाल्टी में पानी निकाला जाता था रसोई के काम के लिए और नहाने  धोने के लिए। 

उस जमाने में प्लास्टिक होता ही नहीं था । हर चीज बिना प्लास्टिक के होती थी । रस्सी सूत की होती थी, सामान ले जाने वाले बैग कपड़े के होते थे,  बाल्टी  जिंक मिले हुए लोहे की होती थी जिस पर जंग नहीं लगता था। 

उसे जमाने में कम साधन संपन्न लोगों के मकान भी बड़े होते थे जिनमे आंगन भी होता था। गर्मियों के दिनों में आंगन में पानी का छिड़काव करके खाटें बिछा दी जाती थी और उसके ऊपर  मच्छरदानी तान दी जाती थी। अक्सर जब अचानक गर्मियों में आंधी आ जाती थी या बिना मौसम का पानी बरसने लगता था तो हम लोग अपना बिस्तर लपेटकर अंदर भागते थे।  

आज के लिए इतना काफी है बाकी बातें अगले एपिसोड में। 

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Saturday, 31 August 2024

खुल जा सिम सिम

खुल जा सिम सिम 

बचपन में कहानी पढ़ने का बहुत शौक था उसे जमाने में  टेलीविजन तो मैं था नहीं और इंटरनेट का तो सवाल ही नहीं उठाता कोई सोच ही नहीं सकता था की मोबाइल फोन क्या होता है और क्या चमत्कार कर सकता है। 

तो कहानी पढ़ने के लिए मैगजीन हुआ करती थीं जैसे चंदा मामा मनमोहन वगैरा। तो एक कहानी पड़ी अलीबाबा और 40 कर की। पढ़कर मजा आ गया। उसमें सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात यह थी की गुफा के सामने खड़े होकर जो व्यक्ति भी खुल जा सिम सिम कहता था तो गुफा का पत्थर का भारी दरवाजा अपने आप सरकने लगता था और खुल जाता था। एक तिलस्म में वाली लंबी कहानी की किताब भी पढ़ी जिसमें तरह-तरह के चमत्कार तिलस्म के द्वारा होते थे। दीवाल को एक जगह छूं दिया तो अंधेरे कमरे में उजाला हो जाता था दूसरी जगह जाकर दीवाल के कोने में हाथ हिलाया तो दीवाल वैसे पानी निकालने लगता था।

बहुत आश्चर्य होता था यह सब पढ़कर पर कभी सोचा नहीं था की विज्ञान के द्वारा मेरे ही जीवन काल में ऐसा वास्तव में हो सकता है। 

यह तो  पुरानी बात हो गई अब 21वीं सदी की बात करें। 

कुछ साल पहले लखनऊ के एक आधुनिक अस्पताल में जाना हुआ किसी को देखने। बाहर निकलते समय अस्पताल में एक रेस्टोरेंट दिखा तो सोचा कुछ खा ले ।भूख तो लग ही रही थी। अंदर आया और बेसिन में हाथ धोने के लिए हाथ को साबुन से मला और फिर बेसन के नल की टोंटी खोलने के लिए नजर डाली तो वहां कोई टोटी थी ही नहीं। सिर्फ पानी निकालने वाला नल था। पीछे बैरा जा रहा था तो उससे कहा भाई यह नल में पानी खोलने के लिए टोटी नहीं है पानी कैसे निकलेगा। उसने कहा नल के नीचे हाथ लगाइए अपने आप  पानी आने लगेगा। और मैं जैसे ही नल के नीचे हाथ रखा पानी चालू हो गया और हाथ धोने के बाद हाथ हटाया तो पानी बंद हो गया। 

21वीं सदी में बहुत से चमत्कार हो रहे हैं। आप अपने मोबाइल फोन के कीबोर्ड पर लिखता है हैप्पी न्यू ईयर और एक बटन दबाते हैं और व्हाट्सएप में उसी समय आपका यह संदेश हजारों मील दूर ऑस्ट्रेलिया में आपके मित्र के मोबाइल फोन पर आ जाता है। 

वैसे देखा जाए तो बहुत से चमत्कार पिछले 200 साल से हो ही रहे हैं। पुराने जमाने में पोर्ट्रेट यानी अपनी तस्वीर बड़े-बड़े रईस लोग चित्रकारों से पेंट करवाते थे काफी पैसा देकर। आम आदमी के लिए यह संभव नहीं था। एक 50 साल का आदमी 
याह नहीं जान सकाफघभता था की 5 साल की उम्र में वह कैसा लगता था।  
फिर कैमरा का आविष्कार हुआ और बाद में वीडियो कैमरे का। अब तो आप देख सकते हैं बचपन से लेकर बुढ़ापे तक की अपनी फोटो। और बड़े-बड़े राजनेता या फिल्म कलाकार की तो डॉक्युमेंट्री या चलचित्र की फिल्में बन जाती है जो 100 साल बाद भी देखी जा सकती है। इसी तरह आवाज की रिकॉर्डिंग का भी आविष्कार हुआ और आप 100 साल पुरानी आवाज रिकॉर्ड की हुई सुन सकते हैं।

