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Wednesday, 10 September 2025

जिम कॉर्बेट की कहानी

जब मैं दसवी क्लास में पढ़ता था तो एक दिन मेरे पिताजी के एक दोस्त के यहां मैने हार्ड कवर में खूबसूरत पेपर जैकेट में एक किताब देखी जिसमे एक शेर (टाइगर) जंगल में घूम रहा था।  किताब को देखना शुरू किया तो मन किया की पूरी कहानी पढ़ी जाए। मेरे पिताजी के दोस्त ने वह किताब मुझे पढ़ने के लिए दे दी और अगले दिन पूरे दिन उस किताब को ही पढ़ता रहा और किताब पूरी पढ़ लेने के बाद मैं उस किताब के लेखक जिम कॉर्बेट का फैन बन गया। 

जिम कॉर्बेट ने साठ साल की उम्र के बाद ही अपने अनुभव लिखने शुरू किये । उनके लिखने का स्टाइल इस तरह का था कि लगता था कि मैं खुद जंगल में पेड़ के ऊपर बैठा हूं और नीचे खड़े शेर को देख रहा हूं।  बहुत आकर्षक और रोमांचकारी। जंगल के बारे में पढ़ कर  लगता था मैं खुद जिम कॉर्बेट के साथ हूं और अभी शेर मेरे ऊपर उछलने वाला है ।  फिर गोली चलती है। सुबह  वह शेर आसपास की गांव के सभी लोगों के घेरे के अंदर जमीन में पड़ा होता है और उस शेर को मारने वाले हीरो की जय जयकार होती है। जिम कॉर्बेट वाकई जय जयकार के हकदार थे क्योंकि उन्होंने ऐसे शेर मारे थे जो गांव से बच्चों को और बड़ों को उठा ले जाते थे और अगले दिन उनकी लाश जंगल से गांव के लोगों की एक टोली लेकर आती थी।

जिम कॉर्बेट के दादा जी और दादी जी सन 1815 पर आयरलैंड से भारत आ कर यहीं बस गए। इनके पिताजी  क्या जन्म में भारत में ही हुआ था और वह भारतीय सेना में थे और  रिटायरमेंट के बाद  नैनीताल में बस गए थे जहां वह पोस्ट मास्टर के रूप में कुछ समय तक काम करते रहे। उनके नौ बच्चे थे एक ने जिम कॉर्बेट आठवीं संतान थी। इनकी माता जी ने  काफी समय तक नैनीताल में एक रियल स्टेट एजेंट के रूप में भी काम किया। 


सन 1880 में नैनीताल में एक विशाल लैंड स्लाइड हुआ स्नो व्यू वाली पहाड़ी की तरफ और इसमें जिम कॉर्बेट के परिवार की कई प्रॉपर्टी नष्ट हो गई । इसके बाद इनकी माता जी ने उस पहाड़ की दूसरी तरफ वाले पहाड़ पर एक  मकान बताया जिसका नाम गुरने हाउस रक्खा। जिम कॉर्बेट ने अपने जीवन का अधिकार भाग इसी मकान मे गुजारा।

गुरने हाउस घने जंगलों के बीच में था क्योंकि उस समय नैनीताल में  बहुत कम मकान थे और मकान के चारों तरफ घने जंगल थे। बचपन से ही जिम कॉर्बेट को जंगलों में घूमने की आदत थी और वह अपनी गुलेल से अक्सर छोटे-छोटे जीवो का शिकार किया करता था। 8 साल की छोटी उम्र में ही जिम कॉर्बेट को एक छोटी सी शॉटगन बंदूक मिल गई और वह धीरे-धीरे बहुत बढ़िया निशानेबाज बन गये। कुछ समय बाद जिम कॉर्बेट की निशानेबाजी से प्रभावित होकर फौज के एक बड़े ऑफिसर ने उन्हें एक बहुत बढ़िया राइफल भेंट की। इसी राइफल से जिम कॉर्बेट ने अपना पहला आदमखोर तेंदुआ मारा।

जिम कॉर्बेट (जिनका पूरा नाम एडवर्ड जेम्स कॉर्बेट था,) का जन्म नैनीताल में  25 जुलाई सन 1875 को हुआ था । नैनीताल उसे समय ब्रिटिश राज के एक मशहूर हिल स्टेशन के रूप में  विकसित हो रहा था। 

जिम कॉर्बेट ने काफी समय तक  बिहार में  मोकामा घाट में नौकरी की । उसके बाद कुछ समय तक वह भारतीय सेवा में भी रहे  और प्रथम विश्व युद्ध में भी योगदान दिया। 

बाद में जिम कॉर्बेट नैनीताल वापस आ गए और वहां कुछ समय तक नैनीताल के पोस्ट मास्टर के रूप में काम भी काम किया। सन 1915 में जिम कॉर्बेट ने हल्द्वानी के पास छोटी हल्द्वानी नाम का एक उजड़ा हुआ गांव खरीद लिया कालाढूंगी के पास और उसे एक अच्छे गांव की तरह विकसित किया। उन्होंने गांव के चारों तरफ एक ऊंची दीवाल भी  बनवाई गांव की सुरक्षा के लिए और धीरे-धीरे गांव आबाद हो गया। उन्होंने खुद भी अपने और अपनी पत्नी के लिए एक अच्छा सा मकान बनाया और खेती करनी भी शुरू कर दी। आज वह मकान कालाढूंगी में उनके स्मारक के रूप में जाना जाता है जिसके आहाते में उनकी एक मूर्ति भी है।

1944 में उनकी पहली पुस्तक "मैन ईटर्सआफ कुमाऊँ" प्रकाशित हुई और उसने उनको जगत प्रसिद्ध कर दिया क्योंकि उस किताब की कॉपियां पूरे अंग्रेजी पढ़ने वाले विश्व में काफी संख्या में खरीदी गई। इसके बाद तो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस  ने उनसे और किताबें लिखने का अनुरोध किया और उन्होंने "मैन ईटिंग लेपर्ड ऑफ रुद्रप्रयाग" और "टेंपल टाइगर" नाम की किताब लिखी जो बहुत ही लोकप्रिय हुई ।  उन्होंने दो तीन किताब और भी लिखी।

भारत की आजादी के बाद हुए दंगों से प्रभावित होकर उन्होंने भारत से  जाने का निर्णय लिया। भारत की आजादी के तीन-चार महीने बाद ही वह अफ्रीका में केन्या चले गए जहां पर उन्होंने कुछ समय पहले एक फार्म  खरीदा था।

19 अप्रैल 1955 में  जिम कॉर्बेट सदा के लिए इस दुनिया से विदा हो गए। उन्हें सेंट पीटर्स एंग्लिकन चर्च मैं दफनाया गया जहां आज भी उनका स्मारक पत्थर लगा हुआ है। 

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