सिनेमा की बातें
बचपन मे सिनेमा देखना बड़ा मुश्किल होता था हालांकि मन बहुत करता था। अगर हम कोई फिल्म देखने की जिद करते थे तो पहले बड़े लोग जाकर वह फिल्म देखते थे और अगर वह हमारे देखने लायक हुई तभी हम जा सकते थे । साल में मुश्किल से एक या दो फिल्म देखते थे ।
फिर यूनिवर्सिटी आने के बाद फिल्म देखने का बिना रुकावट के सिलसिला शुरू हुआ।
बचपन में मुझे दिलीप कुमार बिल्कुल पसंद नहीं था क्योंकि करीब-करीब हर फिल्म में वह आखिर में मर जाता था और ऐसी मनहूस एक्टिंग करता था की मूड खराब हो जाता था। राज कपूर अच्छा लगता था क्योंकि वह हमेशा बच्चों के पसंद की एक्टिंग करता था।
यूनिवर्सिटी पर आने के बाद जब सिलसिला शुरू हुआ फिल्म देखने का तो देवानंद की कई फिल्म देखी। देवाराम अब अच्छा लगने लगा। लटके झटके वाला एक्टर था जिसके पुराने फिल्म देखकर खासकर 1950 के दशक के बहुत हंसी आती है हालांकि कुछ फिल्मों में उसने बहुत ही शानदार एक्टिंग की थी।
उस जमाने में छोटे शहर में रहता था तो वहां सिनेमा हॉल भी छोटे हुआ करते थे और सुविधाओं की कम थी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी आया तो काफी बड़ा शहर होने की वजह से वहां पर सिविल लाइंस में दो बहुत अच्छे सिनेमा हॉल मिल गए पैलेस और प्लाजा । उसके अलावा निरंजन भी बहुत अच्छा सिनेमा हॉल था। उस जमाने में हमें स्टूडेंट कंसेशन मिलता था और ₹1 में फिल्म देखी जा सकती थी।
फिर लखनऊ आ गया और यहां पर कई बहुत अच्छे सिनेमा हॉल थे खासकर अंग्रेजी फिल्मो वाला मैफेयर सिनेमा हॉल।
फिर नौकरी करने दिल्ली चला गया और वहां तो बहुत ही शानदार सिनेमा हॉल हुआ करते थे जैसे गोलचा शीला रीगल ओडियन वगैरह। बहुत फिल्में देखी दिल्ली में, अंग्रेजी फिल्में भी और हिंदी फिल्में भी। कनॉट प्लेस के सिनेमा हॉल में टिकट मिलने बड़ा मुश्किल होता था खासकर छुट्टी के दिनों में। कई बार भीड़ में खड़ा रहता था और देखता था कि किसी के पास फालतू टिकट हो तो उससे ले लिया जाए । अक्सर ऐसे टिकट मिल जाया करते थे और अगर नही मिलते थे सो कनॉट प्लेस के चक्कर लगाने , कॉफी पीने और डोसा खाने का आनंद लेते थे।
उसे जमाने में और आजकल में फिल्मी दुनिया में काफी अंतर है । उसे जमाने में न टीवी था न लैपटॉप था और न हीं स्मार्टफोन थे। मनोरंजन का केवल एक ही साधन था और वह था फिल्में।
एक्टर्स की लोकप्रियता बहुत थी और कहीं भी किसी एक्टर को देखकर हजारों की भीड़ जमा हो जाती थी क्योंकि एक्टर्स को हम सिर्फ एक बार कभी कभी पर्दे पर ही देख पाते थे। फिल्मी मैगजींस की भी बहुत लोकप्रियता थी। उस जमाने की सबसे ज्यादा लोकप्रिय मैगजीन थी फिल्म फेयर। बाद में तो बहुत सारी फिल्म मैगजीन प्रकाशित होने लगी 70 के दशक के आसपास। इनमें स्टारडस्ट और स्टार ऐंड स्टाइल काफी लोकप्रिय थी ।उसके अलावा भी कई और मैगजीन थी।
हमारे बचपन में सुपरस्टार नही होते थे । तीन बड़े एक्टर थे देवानंद राज कपूर और दिलीप कुमार। इसके अलावा कई और एक्टर थे पर उन एक्टर्स की लोकप्रियता काफी ज्यादा नहीं थी।
फिर 1969 में एक बहुत बड़ा धमाका हुआ और फिल्म जगत में राजेश खन्ना का प्रवेश हुआ। पहले कुछ सालों में उसने पूरे भारत को हिला कर रख दिया । 5 साल के बच्चे से 70 साल के बुड्ढे तक सभी राजेश खन्ना पर दीवाने थे । ऐसा ना कभी पहले हुआ था ना कभी उसके बाद हुआ। अमिताभ बच्चन भी एक बहुत ही सफल कलाकार था पर उसने राजेश खन्ना जैसा धमाका नहीं किया। पर जहां अमिताभ बच्चन एक बहुत बड़े सुपर स्टार के रूप में फिल्मी दुनिया में कई दशकों तक जमा रहा वहीं राजेश खन्ना एक टूटते तारे की तरह चार-पांच साल के बाद अपने लोकप्रियता खो बैठा और उसकी फिल्में धड़ले से फ्लॉप होने लगी।
अब फिल्मी दुनिया में वह बात नहीं रही जो फिल्मी दुनिया के स्वर्णिम काल में हुआ करती थी। अब बड़े सिनेमा हॉल जिसमें 70 मिलीमीटर के परदे पर फिल्म देखने का मजा ही कुछ और था बंद हो चुके हैं और अब एक बीमारी की तरह मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल सभी शहरों में पैदा होते जा रहे हैं । फिल्म देखने का कोई मज़ा नहीं है अब। पहले फिल्म स्टार के पीछे कैमरा लिए फोटोग्राफर दौड़ते रहते थे और बड़ी मुश्किल से उनकी फोटो खींच पाती थी । आजकल के अभिनेता और अभिनेत्री किराए के फटॉग्रफर्स को लेकर अपनी फोटो खिंचवाते हैं ताकि वह लोकप्रिय रह सके।
जिस तरह से इंटरनेट का विकास हो रहा है और स्मार्टफोन एक से एक बढ़िया बनते चले जा रहे हैं वह समय दूर नहीं है जब बॉलीवुड का सितारा अस्त हो जाएगा और छोटे-मोटे फिल्म स्टार अपने वीडियो फिल्म बनाकर यूट्यूब या अन्य साधन से भारतवासियों को दिखाएंगे। एक कहावत है हर कुत्ते के दिन होते हैं। यह कहावत फिल्म स्टार्स पर भी चरितार्थ होती दिखाई दे रही है।
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