भविष्य में क्या होगा यह तो कहना मुश्किल है। पर यह तो निश्चित है की तिलस्म की कहानियों में आज से 100 साल पहले लिखा जाता था उससे ज्यादा हो चुका है और आगे और भी चमत्कार होने बाकी है।

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Sunday, 30 June 2024

वह आवाज क्या थी ॽ

लखनऊ में बरसात का मौसम शुरू हो चुका है। 

शनिवार 29 जून 2024 को रात के 11:20 बजे अचानक नींद खुल गई बादलों के गड़गड़ाने और बिजली कड़कने की आवाज जैसी सुनाई दी थी।

 यह 5 मिनट तक सुनते रहे फिर कुछ समझ में नहीं आया । शायद बाहर जोरदार पानी बरस रहा है । तो बाहर की ओर की खिड़की खोली और देखा तो पानी तो नहीं बरस रहा है पर घने बादल छाए हैं। 

खिड़की के पास खड़े होकर थोड़ी देर तक ध्यान से सुनने के बाद ऐसा लगा कि यह बिजली की आवाज नहीं है यह तो बंदूक की गोली की आवाज है । कहीं फायरिंग हो रही है शायद। अक्सर वारदातें होती रहती है या फिर शायद पुलिस वाले कहीं प्रैक्टिस कर रहे हो क्योंकि थोड़ी दूर पर पुलिस की एक एकेडमी भी है। 

लेकिन जब थोड़ी देर तक यह चला रहा तो फिर एक और बात ध्यान में आई कि आज कोई त्यौहार तो नहीं है क्योंकि हो सकता है बम वाले पटाखे छूट रहे हो।

 इंटरनेट पर जाकर पटाखे क्यों छूट रहे हैं लखनऊ में इसको गूगल सर्च किया। कहीं कोई त्यौहार नजर नही आया। 

फिर अचानक एक खबर पर नजर पड़ी। भारत वर्ल्ड कप जीत गया । साउथ अफ्रीका को सात रन से हराकर। फिर एक समाचार और भी पढ़ा । लखनऊ में भारत के वर्ल्ड कप जीतने की खुशी में बहुत पटाखे छूट रहे हैं। 

तब जाकर समझ में आया की बरसात के मौसम में यह आवाज किस चीज की थी । आवाज़ थी कोहली के 76 रन की जो बहुत दिनों के बाद उसके बैट से निकली और सही समय पर । 

मुबारक हो भारत की जीत क्रिकेट प्रेमियों को।अब सो जाता हूं फिर से।

Tuesday, 11 June 2024

जाको राखे साइयां

आपको एक किस्सा सुनाते हैं । सत्य कथा है। 

 अमेरिका में एक सज्जन सिगरेट बहुत पिया करते थे और उनकी पत्नी उनकी इस आदत से परेशान हो ग‌ई । रोज इसी बात पर झगड़ा होता और घर में अशांति का वातावरण आ गया था।
नौकरी कुछ ऐसी थी कि पतिदेव को  लंबी दूरियों की यात्राएं करनी पड़ती थी अक्सर। तो एक बार एक शहर से दूसरे शहर, जो काफी दूरी पर था , जा रहे थे । हवाई जहाज में आगे  बैठे थे। अचानक सिगरेट की तलब लगी तो जेब से सिगरेट निकाल कर  सुलगाने की कोशिश कर ही रहे थे कि एयर होस्टेस आ गई। उसने कहा कि यहां सिगरेट पीना मना है। अगर आपको सिगरेट पीनी है तो बिल्कुल पीछे केबिन में जाकर सिगरेट पीजिए।

उन्होंने वैसे ही किया और अभी आधी सिगरेट ही पी थी की एरोप्लेन के इंजन में खराबी आ गई और वह जमीन पर तेजी से  आकर गिरा । जब वह जमीन से टकराया तो पीछे का हिस्सा जहां वह सिगरेट पी रहे थे टूट के छटक के दूर झाड़ी में जा गिरा और फिर हवाई जहाज में आग लग गई। सब यात्री जलकर मर गए।  वह बच गया।
इस घटना के बाद उनकी पत्नी ने उन्हें कभी सिगरेट पीने के लिए मना नहीं किया।

यह  एक सच्ची कहानी थी जिसे आप इंटरनेट पर भी ढूंढ सकते हैं ।

 हम सभी के जीवन में भी अक्सर ऐसा होता है । या फिर सुनने में आता है  ऐसी घटना के बारे में।

एक कहावत है कि जाको राखे साइयां मार सके ना कोई ।

 एक दूसरी कहावत है कि उसकी मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिल सकता।

एक और किस्सा है जब एक महिला जिसका नाम  Juliane Koepcke है अपनी सीट सहित हवाई जहाज से  हजारों फीट नीचे आकर गिरी जब बिजली गिरने से उसका हवाई जहाज टूट गया। 

