बचपन के दिन
बचपन के दिन भी क्या दिन थे ! पूरे संसार को एक अलग नजरिए से देखते थे । हमारे बचपन के संसार में बच्चे ही असली मनुष्य होते थे बड़े लोग तो कुछ ज्यादा पुराने लगते थे और अजीबोगरीब टाइप की बातें करते थे। और बुड्ढे लोग तो हम लोगों की दुनिया में अजायबघर के नमूने होते थे।
हमारे नाना जी के पड़ोस में एक बुड्ढे मनुष्य रहते थे साठ साल से ज्यादा के होंगे। रिटायर हो गए थे। हमारे नाना जी उनके जान पहचान के थे तो जब गर्मियों की छुट्टियों में नाना जी के घर जाते थे तो अक्सर उनके साथ पड़ोस में चले जाते थे ताश खेलने के लिए। तब मैं कोई 10 साल का होउंगा। वहां जाने के दो आकर्षण होते थे -- एक तो उनके घर में ताश खेलते वक्त पकड़िया बनती थी तो पकौड़े खाने को खूब मिलती थी दूसरे उनके दांतो को हिलता देखकर मुझे बड़ा अच्छा लगता था। जब वह बात करते थे तो उनके सभी दांत हिलते थे। बाद में पता चला कि वह नकली दांत लगाते थे । पहले हमें पता भी नहीं था की दांत नकली भी होते हैं ।
उन दिनों स्कूल में छुट्टी बहुत होती थी । त्यौहार की छुट्टी। पानी बरस गया उसकी छुट्टी। मास्टर साहब नहीं आए तो छुट्टी। फीस जमा करने की बाकी दिन की छुट्टी । उसके अलावा तो छुट्टियां हर त्यौहार की होती थी और साल में तीन बार लंबी छुट्टी होती थी -- दशहरे की क्रिसमस की और एक लंबी छुट्टी गर्मियों की।
सातवीं क्लास में जब मैं था तो हमारे मास्टर होते थे शशिमौल पंडित जी । हिंदी पढ़ाते थे और क्योंकि हिंदी ग्रामर मुझे बहुत अच्छा आता था और काफी लड़के हिंदी में गलती कर जाते थे इसलिए वह मुझे बहुत अच्छा मानते थे । उनके क्लास मैं एक प्रथा थी कि जब वह सवाल पूछे थे तो लड़के हाथ उठाते जवाब देने के लिए फिर उनके सवाल के जवाब जो जो लड़के गलत देंते वह गलत जवाब देने के बाद खड़े ही रहते। थोड़ी देर जब कोई लड़का सही जवाब दे देता तो उस लड़के को घूसा मारना होता उन खड़े हुए लड़कों के।
उसी से एक बार समस्या शुरू हुई। हुआ ऐसा कि मैंने सवाल का सही जवाब दिया और मुझे एक गुंडे लड़के की पीठ एक घूसा मारना पड़ा। उसने धीरे से कहा "बेटा देख लूंगा किसी दिन"।
फिर होली का दिन आया। उस दिन उसने पकड़ के मेरे मुंह में कोलतार वाला रंग लपेट दिया। हमारे हेड मास्टर साहब बहुत स्ट्रिक्ट थे और उन्होंने यह नियम बना रखा था कि स्कूल में कोई होली नहीं खेलेगा और जो खेलेंगे उनको कड़ी सजा मिलेगी।
तो मुझे पकड़ लिया गया। 6 लड़के पकड़े गए होली खेलते हुए और उनको ले जाकर हेड मास्टर साहब के कमरे के बाहर एक लाइन मैं खड़ा कर दिया गया । फिर हेडमास्टर साहब बाहर आए। उन्होंने अपनी मोटी छड़ी उठाई और लाइन में खड़े पहले लड़के को पीटना शुरू कर दिया। जब उस लड़के को अधमरा कर दिया तो जाने दिया। फिर दूसरे की बारी आई। आखिर में मेरा नंबर आया।
उन्होंने छड़ी उठाई तो अचानक मुझे देखकर कहने लगे "तुम यहां क्या कर रहे हो"। मैं जोर जोर से रोने लगा मैंने कहा "एक लड़के ने मुझे पकड़ कर कोलतार पोत दिया। मैं क्या कर सकता था?"
उन्होंने मुझे बिना पिटाई किए छोड़ दिया।
हम लोगों के जमाने में बच्चों की पिटाई बहुत होती थी। स्कूल में मास्टर पीटते थे । घर में माता पिता के हाथ से पिटते थे। आजकल तो बच्चों को छूना भी मना है।
आज काफी उम्र बीत जाने के बाद बचपन की याद आ गई । बड़ा लंबा सफर रहा है और इस सफर में सबसे ज्यादा यादें बचपन की हैं क्योंकि जो निश्चितता की जिंदगी हमने बचपन में बिताई वह फिर कभी नहीं आ पाई।
किसी ने सच ही कहा है--
" बचपन~ के~ दिन ~भी ~क्या ~दिन ~थे।
हंसते ~गाते ~तितली~ बन ~के"।
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