इस महिला के बारे में नीचे के लिंक में बहुत कुछ है । पढ़ियेगा ।

https://en.m.wikipedia.org/wiki/Juliane_Koepcke

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Saturday, 18 May 2024

वह भी एक ज़माना था

एक  जमाना वह भी था जब लोग घी खरीदते समय हधेली के उल्टी तरफ घी रगड़ कर उसकी मिलावट का पता लगा लेते थे।

एक जमाना वह भी था जब लोग कपड़े के थान के एक कोने को रगड़ का उसकी quality का पता लगा लेते थे।

एक जमाना था जब लोग पंचक्की जाते थे आटा पिसाने के लिए । 
उन्हें पता रहता था की किस तरह का गेंहू खा रहे हैं।  पनचक्की के ऊपर चुक्क चुक्क चुक्क चुक्क की आवाज होती रहती थी। अब नहीं सुनाई देती है यह आवाज।

एक जमाना वह भी था जब किसी भी चीज के पैकेट में उसके दाम नहीं लिखे होते थे। उस जमाने में एलोपैथिक दवाइयों के अलावा किसी भी चीज में मैन्युफैक्चरिंग डेट और एक्सपायरी डेट भी नहीं लिखी होती थी। 

एक जमाना हुआ करता था जब सुबह सुबह उठकर कोयले की अंगीठी जलानी होती थी पतली पतली लकड़ियों और कागज की मदद से।  फिर एक लोहे की पाइप को फूक फूक कर उसको सुलगाया जाता था। तब कहीं जाकर सुबह की पहली कप चाय के लिए पानी तैयार होता था। उसी जमाने में काफी घरों में कुल्हाड़ियां होती थी लकड़ी की चीर फाड़ करके आग जलाने और खाना बनाने के लिये।

एक जमाना था जब अक्सर सड़क पर गधे की पीठ पर ढेर सारे कपड़े लादकर धोबी आता दिखाई देता था हर एक के घर पर। फिर धुले हुए कपड़े लिए जाते कॉपी मे चेक करके और इसी तरह गंदे कपड़े भी नोट करके दिए जाते। अक्सर कमीज और पेंट में बटन गायब होते और कभी-कभी तो कपड़ा ही गायब हो जाता था। उसी जमाने में लोगों का यह भी कहना था कि इम्तहान के लिए  पढ़ते वक्त अगर गधे के ढेचू ढेचू की आवाज सुनाई दे जाए तो वह सवाल इंतहान मे जरूर आता था।

उस जमाने में अगर आप रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर जाते थे तो दर्जनों होल्डॉल और काले रंग के टीम के बड़े बक्से साथ लेकर सफर करते हुए लोग दिखाई देते थे और उन्हें बाहर से अंदर ट्रेन तक ले जाने के लिए कुली को सिर्फ 25 पैसे मिलते थे। आजकल की नई पीढ़ी को तो पता भी नहीं होगा कि होल्डॉल क्या चीज होती है।

उसी जमाने में ज्यादातर लोग साइकिल में ही दफ्तर जाया करते थे और उनके सिर पर  sola hat होती थी। 1970 के बाद पैदा हुए लोगों को तो पता भी नहीं होगा कि sola hat क्या होती है.

वह भी एक अजीबोगरीब जमाना था क्योंकि तब लोग अपने प्रिय जनों को और परिचित लोगों को चिट्टियां लिखा करते हाथ से और फिर उन्हें सड़क में जाकर या पोस्ट ऑफिस जाकर लाल रंग के लेटर बॉक्स में डालते थे।  हफ्ते में कई बार घर के बाहर पोस्टमैन की आवाज सुनाई देती थी और जिसने सुनी वह दौड़ पड़ता था चिट्ठी को उठाने के लिए। 

अजीबोगरीब जमाना था वह । पर कई मायने में बहुत अच्छा भी था ।

Wednesday, 15 May 2024

कुछ कहना बेकार है

कुछ कहना बेकार है

एक अच्छा जालीदार कागज लीजिए जिस पर से पानी नीचे निकल सकता है ।अब उसमें चाय की पत्ती रखिए और उसे बंद करके  उसमें एक डोरी बांध दीजिए और उस डोरी के आखिर में एक  कार्डबोर्ड का  टुकड़ा बांध दीजिए। अब उस पैकेट को एक प्याली के अंदर डालिये और धागे  कार्डबोर्ड सहित बाहर लटकाइए । अब उस प्याली में खौलता पानी भरिये । थोड़ी देर में चाय का कलर आने लगेगा। डोरी से पैकेट को हिलाने का खेल थोड़ी देर तक कीजिए  फिर पैकेट को निकाल कर अलग कर दीजिये। चाय बन गई आपकी। 

अब चाय का पाउडर है कागज का पैकेट है रस्सी की डोरी है और कार्डबोर्ड का टुकड़ा है तो पैसा तो ज्यादा लगेगा ही। डब्बे में 20-25 ऐसी चाय की पुडियाएं भर दीजिए और एक खूबसूरत डिब्बे में रखकर बेचिये बहुत ऊंचे दामों पर।

तो अब आप चाय पी रहे हो कागज का रस पी रहे हो डोरी का रस पी रहे हो तो सब चीज के पैसे तो देने ही होंगे।   महंगी चीज़ है सब लोग नहीं खरीद सकते हैं आप खरीद सकते हैं तो आपको अनुभव ऐसा होगा की आप किस्मत वाले हैं कितनी बढ़िया चाय  पी रहे है।

थोड़ा सा विज्ञापन भी कर दो उससे भी फायदा होगा लोगों को पता चल जाएगा की रईसों के पीने वाला चाय कौन सी है। 

दुनिया में अकलमंदो की कमी नहीं है। ऐसे अकलमंद भरे हुए हैं जो फटी हुई पेंट को चौगुने दाम पर में खरीदने हैं। जींस की नई पतलून लीजिए फिर उसको रेगमाल से रगड़ रगड़कर कई जगह फाड़ डालिए खूब अच्छी तरह प्रेस कर दीजिए और उसे पर दो-तीन तरह के लेवल लगा दीजिए। फिर उसे खूब ज्यादा दाम में बेचिये। 

उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद क्यों। उसकी चमड़ी मेरी  से ज्यादा गोरी क्यों। 
उसका बच्चा मेरे बच्चे से ज्यादा स्वस्थ क्यों। 
मेरा बच्चा उसके बच्चे की तरह क्लास में फर्स्ट क्या नहीं आता है। अखबार पढ़िए मैगजीन पढ़िए विज्ञापन आपको बता देंगे कि आपका बच्चा भी फर्स्ट आ सकता है अगर आप रोज सुबह उसको उनका बनाया हुआ पाउडर पानी में मिलाकर पिलाएं वह स्वस्थ भी हो सकता है पड़ोसी के लड़के से ज्यादा। और आपकी अम्मा की चमड़ी पड़ोसन की अम्मा की चमड़ी से ज्यादा गोरी हो सकती है अगर आप यह क्रीम लगायें। 

क्या कमाल खोपड़ी की सोच का और क्या विज्ञापन बनाते हैं भाई लोग। 

और सबसे कमल के तो वह लोग हैं जो इस तरह की जीत खरीदते हैं यह सोचकर कि वह बहुत अकलमंदी का काम कर रहे हैं ।

किसी का सही कहा है की बर्बाद गुलिस्ता करने को सिर्फ एक ही उल्लू काफी है,  हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्ता क्या होगा।

Friday, 5 April 2024

खाने पीने की बातें

खाने-पीने की बातें

ऐसा याद नहीं है की बचपन में कभी बाहर खाना खाया हो किसी ढाबे या रेस्टोरेंट में। बचपन का पूरा समय घर का ही खाना खाने में बीता।

  उसे जमाने में यानी 50 के दशक में पूर्वी उत्तर प्रदेश में बाहर का खाने का मतलब होता था हलवाई की बनी हुई पूरी या फिर समोसे वगैरा खाना । ऐसा याद नहीं है कि कभी पंजाबी स्टाइल  रेस्टोरेंट में खाना। भारत की आजादी के बाद बंटवारे के बाद जब पाकिस्तान से बहुत ढेर सारे पंजाबी शरणार्थी आए तब जाकर शेरे पंजाब टाइम पर  रेस्टोरेंट दिखाई देने लगे। पहले तो खाना खाने का मतलब होता था हलवाई की दुकान।

नैनीताल में मल्लीताल में एक रेस्टोरेंट हुआ करता था जिसमकी असली घी की बनी हुई जलेबियां बहुत लोकप्रिय थीं। उसके अलावा नैनीताल में ही मंदिर के पास एक  चाट गोलगप्पे वाला  खोमचा लगाता था। गर्मियों में जब वहां जाते थे तो जी भर के चाट खाते थे। ज्यादातर पानी के बताशे दहीबड़े और दही चटनी के बताशे होते थे।

फिर 50 के दशक के मध्य में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी  शुरू हुआ ढाबे और रेस्टोरेंट के खाने का कार्यक्रम। हॉस्टल में झुल्लर महाराज का मेस था जहां संडे की शाम को खाना नहीं बनता था तो शाम को बाहर खाना खाने का प्रोग्राम बनता था ।अक्सर निरंजन सिनेमा हॉल बिल्डिंग में बाहर रेस्त्रां में शाम के 6:30 का खाना खाया जाता था फिर वहीं पर पिक्चर देखने सिनेमा हॉल में घुस जाते।  खाने का मेनू होता था नान और मटर पनीर की सब्जी या स्टफ्ड टोमाटो तरी के साथ। 

इलाहाबाद की सिविल लाइंस में भी एक दुकान थी लकी स्वीट मार्ट । वहां की मिठाइयां बहुत अच्छी होती थी। एक मिठाई का नाम था एटम बम।

 यूनिवर्सिटी रोड में भी एक रेस्टोरेंट था जगाती का। खाली सिस्टम में खाना मिलता था ₹1 25 पैसे का एक थाल।

फिर लखनऊ यूनिवर्सिटी आ गए और यहां पर कोई रेस्टोरेंट आसपास था नहीं। रेस्टोरेंट जाने का रिवाज भी नहीं था । हॉस्टल में खाना बहुत खराब था पर संडे को भी शाम को मिल जाता था। हां सुना था कि उसे जमाने में हजरतगंज में हनुमान मंदिर के बगल में एक बंटूज़ नाम का रेस्टोरेंट था जहां पर 50 पैसे में पेट भर खाना मिलता था थाली सिस्टम में

बाहर खाने का असली सिलसिला तो शुरू हुआ नौकरी लगने के बाद। दिल्ली में कनॉट प्लेस में सबसे ज्यादा समय तक खाना जा खाया।  मद्रास होटल जो मद्रास होटल बिल्डिंग में था वहां पर ₹4 का एक अनलिमिटेड खाने का थाल होता था बासमती चावल का टिपिकल मद्रासी खाना। उसके अलावा रीगल बिल्डिंग के कोने में टी हाउस के पास एक रेस्टोरेंट हुआ करता था शुद्ध वेजीटेरियन नाम का।  वहां भी मैं अक्सर खाना खाता था वह भी चार रुपए का एक थाल था। हां याद आया करोल बाग में भी एक रेस्टोरेंट था जहां कभी-कभी खाना खाते थे जब करोल बाग जाते थे । रेस्टोरेंट का नाम तो याद नहीं है पर वहां पर खाने के साथ गोवर्धन घी से बनाई हुई सब्जियां और चुपड़ी हुई रोटियां मिलती थी।

 फिर नागपुर को तबादला हो गया। वहां दफ्तर था सेंट्रल सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग जिसमें केंद्र सरकार के कई दफ्तर थे पास में ही एक सिनेमा हॉल था लिबर्टी सिनेमा और उसके पास ही एक मद्रासी नाश्ते पानी की दुकान थी और सामने शेरे पंजाब नाम का एक होटल और उसके बगल में मोती महल। बस इन्हें तीनों जगह में अक्सर खाना खाया करता था। मद्रासी रेस्टोरेंट में तो डोसा इडली बड़ा उत्तपम वगैरा मिलता था चाय बहुत बढ़िया थी । पूरे नागपुर में उससे बढ़िया चाय कहीं नहीं पी मैंने । शेरे पंजाब और मोतीमहल में तेल मसाले वाला खाना होता था जिससे तंग आकर ब एक बार डब्बा सर्विस भी ज्वाइन की जिसमें टिफिन करियर में एक लड़का घर पर खाना ले आता था। 

फिर मैं दिल्ली आ गया और प्रगति विहार हॉस्टल में रहने लगा यहां पर मेरे एक दोस्त के सुझाव पर  घर में ही खाना बनाना शुरू कर दिया । प्रेशर कुकर में खाना आसानी से बन जाता था और ताजा खाना खाने का अपना अलग ही मजा था। 

अब बात करते हैं खाने के स्वाद की। अक्सर आपका सदा होगा लोगों को कहते की जो स्वाद फल फल रेस्टोरेंट के खाने का है वह घर के खाने में कहां होता है। बट आपकी सही हो सकती है लेकिन आप यह भूल जाते हैं कि बाहर का खाना बनाने में जिन चीजों का इस्तेमाल होता है वह सेहत के लिए बहुत नुकसानदायक होती है पहली बात तो यह है कि इस तेल में बार-बार सामान तला जाता है और तेल जहरीला हो जाता है। उसके अलावा तड़का लगाने में जिन मसाले का इस्तेमाल होता है उसमें  अजीनोमोटो इत्यादि वह मसाले होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए बहुत खराब होते हैं। और सबसे बड़ी बात तो यह है की बहुत सी सब्जियां बनाकर डीप फ्रीज में रख दी जाती है एक महीने तक वहां पड़ी रहती है और उन्ही को बार बार बाहर निकाल के गर्म करके ताजी ग्रेवी मिलकर आपको पेश कर दिया जाता है।

चलते-चलते एक बात याद आ गई तो आपको बता देता हूं इलाहाबाद में अक्सर दिन में दफ्तर के पास एक रेस्टोरेंट में खाना खाया करता था और उस बैरे को अच्छी टिप देता था। एक दिन उसने कहा साहब आप यहां खाना मत खाया कीजिए मुझे बहुत ताज्जुब हुआ और मैंने कहा क्यों भाई क्या बात है।  उसने बताया ॓ साहब आप जो यहां खाना खाते हैं वह एक महीने से भी ज्यादा पुराना होता है और deep freeze में पड़ा रहता है। आपको इससे बहुत नुकसान हो सकता है। आप भले आदमी है इसलिए आपको बताना मेरा कर्तव्य है। मैंने उसे धन्यवाद दिया और कुछ पैसे दिए धन्यवाद के तौर पर और फिर मैं वहां कभी नहींगया।

***

 उसे दिन के बाद मैं बहुत सावधानी बढ़ता था खाना बाहर खाने में

Monday, 1 April 2024

सब कुछ बदल गया है

हॉलीवुड की तर्ज पर मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री का नाम कब से बॉलीवुड पड़ा यह तो मुझे पता नहीं पर मैं बचपन से ही फिल्मों में दिलचस्पी रखने लगा था। बचपन में फिल्म देखने की आदत काम ही मिलती थी और साल में मुश्किल से एक दो फिल्में देख पाते थे वह भी जब बड़े लोग जाकर फिल्म देखा जाए और फिल्म बच्चों के देखने लायक मानी जाए। पर सिनेमा के पोस्टर देखने में बड़ा मजा आता था।

जब मैं स्कूल में पढ़ता था तब हमारे घर के सामने जो बड़ी चौड़ी सड़क है थी उसके ऊपर से अक्सर सिनेमा हॉल मैं आने वाली नई फिल्मों के बारे में जानकारी देने के लिए एक छोटा सा कारवां निकलता था। जोकर की पोशाक में फिल्म के विज्ञापन के बड़े-बड़े पोस्टर हाथ पर लिए हुए लड़के एक के पीछे एक कतार में चलते थे और धारा लगते थे "आज रात को यूनाइटेड टॉकीज के सुनहरे पर्दे पर हंटर वाली के हैरतंगेज कारनामे " और हवा में आने वाली फिल्म के पैम्फ्लेट उछालते रहते थे । उनके पीछे-पीछे चलने वाले तमाशा बिन लड़के इन पर्चियां को लूटते रहते थे।

 बचपन में शायद सबसे पहले जिस फिल्म का इस तरह का विज्ञापन देखा था वह "हंटर वाली की बेटी" था । यह 1940 के दशक के आखिर की बात है।

उसे जमाने में सुरैया और देवानंद की बड़ी धूम थी। दिलीप कुमार तो हमेशा फिल्में के आखिर में मर जाता था और मुझे उसकी फिल्में बिल्कुल पसंद नहीं थी।

फिल्म की पहली मैगजीन जो मैंने देखी थी वह फिल्मlफेयर थी। 1952 में शायद पहली बार प्रकाशित हुई थी । उसे जमाने में 8 आने की एक मैगजीन आती थी ।  इंटरनेट तो था नहीं तो मैगजीन खूब बिकती थी और बड़े-बड़े साइज की बहुत सी मैगजीन थी जैसे इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया, धर्म योग साप्ताहिक हिंदुस्तान शंकर्स वीकली। सभी छह आने से 8 आने के बीच में होती थी। 50 के दशक में blitz नाम की मैगजीन‌ एक बहुत बिकने वाली अखबार नुमा साप्ताहिक मैगजीन थी चार आने की।

 बच्चों की जो सबसे पहले मैगजीन मैंने पढ़ी थी वह शिशु थी। चार आने की आती थी, छे सात साल के बच्चों के लिए पढ़ने वाली ।  चंदा मामा और मनमोहन भी काफी लोकप्रिय मैगजीन थी । 

50 का दशक बॉलीवुड सिनेमा का संगीत का  सफल समय की शुरुआत था। सिनेमा के गाने उसे जमाने में ऑल इंडिया रेडियो यानी दूरदर्शन पर नहीं सुनाए जाते थे क्योंकि सरकार की आदर्शवादी नीति के कारण सिर्फ क्लासिकल संगीत ही ऑल इंडिया रेडियो में सुनाया जाता था। इसका फायदा उठाया श्रीलंका की रेडियो एडवरटाइजिंग सर्विसेज ने ।  श्रीलंका को तब सिलोन नाम से जाना जाता था ।और रेडियो सिलोन भारत में बहुत लोकप्रिय हो गया सिनेमा संगीत की वजह से। 

रेडियो सिलोन का सबसे सफल संगीत का प्रोग्राम बिनाका गीत माला था जो कि शायद 1952 में शुरू हुआ और उसकौ सफल करने का श्रेय पूरी तरह से अमीन सयानी को जाता है।

1960 के दशक के अंतिम वर्ष में बॉलीवुड कुछ फीका फीका सा पड रहा था क्योंकि बहुत से काफी ज्यादा उम्र के कलाकार हीरो बनकर रोमांस कर रहे थे जो दर्शकों को भा नहीं रहा था। तब अचानक फिल्म जगत में राजेश खन्ना की एंट्री हुई है फिल्म आरधना  के रोमांटिक हीरो के रूप में।
धो अचानक पूरी बॉलीवुड इंडस्ट्री को उन्होंने झिझोड़ के रख दिया। पहले आई आराधना फिर आई आनंद और फिर एक के बाद एक बहुत सी सुपरहिट फिल्म आई चली गई।

 इससे पहले कभी पूरा देश किसी एक कलाकार के पीछे इतना दीवाना नहीं हुआ था। और उसके साथ ही फिल्म आराधना के गानों से एक नए किशोर कुमार का फिल्म जगत में प्रवेश हुआ और वह था राजेश खन्ना के पार्श्व गायक के रूप में।रूप तेरा मस्ताना, रहने दो छोड़ो जाने दो यार,  कहीं दूर जब दिन ढल जाए जैसे गानों ने देश को संगीत मय कर दिया।

आज के दौर में न तो कोई सुपरस्टार है ना तो कोई चमत्कारी सिंगर है ना तो कोई चमत्कारी सिनेमा हॉल है और नहीं कोई चमत्कारी फिल्म है।

 सब कुछ बदल गया है

Wednesday, 27 March 2024

नाम में क्या रखा है

नाम में क्या रखा है

बच्चे बहुत शरारती होते हैं बचपन में हम लोग बड़े लोगों के स्वभाव और पर्सनालिटी के आधार पर अक्सर उनके लिए कोईबनाम रख देते हैं। कभी-कभी उन दिनों के रखे हुए नाम की याद आती है तो बहुत हंसी आती है।

मेरे क्लास में एक लड़का पढ़ता था वह इतना काला और चमकीला था कि स्कूल में अलग दिखाई देता था। हमारी क्लास के लड़कों ने उसका नाम cobra boot polish dark tan रख दिया था। एक मास्टर जी थे गणित के, जो बहुत छोटे साइज के और गोल मटोल से थे और लुढ़कते हुए चलते थे,  तो उनका नाम डनलप मास्टर रख दिया था। 

हमारे घर के बाहर की तरफ का एक बड़ा कमरा मेहमानों का कमरा होता था। होता यह था कि हमारे दादाजी गांव से किसी को भी हमारे शहर में भेज देते थे नौकरी की तलाश में और जब तक उसकी नौकरी नहीं लग जाती थी और रहने के लिए जगह नहीं मिल जाती थी तब तक हमारे ही गैस्ट रूम में रहता था। तरह-तरह के लोग वहां जाकर रहे जिनमें से कुछ लोगों का नाम हम लोगों ने रख दिया था। एक बहुत लंबा दुबला पतला मेहमान था जिसका नाम लमपूछया पांडे पड़ गया था। एक दूसरा पांडे था जिसका मिजाज थोड़ा गर्म था तो उसका नाम गुर्री पांडे रख दिया गया था। इसी तरह एक और सज्जन थे जो इतने पतले लंबे और छड़ी की तरह सीधे थे कि उनका नाम खंबा रख दिया गया था। एक सज्जन साल भर तक रहे और बहुत रहस्यमई तरीके से इधर से उधर जाते दिखाई देते थे तो उनका नाम नेवला पड़ गया।

बात सिर्फ हमारे बचपन की या घर की नहीं है थोड़े बड़े होकर जब यूनिवर्सिटी में गए तो हॉस्टल में भी देखा कि लड़कों के नाम पड़ रहे हैं। मुझे पता नहीं है पर मेरा भी जरूर कोई नाम पड़ा होगा। एक लड़का था जिसके नाक के नथुने बहुत ही चौड़े थे और नाक भी बहुत बड़ी थी। उसका नाम रखा गया था भैंस। उसके बगल के कमरे में एक छोटे से कद और छोटी-छोटी आंखों वाला लड़का था जिसकी आंखें बहुत चंचल थी इधर से उधर घूमती रहती थी उसका नाम रखा गया था कबूतर। एक और सीनियर स्टूडेंट था जो ऊपर की मंजिल के कोने के कमरे में रहता था। उसकी शक्ल कुछ इस तरह की थी कि उसका नाम बुलडॉग पड़ गया। हॉस्टल में 2 साल रहने के बाद एक नया लड़का हॉस्टल में आया जिनका कद 6 फुट 4 इंच था दुबला पतला था। उसका नाम भाई लोगों ने ICBM रख दिया था।

ऐसे भी कई नाम है जो उनकी अपनी भाषा में तो सही है पर हिंदी में ऐसे नाम देखकर अगर आपको हंसी आ जाती है तो गलत नहीं है। आपकी भाषा में उसका कुछ और मतलब होता है। लोगों का नाम अपनी भाषा में अच्छा होता होगा पर उत्तरी भारत में इन डॉक्टर साहिब का बोर्ड बड़ा अटपटा लगता है।



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बाजार का बदलता स्वरूप

बाजार का बदलता स्वरूप


होली के एक दिन पहले दूध और दही की इतनी ज्यादी मांग थी की 12:00 बजे तक पूरी मार्केट में दूध दही खत्म हो गया। मुझे दही की जरूरत थी। अब टाइम पर खरीद नहीं पाया तो सोच रहा था क्या किया जाए तो इसी बीच किसी ने सुझाव दिया की क्यों ना ऑनलाइन ऑर्डर कर दो । ट्राई करके देखो। तो मैंने अपना मोबाइल फोन उठाया,  एक ऑनलाइन मार्केटिंग साइट पर गया और दही दूध वगैरा का ऑर्डर दे दिया । 

ठीक 10 मिनट के बाद मेरा सामान मेरे यहां पहुंच गया ।

समय कितना बदल गया है यह सोचकर आश्चर्य होता है। आज से अनेक दशक पहले भारत की आजादी के आसपास के समय में खरीदारी करना आजकल के अनुभव से बिल्कुल फर्क था। 

हम एक छोटे शहर में रहते थे। घर से थोड़ी दूर पर एक छोटा सा बाजार था जहां पर खेलकूद का सामान मिलता था डबल रोटी मक्खन की दुकान थी और दारू की दो-तीन दुकान थी। वह सिविल लाइंस का इलाका था जहां एक जमाने में अंग्रेज रहते थे तो दारू की दुकान होना तो जरूरी था। बाकी कोई दुकान नहीं थी ना कपड़ों की, न गेहूं चावल वगैरह की ।सब्जी मंडी की भी कोई दुकान दूर-दूर तक नहीं थी और न ही कोई दुकान जनरल मर्चेंट की।

उसे जमाने में सर पर टोकरी रखकर सब्जी बेचने वाले कभी-कभी घर पर आते थे।  एक खूब चौड़ी टोकरी सर पर रखकर सब्जी वाली आवाज लगाती हुई अतिथिऔर उस से सब्जी खरीदने थे हम लोग। बाकी सब्जियां हमारा रसोईया बताने कहां से लाता था और किस भाव में। 

छोटे-छोटे कई फेरी वाले सामान बेचने के लिए ज्ञापन आते थे जैसे candyfloss जिसे बुढ़िया के बाल कहते थे, चना जोर गरम कटे हुए गन्ने के टुकड़े और मेवे बेचने वाला पठान। कभी कबार कपड़े बेचने वाले भी आ जाते थे।

उसे जमाने में घर से काफी दूर पर बाजार होता था  जहां सभी सामान मिलता था सब्जियां जूते कपड़े राशन का सामान इत्यादि। पर वहां जाने के कोई आसान साधन नहीं थे। न टेंपो था न ऑटो था और नहीं पैडिल वाली रिक्शा थी। तांगे एक्के के चलते थे थोड़े बहुत। ज्यादातर लोग अपनी साइकिल का इस्तेमाल करते थे।

खाने का मतलब है कि सामान की खरीद फरोख्त के लिए अलग से काफी टाइम निकालना पड़ता था और आने जाने के साधन ढूंढने पड़ते थे फिर उत्तर भाई सामान उठाकर लाने में काफी समय लगता था मेहनत लगती थी और पैसे लगते थे।

1950 के दशक में सभी शहरों में आजादी के बाद पाकिस्तान से काफी शरणार्थी आ गए थे खासकर पंजाब से और वह सभी बहुत अच्छे किस्म के बिजनेसमैन थे । तो धड़ाधड़ कई तरह की दुकान खुलने लगी। कपड़ों की दुकाने, राशन की दुकाने, मेवे और मिठाइयों की दुकाने और जनरल समान की भी दुकाने। शहर के पुराने दुकानदारों में ग्राहकों से अच्छी तरह बात करने की आदत नहीं थी पर पंजाब से आए खासकर सिख समुदाय के लोग बहुत अच्छी तरह ग्राहकों से बात करते और धीरे-धीरे उन्होंने पूरी मार्केट पर कब्जा कर दिया।

धीरे-धीरे यातायात के साधन अच्छे हो गए ऑटो रिक्शा चलाते हैं लगे दूर  दूर से सामान लाना आसान हो गया लोगों के पास अपने स्कूटर होने लगे। और कुछ दुकानदारों ने तो घर पर खुद ही सबर पहुंचना शुरू कर दिया।

इसके बाद एक समय आया जब  शहरों में mall खोलने लगे एक ही बहुत बड़ी जगह पर एक परिवार की जरूरत का सभी सामान मिल जाता था वहीं पर सब्जी लिए वहीं पर राशन लिया वहीं पर प्रधान के सामान दिए वहीं पर जरूर की अन्य चीजों का सामान भी लिया और फिर काउंटर पर आकर बिल बनवाकर पैसा दिया और घर को चल दिए। mall के आ जाने के बाद छोटी दुकानों की आमदनी कुछ घट गई क्योंकि बोल में समान थोड़ा सस्ता मिलता था।

लेकिन सबसे बड़ा चमत्कार इंटरनेट के आने के बाद हुआ जब कुछ बड़ी-बड़ी कंपनियों ने सीधे सस्ते दामों पर घर पर सामान पहुचाना शुरू कर दिया। अब तो आपके घर से बाहर निकाल दे की भी आवश्यकता नहीं थी मोबाइल उठाया अमेजॉन फ्लिपकार्ट ब्लैंकेट जिओ मार्ट बिगबास्केट वगैरह बहुत से मार्केटिंग साइट्स है जहां पर आप जाकर हर तरह का समान चाट सकते हैं और आर्डर कर सकते हैं और बहुत जल्दी ही आपके घर के अंदर वह सामान पहुंचा दिया जाता है दुकानों से थोड़े कम दाम में।

विज्ञान की प्रगति के साथ इतनी तेजी से विकास हो रहा है कि ईश्वर ही जानता है कि आज से 10 साल बाद हम सामान किस तरह खरीदेंगे।

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